वर्ष 1784 ईस्वी में तिलका मांझी ने अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया जिसे तिलका आंदोलन के नाम से जाना गया| यह आंदोलन अपनी जमीन पर अधिकार के लिए पहाड़ियों को अधिक सुविधा देकर फूट डालने वाली नीति के विरोध में तथा क्लीवलेंड के दमन के विरोध में था|
18 वीं सदी के अंतिम वर्षों में राजमहल क्षेत्र में संथालों का प्रवेश हुआ| कुछ मुठभेड़ के बाद संथाल इस क्षेत्र में बस गए| संथाल पहाड़ों पर रहते थे और जब ईस्ट इंडिया कंपनी की नाम गंगा नदी से होकर गुजरती थी, तब वे पहाड़ों से उतरकर उन्हें लूटते थे तथा डाक ले जाने वालों की हत्या कर देते थे |वे छापामार युद्ध करने में बड़े कुशल थे| वर्ष 1778 ईस्वी में क्लीवलैंड को राजमहल का पुलिस अधीक्षक नियुक्त किया गया| उसने फूट डालने की नीति अपनाई और 47 राजमहल के पहाड़िया सरदार को अपना समर्थक बना लिया और जौराह नामक व्यक्ति को इनका प्रमुख बनाया| पहाड़िया सरदारों को कई सुविधाएं दी और उनसे कर भी नहीं लिया जाता था| इस बात का विरोध संथाल समुदाय के एक वीर सरदार तिलका मांझी ने किया| उनका कहना था की नीति सबके लिए एक समान होनी चाहिए| तिलकामांझी का उर्फ नाम ‘जबरा पहाड़िया’ था| तिलका ने भागलपुर के पास वनचरीजोर नामक स्थान से अंग्रेजों का विरोध शुरू किया| वह अंग्रेजों के गोदाम और खजाने को लूटकर गरीबों में बांट देता था| वर्ष 1784 ईस्वी में अपने अनुयाई के सहयोग से तिलका ने भागलपुर पर आक्रमण किया |13 जनवरी के दिन वह तार के पेड़ पर छुप कर बैठ गया और उसी रास्ते से गुजरते हुए घोड़े पर सवार क्लीवलैंड को तीर मार कर हत्या कर दी| इसे अंग्रेजी सेना में दहशत फैल गई और अंग्रेजी सेना में आयरकुट को भेजा गया| आयरकुट ने पहाड़ियां सरदार चौराह के साथ मिलकर तिलका के अनुयायियों पर हमला बोल दिया |तिलकामांझी के अनेक अनुयाई हताहत हो गए लेकिन तिलकामांझी बचकर भाग निकले और सुल्तानगंज की पहाड़ियों में जाकर छुप गए| सन् 1785 ईस्वी में तिलकामांझी को धोखे से पकड़ लिया गया और रस्सी से बांधकर चार घोड़ों द्वारा घसीटते हुए भागलपुर लाया गया, जहां उसे बरगद के पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई| वह स्थान आज ‘बाबा तिलकामांझी चौक’ के नाम से जाना जाता है|