मौलिक अधिकार के संबंध में निम्नलिखित सिद्धांत दिए गए हैं पृथक्करणीयता का सिद्धांत ,आच्छादन का सिद्धांत ,अधित्याग का सिद्धांत, भूतलक्षी नहीं , दोहरी जोखिम का सिद्धांत
पृथक्करणीयत्ता का सिद्धांत जिसे डॉक्ट्रिन आफ सीवरेबिलिटी भी कहते हैं यदि किसी अधिनियम का कोई भाग असंवैधानिक होता है तो प्रश्न उठता है कि क्या उस पूरे अधिनियम को समाप्त कर दिया जाए या केवल उसके उसी भाग को अवैध घोषित किया जाए जो संविधान के लिए तर्कसंगत नहीं है उच्चतम न्यायालय ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए कहा कि यदि किसी अधिनियम का कुछ भाग अलग है और वह तर्कसंगत नहीं तो उसके शेष भाग से बिना विधानमंडल के आशय के अधिनियम के मूल उद्देश को समाप्त किए बिना अलग किया जा सकता है जिससे मूल अधिकारों से असंगत वाला भाग ही अवैध होगा ना कि पूरा अधिनियम अवैध होग आच्छादन का सिद्धांत जिसे डॉक्ट्रिन ऑफ़ एक्लिप्स भी कहते हैं इसका अर्थ है कि अनुच्छेद 13 के उपखंड एक पर आधारित है अनुच्छेद 13 के 1 के अनुसार संविधान पूर्व विधियां संविधान लागू होने पर उस मात्रा तक अवैध , जिस तत्व मूल अधिकारों से असंगत ऐसी विधियां प्रारंभ से ही समाप्त नहीं होती बल्कि अधिकारों के प्रवर्तित हो जाने के कारण वे मृत प्राय हो जाती हैं और उनका परिवर्तन नहीं किया जा सकता है यह केवल मूल अधिकार द्वारा आच्छादित हो जाते हैं और सुसुप्त अवस्था में रहते हैं जब जरूरत पड़ती है उस समय इस अधिकार को देखा जाएगा और जब जरूरत नहीं पड़ती है उस समय यह अधिकार सोया हुआ रहेगा
अधित्याग का सिद्धांत डॉक्ट्रिन ऑफ़ वेबर के नाम से भी जाना जाता है कोई भी व्यक्ति संविधान के द्वारा जो अधिकार दिए गए हैं उसे अपनी इच्छा से त्याग नहीं कर सकता है मूल अधिकार केवल व्यक्तिगत हित के लिए नहीं बल्कि जनसाधारण हित के लिए इसलिए अगर किसी व्यक्ति को जीने का अधिकार दिया गया है तो वह उसे अपनी इच्छा के अनुसार हटा नहीं सकता है
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मूल अधिकार की श्रेणी में अगला सिद्धांत है भूतलक्षी नहीं, जिसे अंग्रेजी में नोट रेट्रोस्पेक्टिव कहा जाता है इसके अनुसार अनुच्छेद 13 का प्रभाव भूत लक्ष्य नहीं है यानी कि संविधान पूर्व बनाए गए कानून प्रारंभिक अवस्था से ही अवैध नहीं होती, मूल अधिकार से असंगत संविधान पूर्व विधियां संविधान लागू होने के बाद ही अवैध होंगी यदि किसी व्यक्ति ने संविधान लागू होने के पहले कोई ऐसा काम किया है जो उस समय किसी विधि के अनुसार अपराध था तो वह संविधान लागू होने पर यह नहीं कर सकता उसे अपराध के लिए दंड नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि संविधान ने ऐसे दंड को हटा दिया है ,इसका अर्थ यह हुआ कि कोई भी अपराध जो किया गया है उस समय हमारा संविधान लागू नहीं हुआ था लेकिन चुकी वह दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता है तो उसे दंड दिया ही जाएगा
दोहरी जोखिम का सिद्धांत जिसे डॉक्ट्रिन ऑफ़ डबल जिओ पोर्डी कहा जाता है अनुच्छेद 20 के खंड 2 में दोहरी जोखिम का सिद्धांत दिया गया है इसमें ऐसा कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए 1 बार से अधिक दंड नहीं दिया जाएगा किसी व्यक्ति को उन कार्यवाही से उन्मुक्ति प्रदान नहीं करता जो न्यायालय के समक्ष नहीं है अतः न्यायालय द्वारा आयोजित और दोष सिद्ध सरकारी कर्मचारी को उसी अपराध के लिए विभागीय कार्यवाही के अंतर्गत भी दंडित किया जा सकता है इस प्रकार विभागीय रूप से दंडित व्यक्ति पर न्यायालय में अभियोग चलाया जा सकता है#vinayiasacademy.com