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Q. वैदिक काल का विस्तृत उल्लेख तथा उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता एवं संस्कृति का संक्षिप्त उल्लेख:—

(Vinayiasacademy.com)— वेद शब्द का अर्थ है ज्ञान! वेदों की कुल संख्या चार है ऋग्वेद,सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद इन वेदों से हमें तत्कालीक समाज एवं यहां के लोगों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है इन वेदों की रचना के आधार पर वैदिक काल को दो भागों में बांटा गया है पहला पूर्व वैदिक काल और दूसरा उत्तर वैदिक काल।सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद भारत के अनेक भागों में विभिन्न संस्कृतियों का उदय हुआ जिनमें प्रमुख रूप से आर्य सभ्यता थी मगर इस सभ्यता को जानने के पुरातात्विक स्रोत नहीं के बराबर है और साहित्यक स्रोत में वैदिक साहित्य काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। वेदों से संबंधित होने के कारण ही आर्य सभ्यता को वैदिक संस्कृति कहा जाता है।आर्यों का सबसे पहला उल्लेख बोगाज़कोई की शांति संधि में मिलता है बोगाज कोई की शांति संधि में मिलता है। बोगाज़कोई की शांति संधि हितदस के राजाओं और मितामी साम्राज्य के बीच हुई थी,जिसमें मित्र,वरुण एवं इंद्र देवताओं का आवाहन साक्षी स्वरूप किया गया था।कई जनसमुदाय संस्कृत, लैटिन, गृक इत्यादि भाषाएं बोलते थे एवं सभी भाषाएं एक दूसरे से मिलती जुलती थी भोरोपीय भाषा कहा जाता है इस भाषा को बोलने वालों को भी आर्य कहा गया है आर्यों के मूल निवास के संबंध में विद्वानों में काफी मतभेद हैं। फिलिपिनो सेसेटी आर्यों का मूल निवास स्थान यूरोप को बताया है। विलियम जोंस ने भी इन्हें यूरोप का ही बताया है इन्होंने यह निष्कर्ष भाषाई समानता के आधार पर निकाला है। डॉक्टर पी गाइल्स का मानना है कि ऋग्वेद में वर्णित भौगोलिक परिस्थितियों में समानता रखने पशु पक्षी पेड़ पौधे आदि आस्सिट्या, डेन्यूब नदी के किनारे विद्यमान थी।

ऋग्वेद और समकालीन इराकी ग्रंथ जींद अवस्था में अत्यधिक समानता होने के कारण प्रोफेसर मैक्स मूलर आर्यों का आदि निवास मध्य एशिया को बताया है मेयर और रेहृड के अनुसार,आर्यों का आदि निवास स्थान पामीर के पठार से बैक्ट्रिया किया था। डॉक्टर पी गाएल्स का मानना है की ऋग्वेद में वर्णित भौगोलिक परिस्थितियों में समानता रखने वाले पशु पक्षी पेड़ पौधे आदि आस्सिट्या डेन्यूब नदी के किनारे विद्यमान थी। वैदिक साहित्य से आर्य सभ्यता एवं संस्कृति की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है वैदिक साहित्य में चार वेद ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद वेदांग स्मृति षड्दर्शन वेद एवं महाकाव्य आते हैं ऋग्वेद पूर्व वैदिक कालीन रचना है इसकी रचना सप्त सिंधु प्रदेश में हुए उत्तर वैदिक साहित्य की रचना काल 1000 से 600 ईसवी पूर्व माना जाता है इसकी रचना कुरू पंचाल क्षेत्र को माना गया है। ऋग्वेद और समकालीन इराकी ग्रंथ जेंद अवेस्ता में अत्यधिक समानता होने के कारण प्रोफेसर मैक्स मूलर ने आर्यों का आदि निवास मध्य को बताया है मेयर और रिहर्ड के अनुसार आर्यों का आदि निवास स्थान पामीर के पठार में बैकिट्या था। आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं पशुपालन था। पशुओं में गाय को काफी महत्व दिया जाता था गाय को संपत्ति का हिस्सा एवं वस्तु विनिमय का भी साधन माना गया था गाय को “अधन्या”(नहीं मारने योग्य) कहां गया है घोड़े का प्रयोग मुख्यता औरतों में किया जाता था लोग भेड़ बकरी बैल भैंस एवं ऊंट आदि से परिचित थे ऋग्वेद में उर्वरा, धान्य (अनाज) लांगल(हल ), बैल तथा वपन्न्ति(बोना) शब्द पाया गया है इनमें आपसे संघर्ष भी पशु और चढ़ाव के लिए ही हुआ करते थे ऋग्वेद में कबीलाई युद्ध में प्रमुख युद्ध दसराज युद्ध 10 राजाओं के युद्ध का वर्णन मिलता है यह युद्ध पुरूष्णी(रावी) नदी के तट पर लड़ा गया था और इस युद्ध में सुदास की विजय हुई। ऋग्वैदिक काल की सामाजिक जीवन काफी सरल हुआ करती थी परिवार में कई पीढ़ियों के लोग साथ-साथ रहा करते थे परिवार पितृसत्तात्मक हुआ करता था समाज में वर्ण व्यवस्था थी ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में चार वर्णो का उल्लेख मिलता है जिनमें ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र हुआ करते थे ब्राह्मण को सबसे ऊपर और इसी क्रम में क्षत्रिय वैश्य और शूद्र का स्थान हुआ करता था इस काल में वर्ण भेद का आधार जन्म नहीं बल्कि कर्म था समाज में महिलाओं को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था उन्हें शिक्षा आदि प्राप्त करने की पूर्ण अनुमति थी महिलाएं अपने पसंद के पुरुष से विवाह कर सकती थी इस समय बाल विवाह सती प्रथा तथा पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था शिक्षा गुरुकुल पद्धति पर आधारित था यहां मौखिक शिक्षा प्रदान की जाती थी ये लोग ‘ जो’ एवं ‘गेहूं ‘को मुख्य भोज पदार्थ के रूप में उपयोग करते थे ,भोजन में दूध ,दही ,घी ,आदि महत्वपूर्ण भोज्य पदार्थ थे ये लोग मिठास के लिए मधु को उपयोग में लाते थे मगर कुछ लोग मांसाहार का भी प्रयोग करते थे, रिग्वैदिक समाज में प्रमुख व्यवसाई वर्ग थे यथा बढ़ाई ,जुलाहा ,चर्मकार ,कर्मकार, भीशक और हिरन्याकार, वैदिक काल में धर्म को काफी महत्वपूर्ण माना गया है ऋग्वेद में अनेक देवताओं के नाम मिलते हैं जिसमें वरुण, इंद्र, अग्नि ,यम तथा सोम को प्रमुख माना गया है ऋग्वेद काल में लोग युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए और पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ एवं ईश्वर की उपासना किया करते थे देवताओं में इंद्र को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान था ऋग्वेदिक काल के लोग बहू देव वादी एवं प्रकृति की पूजा में विश्वास रखते थे देवताओं और मानव के बीच संपर्क साधन के रूप में अग्नि को महत्वपूर्ण माना गया है इसके द्वारा देवता अपना आहार ग्रहण करते थे अदिति एवं उषा 2 देवियों की भी चर्चा मिलती है ऋग्वैदिक समाज में भूत-प्रेत ,राक्षस , पिशाच, अप्सरा आदि पर विश्वास किया जाता था पुरोहितों द्वारा यज्ञ संपन्न किया जाता था बदले में उन्हें गाय, सोना चांदी दक्षिणा स्वरूप प्रदान किया जाता था, ऋग्वेद में नरबलि के रूप में सुन शेष का उदाहरण मिलता है इसके आधार पर यज्ञ में पशु बलि की पुष्टि होती है मूर्ति पूजा का इस काल में कोई भी साक्ष्य मौजूद नहीं मिलता है मोक्ष प्राप्ति में आर्यों का विशेष विश्वास नहीं था।


उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता एवं संस्कृति उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता का आरंभ 1000 ई० पूर्व से लेकर 6000 इ० पूर्व के मध्य माना जाता है इस काल के साहित्यिक स्रोत यजुर्वेद ,सामवेद और अथर्ववेद हैं इसके अलावा ब्राह्मण ग्रंथ एवं उपनिषद् प्रमुख हैं उत्तर वैदिक काल के साहित्यिक स्रोत के अनुसार इस काल में आर्य पंजाब से चलकर गंगा और यमुना के मध्य पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैल गए थे इस काल के उत्खनन स्थलों में हस्तिनापुर ,कौशांबी एवं(Vinay’s IAS academy) अहिछात्र प्रमुख थे उत्खनन के फलस्वरूप उत्तर वैदिक काल के लगभग 700 स्थलों का पता चला है यहां सबसे पहली बस्तियां स्थापित हुई थी इन बस्तियों को चित्रित धूसर मृदभांड या पी० जी० डब्ल्यू स्थल के नाम से भी जाना जाता है भरत और पूरू नामक कबीले मिलकर उत्तर वैदिक काल में कुरू नाम से जाने जाते थे और इन्हीं के नाम पर कुरुक्षेत्र का नाम पड़ा उत्तर वैदिक काल में चित्रित धूसर मृदभांड और लोहे के साक्ष्य मौजूद मिले हैं उत्तर वैदिक काल में कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था का विकास हो गया था ग्रंथों के अनुसार आर्य लोगों का विस्तार मध्य देश से कुरुक्षेत्र तक हो चुका था शतपथ ब्राह्मण के अनुसार आर्यों का विस्तार सदानीरा या गंडक नदी हो चुका था और दक्षिणी क्षेत्र में इनका विस्तार विदर्भ तक हो गया था इसकी जानकारी हमें उत्खनन कर्ताओं के साक्ष्य के रूप में मिलते हैं उत्तर वैदिक काल में लोहे के हथियार जैसे बांणागर, बरक्षि,सिर्स,आदि प्राप्त हुए हैं इस काल में कबीलो का स्थान क्षेत्रीय राजाओं ने ले लिया था तुर्वश एवं कृवी ने मिलकर पांचाल कबीले को जन्म दिया और कुरु एवं पांचाल ने मिलकर हस्तिनापुर को अपनी राजधानी बनाई कुरु कबीलों के दो गुटों कौरवों और पांडवों में भरत युद्ध हुआ इस युद्ध में कुरू का विनाश हो गया था महाभारत नामक महाकाव्य में इसी युद्ध का विस्तृत वर्णन मौजूद है अंततः बाढ़ के कारण हस्तिनापुर भी डूब गया इसके कुछ समय उपरांत विद्वानों के अनुसार पंचालो ने अपनी राजधानी कामपिल्य को बना लिया इस राज्य में एक प्रसिद्ध दार्शनिक राजा भी हुए जिन्हें प्रवाह जावाली के नाम से जाना जाता है .

विदेह की राजधानी मिथिला के राजा जनक थे उत्तर वैदिक काल में कई क्षेत्रीय राजाओं का भी उदय हो चुका था मगर इन क्षेत्रीय राज्यों का उदय सैन्य शक्ति के आधार पर हुआ था पितृसत्तात्मक राजतंत्र का भी उदय होने लगा था इस समय राजा के अधिकारों एवं शक्तियों में भी वृद्धि होने लगी थी आपस्तम्ब श्रीतसूतृ के अनुसार सर्व भौम राजा को अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त था गोपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा की संपन्नता के आधार पर यज्ञ को विभाजित किया गया है उत्तर वैदिक काल में कर्म से अधिक वर्ण को महत्व दिया जाने लगा था ब्राह्मण एवं क्षत्रिय लोग समाज के महत्वपूर्ण लोग थे वैश्य और शूद्र निम्न वर्ग में आते थे समाज में इन्हें किसी भी तरह की सुविधा प्राप्त नहीं थी उपनयन संस्कार में केवल ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य को ही अधिकार प्राप्त था शूद्रों को अछूत माना जाता था उनके स्पर्श को भी निंदनीय माना जाता था शुद्र लोग अपना भरण-पोषण के लिए उच्च वर्गों की सेवा किया करते थे सूत्रों के अलावा बाकी तीनों जातियों के बीच अंतर विवाह संभव था आगे चलकर वर्ण व्यवस्था की जटिलता के कारण जाति व्यवस्था का जन्म हुआ इस काल में भूमि के दान और भूमि की खरीद बिक्री का भी उल्लेख मिलता है.

उत्तर वैदिक काल में पितृसत्तात्मक तत्व प्रबल हो गया था इसके फलस्वरूप पुत्रियों का जीवन अभिशाप समझा जाने लगा था ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार पुत्र परिवार का रक्षक और पुत्रियां दुख का मूल थी उच्च वर्ण में बहु विवाह का प्रचलन था कन्याओं को बेचने एवं दहेज लेने की प्रथा का भी आरंभ होने लगा था आयु को 100 वर्ष मानकर इसे चार भागों में बांटा गया था ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ ,वानप्रस्थ एवं सन्यास उत्तर वैदिक काल में चार पुरुषार्थ तत्कालीन मानव के प्रमुख लक्ष्य थे जिनमें धर्म, अर्थ, काम ,मोक्ष हैं शुदृ और स्त्रियों को छोड़कर सब का उपनयन संस्कार करना अत्यंत आवश्यक था अंतरंजीखेड़ा एवं हस्तिनापुर से इस काल में जो ,गेहूं ,चावल एवं जंगली गन्ने की खेती के साक्ष्य प्राप्त होते हैं काठकसंहीता से 24 बैलों से हल खींचने का उल्लेख प्राप्त होता है इस काल में सिंचाई एवं गोबर के खाद देने का विकास हो चुका था उत्तर वैदिक काल में चित्रित धूसर मृदभांड का विकास होने लगा था बढ़ाई चर्मकार धातु कर्म एवं सूत काटकर वस्त्र बनाने की प्रक्रिया प्रचलित थी इस काल की धार्मिक स्थिति रूढ़िवादी कर्मकांड पूर्ण एवं आडंबर युक्त बन गया था इस काल की देवियां उषा एवं आदित्य का स्थान अप्सरा एवं यक्षिणी ने ले लिया था इस काल में अवतारवाद की अवधारणा प्रबल हो गई थी उत्तर वैदिक काल में कर्मकांड एवं आडंबरो की भतरसना करने की दिशा में ही उपनिषदों का जन्म होने लगा जिन्होंने अद्वैतवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन कियाVinayiasacademy.com


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