जैन धर्म:अपने पूरे जीवन काल में इन्हें हमेशा सच बोलना पड़ता था यह लोग कभी झूठ नहीं बोल सकते थे साथ ही साथ ही ईमानदार भी होना भी अनिवार्य था।यह लोग चोरी नहीं कर सकते थे चोरी करने की इन्हें सख्त मनाही थी। संपत्ति अर्जित नहीं करने के साथ-साथ इन लोगों को ब्रम्हचर्य का पालन करना भी अनिवार्य था,जैन धर्म में कर्म को अधिक महत्व प्रदान किया गया। इनके अनुसार संसार के सभी प्राणी अपने अपने कर्मों के अनुसार कर्मफल भोंगते हैं।कर्म ही जीवन तथा मृत्यु का सार है।कर्मफल से छुटकारा पाकर मनुष्य को निर्वाण की प्राप्ति होती है । पाश्र्वनाथ महावीर स्वामी से लगभग 250 वर्ष पूर्व पैदा हुए थे उनका जन्म काशी के राजा अश्वसेन के घर पर हुआ था। इनके पिता भी उनके अनुयायी थे।इनके अनुयायियों को “निग्रंथ” कहा जाता था। पार्श्वनाथ ने सत्य, अहिंसा, अस्तेय और अपरिग्रह का संदेश दिया। मगर पार्श्वनाथ के विचारों को प्रचार करने में महत्वपूर्ण भूमिका महावीर स्वामी का रहा है जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों का क्रम कुछ इस प्रकार है- ऋषभदेव, अजीतनाथ,साम्बनाथ,सुमतिनाथ, अभिनंदन सुमति नाथ पदमप्रभु, सुपविनाथ, चंद्रप्रभु,सुविधिनाथ, शीतलनाथ,श्रेयांसनाथ, वसुपूज्य, विमलनाथ,अनंतनाथ,धर्मनाथ, शांतिनाथ,कुंन्थुनाथ,अरिनाथ, मल्लिनाथ,मुनिसुब्रतनाथ, नेमिनाथ,अरिष्ठनेमी,पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी जैन धर्म के अनुसार माना जाता है .

23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म काशी में हुआ था,अश्वसेन उनके पिता का नाम था इनकी माता का नाम वामा था,इनकी पत्नी प्रभावती थी। जो कुशस्थल की राजकुमारी हुआ करती थी,अपनी आयु के 23 वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया 83 दिनों तक कठोर तपस्या करने के बाद 94 दिन सम्भेय पर्वत पर इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई इनके प्रथम अनुयायियों में इनकी पत्नी और इनकी माता का नाम आता है इन्होंने अपने जीवन के 70 वर्षों तक धर्म का प्रचार प्रसार किया। इनके द्वारा बनाए गए संघ के नियम अनुशासित हुआ करती थी संघ की अध्यक्षता एक महिला द्वारा किया जाता था जिनका नाम पुष्पचुला था।पार्श्वनाथ के चारों देशों के आधारभूत तत्व बताया अहिंसा सत्य अस्तेय(चोरी नहीं करना)और अपरिग्रह(संपत्ति का संग्रह नहीं करना),उन्होंने समाधि के पांच तत्वों पर बल दिया था। तपस,बल,सूत्र,एकतत्व और सत्य।जैन धर्म में त्रिरत्नों पर बल दिया गया था,महावीर स्वामी के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के लिए और कर्म के बंधनों से मुक्ति पाने के लिए त्रिरत्नों का पालन करना जरूरी था, जिनमें प्रथम था- सम्यकश्रद्धा अर्थात् (यथार्थ को स्वीकार करना), दूसरा-सम्यक ज्ञान(वास्तविक ज्ञान के प्रति सजग रहना) और तीसरा था-सम्यक चरित्र अर्थात(आचरण के प्रति सजग रहना)।महावीर स्वामी ने अपना पहला उपदेश राजगृह में दिया था।जैन धर्म शाक्य धर्म से साम्यता रखता था। 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के सिद्धांतों में ब्रह्मचर्य का पालन करना,महावीर स्वामी के द्वारा जोड़ा गया था।जैन धर्म के 18 कर्मों को पाप मानकर पांच महाव्रतों के द्वारा इससे बचने की सलाह दी गई है।अधिकांश लोगों के लिए जैन धर्म का पालन करना संभव नहीं था।मुख्यता: व्यापारी वगों का इस धर्म को समर्थन प्राप्त था और किसानों के लिए इसके नियमों का पालन करना बहुत कठिन था क्योंकि किसानों को अपने खेतों के कीड़े-मकोड़ों से बचाने के लिए किस भाषा का प्रयोग करना पड़ता है और जैन धर्म में किसी भी जीव की हत्या करना पाप था।

जैन दर्शन के ज्ञान प्राप्ति के तीन मार्ग है प्रत्यक्ष, अनुमान और तीर्थकारों के द्वारा। जैन धर्म के अनुसार संसार दुखमय है,मनुष्य दुखों से घिरा हुआ है भय से दुखों में वृद्धि होती है और संसार के माया जाल से मुक्ति पाने के लिए त्याग और सन्यास को अपनाना जरूरी है इनका मानना है कि आत्मा और प्रकृति दो तत्व है इसी से मनुष्य का व्यक्तित्व निर्मित होता है और इन दो तत्वों में प्रकृति नश्वर है तथा आत्मा विकासशील है।जैन धर्म के अनुसार कर्मों के आधार पर सभी सांसारिक प्राणियों को फल प्राप्त होता है जैन धर्म के अनुसार कठोर तप एवं आत्मबल की प्राप्ति के लिए “काया क्लेश” अत्यंत जरूरी है। काया क्लेश में उपवास के द्वारा आत्महत्या करनी पड़ती थी जिसे जैन धर्म में सल्लेखन कहा जाता है।जैन धर्म में आचरण के नियम अत्यंत कठोर हुआ करते थे उन्हें अपने दैनिक दिनचर्या में एक निश्चित निर्देशों का पालन करना पड़ता था जो अति आवश्यक माना गया है जैन धर्म के अनुसार संसार 6 द्रव्यों का समूह है।महावीर स्वामी की मृत्यु के उपरांत जैन धर्म चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में समय दो संप्रदायों में विभाजित हो गया था जिन्हें श्वेतांबर और दूसरे को दिगंबर के नाम से जाना जाता था। श्वेतांबर अवधारणा को मानने वाले इसके अनुयाई सफेद वस्त्र धारण किया करते थे तथा दिगंबर मतों के अनुयायी बिल्कुल नग्न रहा करते थे।श्वेतांबर मत के अनुयायियों का नेतृत्व स्थूलभद्र ने किया तथा दिगंबर संप्रदायों का नेतृत्व भद्रबाहु ने किया था बाद में श्वेतांबर संप्रदाय का विभाजन और तीन उपसंप्रदायों में हो गया जिन्हें पूजेरा ढूंढिया और तेरापंथी कहा जाने लगा तेरापंथी संप्रदाय की स्थापना महाराजा भिक्खल के द्वारा किया गया था।श्वेतांबर संप्रदायों के अलावा दिगंबर संप्रदाय में भी मतभेद होने प्रारंभ हो गए थे इसके फलस्वरूप इनमें भी तीन उपसंप्रदायों का विभाजन हो गया था जिन्हें बीस पंथी, तेरापंथी और समैयापंथी के नाम से जाना जाने लगा।vinayiasacademy.com

स्वामी तरणतारण ने समैया पंथी संप्रदाय की स्थापना की थी। मगर दोनों संप्रदायों की मूलभूत अंतर बस इतना ही था कि दिगंबर संप्रदाय नग्न रहा करते थे अपने नियमों को बहुत कठोरता से पालन करते थे और इसके विपरीत श्वेतांबर संप्रदायों को मानने वाले लोग श्वेत वस्त्र धारण किया करते थे और अपने नियमों का पालन सरलता से किया करते थे।जैन ग्रंथों में यह दो परिषदों का उल्लेख प्राप्त होता है प्रथम जैन परिषद तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व से स्थूलभद्र के द्वारा पाटलिपुत्र में किया गया इसमें जैन धर्मों के सिद्धांतों को निश्चित किया गया था इस परिषद में केवल श्वेतांबर संप्रदाय के लोगों को शामिल किया गया और द्वितीय संगीति देवाधिगण नाम के एक जैन साधु की अध्यक्षता में कराई गई जो पांचवी शताब्दी में वल्लभी में संपन्न हुआ था इसमें 84 आगमों की संख्या तक की गई और साथ ही साथ अर्दृमागधी भाषा में 12 उपांगों को सम्मिलित किया गया।महावीर स्वामी के जीवन काल में जैन धर्म का विकास कई महाजनपदों से हो गया था उड़ीसा के उधम गिरी पहाड़ी पर अनेक जैन गुफाएं मिली है खजुराहो सौराष्ट्र और राजस्थान में भव्य जैन मंदिर बनाए गए थे माना जाता है कि महावीर स्वामी के समय में इनके अनुयायियों की संख्या 14000 हो गई थी।57 फीट ऊंची गोमतेश्वर की प्रतिमा इसके भव्य निर्माणों में एक थी। अशोक के पौत्र संपत्ति ने आर्यसुहस्त्री से जैन धर्म की दीक्षा प्राप्त कर जैन धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष ने जैन धर्म की दीक्षा जैन गुरु जिनसेन ग्रहण किया था।जैन धर्म के प्रचारक भाषा प्राकृत थी जो संस्कृत की अपेक्षा तत्कालिक आज जनता की भाषा थी और यही वजह थी कि जिसके कारण इस धर्म की लोकप्रियता होने लगी इस धर्म का स्वरूप व्यावहारिक होने की वजह से भी इसकी लोकप्रियता जन समुदाय से होने लगा था इसके अलावे भी जैन धर्म के कई ऐसे भी नियम थे जो सरल हुआ करती थी और इन्हीं कारणों से जैन धर्म के लोकप्रियता में काफी वृद्धि हुई जैन धर्म के जाति व्यवस्था विद्यमान थी और इस वजह से इस धर्म के विकास में बाधा होने लगी।अध्रमगधी भाषा, प्राकृतिक भाषा एवं अपभ्रंश भाषा का विकास जैन धर्म के द्वारा हुआ अन्य धर्मों की अपेक्षा जैन धर्म अत्याधिक प्रबंल में नहीं था फिर भी कर्मकांड और सामाजिक दोषों को दूर करने में इसकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही। भागवत संप्रदाय:–छठी शताब्दी ई०पूर्व०जैन और बौद्ध धर्म के अलावा अन्य कट्टरपंथी संप्रदायों का उदय होने लगा जिनसे भागवत एवं शिव संप्रदाय प्रमुख से ब्राह्मण धर्म को आडंबरों से दूर रखने के लिए उपनिषदों का विकास हुआ।भागवत संप्रदाय में विष्णु भगवान का स्थान सर्वोच्च माना गया है।इनकी द्वारा ईश्वर को भक्ति मार्ग से प्राप्त किया जा सकता था।इस संप्रदाय के प्रवर्तक वासुदेव को माना जाता है और इनके प्रमुख केंद्र मथुरा था भागवत धर्म का प्रमुख ग्रंथ भागवत पुराण का और उनके मूल तत्व के रूप में श्रीमद्भागवत गीता को प्रमुख माना गया है। बाद में भागवत संप्रदाय ही वैष्णव धर्म में परिवर्तित हो गया।vinayiasacademy.com

श्रीमद्भागवत पुराण के लेखक केशव दास जी को माना जाता है श्रीमद् भागवत पुराण के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए तीन मार्ग के ज्ञान मार्ग भक्ति मार्ग और कर्म मार्ग इस पुराण में 10स्कधं है जिसमें कृष्ण की लीला अवतार और उन पर आधारित कथाओं का वर्णन किया गया है देवी भागवत के रूप में इस संप्रदाय का दूसरा ग्रहण दुर्गा सप्तशती है। इसमें दुर्गा की महिमा और इनके अवतारों का वर्णन किया गया है देवकी पुत्र के रूप में सर्वप्रथम श्री कृष्णा का उल्लेख छांदोग्य उपनिषद से प्राप्त होता है महाभारत के नारायण उपाख्यान से भागवत धर्म का प्रारंभ माना जाता है भागवत धर्म का सबसे पहले उल्लेख महाभारत में हुआ था।ऋग्वेद में विष्णु का सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है। शतपथ ब्राह्मण ने विष्णु को सर्वश्रेष्ठ देवता माना गया है पणिनीं के काल में कृष्ण का प्रारंभिक नाम वासुदेव था इस धर्म के मानने वाले पुरुषों को भगवतम और स्त्रियों को भागवती कहा जाता था,पांचरात्र संहितामैं वासुदेव की स्वरूप एवं इसकी आराधना के प्रकारों का वर्णन किया गया है दक्षिण भारत के ब्राह्मण वैष्णव अवतार कहे जाते थे यह लोग भक्ति गीत और भजन के माध्यम से धर्म का प्रचार करते थे वैष्णव आचार्यों में रामानुज का नाम सर्वोपरि था। गुप्त नरेश स्कंद गुप्त, कुमारगुप्त एवं चंद्रगुप्त २ भागवत धर्म के विकास में काफी योगदान दीया था इन्होंने परम भागवत की उपाधि धारण किया था। झांसी के देवगढ़ का दशावतार मंदिर को वैष्णो धर्म का महत्व पूर्ण स्मारक माना जाता है भागवत एवं वैष्णव धर्म इन दोनों धर्मों का मौलिक समानता अवतारवादी थी।श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार भक्तों की रक्षा के लिए दुष्टों का नाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए श्री कृष्ण युग युग में अवतरित होंगे श्रीमद् भागवत गीता के अनुयायियों को चार भागों में विभाजित किया गया है-आर्त,जीज्ञासु,अथाथीं एवं ज्ञानी था। निंबार्क समुदाय, बल्लभ समुदाय, रामानंद संप्रदाय, चैतन्य संप्रदाय, गौडीय संप्रदाय एवं माधवाचार्य संप्रदाय भागवत धर्म के यह छह मौलिक संप्रदाय में से थे। छुआछूत जातियता और अस्पृश्यता का उन्मूलन भागवत संप्रदाय से ही होना प्रारंभ हुआ।भागवत धर्म से अपनी भक्ति और अपनी भूमि पर जोर दिया गया था इससे राष्ट्रीयता को बल मिला। vinayiasacademy.com

ब्राह्मण संप्रदाय:-ब्राह्मण संप्रदाय का उत्तर वैदिक काल में अंतिम समय में हुआ था और वैदिक धर्म को ही इस संप्रदाय का मूल माना गया है इस संप्रदाय का नामकरण ब्राह्मण संप्रदाय इसलिए पड़ा क्योंकि प्राचीन काल से ही धार्मिक व्यवस्थाओं पर ब्राह्मणों का ही अधिकार रहा है इसी वजह से इस संप्रदाय का नाम पड़ा।ब्राह्मण संप्रदाय में मौलिक तत्व के रूप में आश्रम व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था को अंगीकृत किया गया है यह संप्रदाय मुख्यतः तीन भागों में विभक्त था-वैष्णव संप्रदाय संप्रदाय एवं शैव संप्रदाय एवं शाक्य संप्रदाय। शैव संप्रदाय में व्यक्ति शिव की पूजा किया करते थे वैदिक देवताओं ने इन्हें रूद्र के नाम से भी जाना जाता है ऋग्वेद में भी इन्हें रूद्र नाम से जाना जाता था ब्राह्मण ग्रंथों में रुद्र की गणना सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में माना गया है। आगे चलकर उत्तर वैदिक काल में रूद्र शिव से महादेव बने। शिव को सृष्टि कर्ता और संहारक माना गया है वार्जसनेय संहिता में रूद्र को सारे संसार का देवता माना गया है। पशुपत महेश्वर नामक संप्रदाय की स्थापना लकुलिश ने किया था। और यही आगे चलकर शिव संप्रदाय के रूप में उभरा, संप्रदाय के अनुसार करता शिव कारण शक्ति और उत्पादन बिंदु है शिव संप्रदाय में चार पाद है। विद्या,योग,कृया और चर्या इसमें तीन पदार्थों को स्वीकार किया जाता है।पति,पशु और पाश वामन पुराण के अनुसार इसे 4 संप्रदायों में विभक्त किया गया है। पाशुपत,कपालिक,कालामुख और शिव।शिव धर्म का सबसे प्राचीनतम पाशुपत संप्रदाय था। इसके संप्रदाय लकुलिश को इनका अंतिम अवतार के रूप में माना जाता है।पंचाध्यायी नामक ग्रंथ की रचना लकुलिश ने हीं किया था।पाशुपत संप्रदाय में शिव के सौम्य रूप कीउपासना की जाती थी।चीनी यात्री हेनसांग के अनुसार हर्षवर्धन के समकालीन अहीछत्र एवं सिंह की प्रजा पाशुपत संप्रदाय के अनुयाई हुआ करते ।कपाली संप्रदाय के लोग शिव की पूजा भैरव के रूप में पढ़ते थे उनके अनुसार भैरव को शिव का ही अवतार माना गया था इस संप्रदाय के लोग भैरव को नर मुंडो की माला पहनाते थे यह लोग सुरापान करते थे, और अपने शरीर पर भस्म पहले लगाते थे भैरव की पूजा मघंं से की जाती थी।कालामुंख संप्रदायों के नियम अधिकांशत कापालिक संप्रदाय से मेल खाते थे ये लोग भयंकर प्रवृत्ति के लोग थे। शिव पुराण में इन संप्रदायों के लिए के लिए महाव्रतघर शब्द का उल्लेख किया गया है। शिव संप्रदाय में कई अन्य संप्रदाय के रूप में इसे भी कहा जाता है जैसे लिंगायत संप्रदाय, कश्मीरी शैव संप्रदाय और नाथ संप्रदाय इत्यादि।इसमें शिव के लिंग की पूजा की जाती है। लिंगायत संप्रदाय भी शिव संप्रदाय का ही एक रूप है। इसे वीरशैव संप्रदाय भी कहा जाता हैइस संप्रदाय में शिव के लिंग रूप की पूजा की जाती है इसे मानने वाले शिवलिंग को चांदी का बनवा कर अपने गले में धारण किया करते थे। अल्लप्रभु एवं उनके शिष्य वसा कोरिया संप्रदाय का प्रवर्तक माना गया है। नाथ संप्रदाय के लोगों को हठयोगी या सहजयान सिद्धि के नाम से जाना जाता है। मक्षेंनाथ को नाथ संप्रदाय के संस्थापक माना गया है। इन्होंने योगिनी कांल नामक सिद्धांत की स्थापना की। इनके मान्यता के अनुसार शिव आदिनाथ है एवं ९ (9) दिव्यपुरुष, मक्षेंद्रनाथ के नाथ संप्रदाय की साधना ब्रजयान बौद्ध संप्रदाय से काफी मिलती जुलती है और इसी कारणवश मछिंद्रनाथ के अवलोकितेश्वरा के अवतार के रूप में माना गया है मक्षेंद्रनाथ को तिब्बत में शिवलिव्यी पाद के नाम से जाना जाता था। vinayiasacademy.com

नाथ संप्रदाय के पास शक्तियां थी निज्जा,पर्रा,अपर्रा,सुक्षमा और कुंडली इन पांचों के अलावा नाथ संप्रदाय में शिव के 5 रूपों का उल्लेख है-अपर्रा,पराम,शून्य, निरंजन और परमात्मा।गोरखनाथ शिव के इन 5 रूपों को स्वीकार करते थे। कुंडलिनी जागृति का सिद्धांत नाथ संप्रदाय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है शक्ति धर्म की उपासना करने वालों को शक्ति कहा जाता था इनकी सिद्धांत धर्म के अंतर्गत आते हैं ऋग्वेद के अनुसार दशम मंडल का पूरा सूक्त देवी की उपासना पर आधारित है। मार्कंडेय पुराण के अनुसार, शक्ति के तीन रूप है लक्ष्मी काली और सरस्वती। इन तीनों को शक्ति का स्वरूप माना गया है अर्धनारीश्वर शिव और शक्ति का दोनों का समन्वय का स्वरूप है। देवी का उल्लेख सर्वप्रथम अंबिका के रूप वाजनीय संहिता में हुआ है। आम जनता संगीता सौम्य रूप में की शक्ति की उपासना करते थे एवं घोर पंथी इनकी उग्र रूप की उपासना करते थे। मार्कंडेय पुराण में लिखी दुर्गा सप्तशती दुर्गा की उपासना से संबंधित जिनका नवरात्रि उपासना किया जाता है इन्हीं देवी भागवत भी कहा गया है।सौंदर्य लहरी में शंकराचार्य में काम प्रधान उपासना के लिए शक्ति के अलौकिक सौंदर्य का अवलोकन किया है। शाक्त दर्शन में 4 शक्ति तत्वों की प्रधानता है।मूल बिंदु, नाद बिंदु, स्वेत बिंदु और रक्त बिंदु गणेश की उपासना करने वालों की गणपतए समुदाय के नाम से जाना जाता है।पौराणिक समुदाय के अनुसार अंबिका गणेश की माता और शिव इनके पिता थे उनके अनुयायियों का मानना था कि उनकी उपासना करने से व्यक्ति की बाधाओं से मुक्ति हो जाती है बौद्ध धर्म के प्रारंभिक के चरण में बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा आलोचक संप्रदाय में आजीविका संप्रदाय था इस संप्रदाय की स्थापना मखाली का गौषाल ने की। संप्रदाय ब्राह्मण समुदाय की अवधारणा का कट्टर विरोधी था। अजीविक संप्रदाय के अनुयायियों के एवं जाति प्रथा का अस्तित्व नहीं था जिसके फलस्वरूप आजीवक संप्रदाय में सभी धर्म और जाति छुआछूत एवं निचले तबके में लोकप्रियता हासिल करता चला गया भौतिकवादी संप्रदाय एक मात्र उदारवादी संप्रदाय हैं जो अध्यात्म में किसी भी तरह का कोई भी संबंध नहीं रखता इनके अनुसार भूत ही चरम सकता है जिससे चैतन्य का भवविरहभाव होता है। भौतिकवादी संप्रदाय में देवताओं की गुरु बृहस्पति थे लोकायत चारवाक का पर्यायवाची शब्द है इसका “अर्थ साधारण व्यक्ति है”।भौतिकवादी संप्रदाय नास्तिक शिरोमणि के नाम से जाना जाता है इस संप्रदाय के सबसे महत्वपूर्ण उक्कित-प्रत्यक्ष मेव प्रमाणम। निष्कर्ष:-अतः निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा में लगातार नए-नए धर्मों का उदय होता है रहा है मगर सभी की सिद्धांतों में कुछ मतभेद और कुछ समानताएं भी थी।(Vinay’s IAS academy)