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सिंधु घाटी सभ्यता नष्ट नहीं हुई है बल्कि आज भी किसी ना किसी रूप में हमारे साथ है कैसे# सिंधु घाटी सभ्यता के नगर विकास सड़क व्यवस्था एवं सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्था पर प्रकाश डालें# सिंधु सभ्यता के पतन के क्या कारण थे? सिंधु कालीन सभ्यता के निम्नलिखित स्रोत से पता चलता है कि यह सविता उन्नत किस्म की थी तथा वह किन चीजों को अपनाया गया था उसे आज भी अपनाया गया है। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से शहर की योजना नाली व्यवस्था वृहत स्नानागार असेंबली हॉल एवं जन कल्याण की पब्लिक बिल्डिंग का संकेत मिलता है जो आज भी अपनाया गया है वृहत स्नानागार में अलग-अलग गैलरी होता था और कमरे बने होते थे जिसमें केंद्र की ओर खुला रास्ता होता था इससे पता चलता है कि उस काल में धार्मिक अनुष्ठान के लिए ऐसा किया जाता होगा। यह सभ्यता सभ्यता शहरीकरण वाली सभ्यता की नगरी की तिथि जिसे आज भी अपनाया जाता है हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो से जो cytadal मिला है ये शासन करने वाले वर्ग की थी, आज जो मुहर और स्तंभ के कला का विकास हुआ है यह सिंधु घाटी सभ्यता में ही था लगभग 2,000 मुहर की प्राप्ति हुई है जिससे वहां के भौतिक आकृतियों का ड्रेस आभूषण धर्म विश्वास लोगों की सोच का पता चलता है, काशी की नाचती हुई मूर्ति बताती है की नृत्य और संगीत उसी काल से आज हमारे बीच है उसी प्रकार से आज भी आभूषण को श्रृंगार जिस प्रकार से किया जाता है बालों को बनाने की कला भी उसी काल से आई है। लोथल से पानी जहाज को खड़ा करने का पके हुए थे कि जो डॉकयार्ड मिली है यह उस समय की पपीते की सबसे बड़ी आकृति है आज भी इस व्यवस्था को चलाया जा रहा है। सिंधु घाटी सभ्यता में लेखन शैली का विकास तो हो गया था जैसा कि मैं सपोटरा मियां में हुआ था लेकिन अभी तक इसे पढ़ा नहीं जा सका है इस काल में एक लिपि भी होती थी जिसे वह फेरे डॉन कहते हैं आगे चलकर यही लिपि ब्रह्मी खरोष्ठी और आराम आई के नाम से जानी गई। विपिन शहर में शहर से दूर एक मुख्य मार्ग पता चला है जो आज की हाईवे वाली व्यवस्था लगती है इसी प्रकार से मुख्य सड़क और शाखा सड़क का कॉन्सेप्ट भी इसी सप्ताह से लाया गया है। विभिन्न शहरों में तैरने के लिए तालाब भी मिला है जो आज के वर्तमान स्विमिंग पूल को दर्शाता है। अलग अलग शहर में जिस प्रकार से अंगार को रखा गया था आज का फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया भी इसी चीज का एक उदाहरण है। आधुनिक धोती की संकल्पना एवं कंधे पर शॉल लेकर चलना सिंधु घाटी सप्ताह से ही लाया गया है। गेहूं चावल कपास की खेती की कला का विकास भी उसी समय हुआ जिसे आज भी अपना कर रखा गया है। दशमलव पद्धति एवं बकरे का ज्ञान जो आज आधुनिक युग में अपनाया गया है इसी काल की देन है। बर्तनों को अलग-अलग आकार देना, प्रकृति की पूजा करना पीपल नीम की पूजा करना भगवान सूर्य की पूजा करना नाग सांप की पूजा पृथ्वी की पूजा पशुपति शिवलिंग की पूजा जानवरों की पूजा इसी कारण से शुरू हुई जो आज भी हमारे समाज में प्रचलित है। जिस प्रकार से सिंधु घाटी सभ्यता में पुरोहित एवं व्यापारी वर्ग को अधिक अधिकार प्राप्त था आज भी समाज में यह देखने को मिलता है। माधुरी देवी की पूजा जिसे आज किया जाता है इसी काल में विकसित हुआ। तांबा लोहा टीना शीशा का आयात निर्यात उसी काल में शुरू हो गया था वह आज भी जारी है।# सिंधु घाटी सभ्यता की सबसे पहली जानकारी 18 सो 53 ईस्वी में रेलवे लाइन की खुदाई के समय हो गई थी लेकिन वास्तविक रूप से 1921 ईस्वी में दयाराम साहनी ने हड़प्पा एवं 1922 में राखल दास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो की खोज की। इस सभ्यता का नाम भारतीय पुरातत्व वित्त विभाग के डायरेक्टर जनरल सर जॉन मार्शल ने रखा। इस सभ्यता का विस्तार सबसे उत्तर में जम्मू कश्मीर के मांडा स्वात नदी तक सबसे दक्षिण में महाराष्ट्र का दायमा बाद प्रवर नदी तक सबसे पूरब में उत्तर प्रदेश का आलमगीरपुर सिंध नदी तक और सबसे पश्चिम में sutkagendor जो दास्त नदी पाकिस्तान में स्थित है। इसके अलावा मोहनजोदड़ो सिंधु नदी, हड़प्पा रावी नदी, रोपड़ सतलज नदी ,कालीबंगा घघर नदी ,लोथल भुगवा नदी, चन्हूदरो सिंधु नदी, कोट दीजी सिंधु नदी, रंगपुर महावर नदी, बालाकोट अरब सागर, सटका कोह अरब सागर प्रमुख स्थल है। ए सविता 12 लाख 99600 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ था। गुजरात में यह सभ्यता रंगपुर लोथल रोजदी सुरकोटड़ा मालवण भगतराव ,उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर एवं कौशांबी, राजस्थान में कालीबंगा ,हरियाणा में बनवाली एवं मीठाथल, पंजाब में रोपड़, वाड़ा, संगढोल, सिंध में कोट दीजी अलीमुरीद चान्हुदारो मोहनजोदड़ो बलूचिस्तान में sutkagendor,sutkakoh,dabarkot.# इस सभ्यता के प्रमुख शहर 1921 में हड़प्पा दयाराम साहनी द्वारा ,1922 में मोहनजोदड़ो राखल दास बनर्जी द्वारा ,1927 में sutkagendor इस स्टीम द्वारा, 1931 में chanudaro मजूमदार द्वारा ,1931 में रंगपुर बृजवासी लाल द्वारा, 1953 में रोपड़ यज्ञ दत्त शर्मा द्वारा ,1953 में कोट दीजी फजल अहमद द्वारा, 1953 में कालीबंगा एक घोष द्वारा 1954 में लोथल रंगनाथ राव 1958 में आलमगीरपुर यज्ञ दत्त शर्मा 1972 में सुरकोटड़ा जगपति जोशी 1973 में बनवाली rs bist, 1990 में धोलावीरा आर एस बिष्ट।


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