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झारखंड में बसने वाले स्थानीय आर्य भाषी लोगों को सदान कहा जाता है किंतु सभी गैर जनजाति सदन नहीं है सदान झारखंड की मूल गैर जनजाति लोग हैं
भाषा: खोरठा पंचपरागनिया और कुरमाली भाषा को अपनी मातृभाषा के रूप में बोलते हैं ।
धार्मिक दृष्टिकोण से हिंदू ही प्राचीन सदान है धर्म वालियों की मातृभाषा जैन उर्दू अरबी फारसी नहीं होती है
सदान आर्य द्रविड़ तथा आग्नेंय कुल तीनों वर्गों से संबोधित होते हैं
जातियां और जातीय समूह: उत्तर भारत के एक जातीय समूह निषध से या शब्द निकलता है
विभिन्न सदान जाति में मूल रूप से नागवंशी , रौतिया,अहीर,तेली, भोगता, घासी,झोरा,चेरो,चिक, बड़ाइक,कुडमी,महतो, कुम्हार,लोहरा,भुईया,धोबी(बाघवार),अली शामिल हैं वैसी जातियां जो देश के अन्य हिस्सों में तथा झारखंड में भी पाई जाती हैं सदान जातियां ऐसी है जिनके गोत्र से पता चलता है कि इनका मूल स्थान यहां ना होकर कहीं बाहर है

जो जातियां केवल छोटा नागपुर में पाई जाती है बड़ाइक, दशावली,पाइक, धनु रौतिया,गोडाइत, घासी, भुईयां,पान, प्रमाणिक, तांतिक, स्वासी,ओष्टा-रकसैल,बिद, लौंडिया, आदि। सरदार और आदिवासी प्राचीन काल झारखंड में रहते आ रहे हैं दोनों यहां की मूल निवासी है इनकी सांस्कृतिक सांझा एवं मिलजुल कर रहने की है इसीलिए कहीं – कहीं सदनों में आर्यपन के साथ आदिवासीपन की झलक दिखाई पड़ती है कुछ सदन जैन धर्म से प्रभावित है यह सूर्यास्त के पश्चात भोजन नहीं करते हैं यह लोग सूर्य तथा मां मनसा के उपासक हैं। कुछ सदान वैष्णव परंपरा से तो कुछ सदान कबीरपंथी परंपरा से संबंधित है वहीं कुछ इस्लाम धर्म को भी मानने वाले हैं।हिंदू सदन में देवी देवताओं की पूजा अर्चना की धार्मिक परंपरा है इसके अलावा प्रत्येक सदन कुल को देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करता है।हिंदू-मुस्लिम जैन वैष्णव कबीरपंथ जैसे विविध धर्म वालियों के कारण एक और गुरु पुरोहित की परंपरा है तो दूसरी और मुल्लाह मौलवियों की प्रथा भी है।सरदारों की धार्मिक परंपरा में कहीं पुरोहित और कर्मकांड दिखाई देता है तो किसी अन्य क्षेत्र में सदनों में कर्मकांड के लक्षण बिल्कुल दिखाई नहीं देते। सदनों के शारीरिक गठन में आर्य,दविड और आट्रिक तीनों के लक्षण दिखाई देते हैं सदनों में गोरा काला और साबला तीनों रंग दिखाई देता है इनका कद लंबा नाटक और मध्यम तीनों प्रकार का हो सकता है।
सदनों के पारंपरिक वस्त्र : धोती कुर्ता गमछा और चादर आदि प्रचलित है किंतु आजकल उपरोक्त वस्त्रों के अलावा पैंट शर्ट सलवार पजामा कुर्ता साड़ी आदि वस्त्र भी धारण करते हैं
सामान्य तौर पर बंगाल और बिहार में प्रचलित आभूषण यहां के सदनों के मध्य भी प्रचलित है आदिवासी यहां के सदनों के मध्यम भी प्रचलित हैं आदिवासी समुदाय द्वारा धारण किए जाने वाले कुछ आभूषण सदनों द्वारा भी प्रयुक्त किया जाता है महिलाओं में पोला शाकाहार बिछिया पईरी,मसली,बिक्री,नथिया,करनफूल, मांगटीका पटवासी आभूषण है।
वर्तमान में शहर से लेकर गांव तक सभी सदनों के घर में स्टील प्लास्टिक एलुमिनियम के बर्तन का प्रयोग होता है ग्रामीण क्षेत्र में कुछ सदनों और आदिवासी अभी भी मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते हैं हंडिया,गगरी,चुका,डंकनी, आदि नजर आते हैं पीतल तांबा आदि के बर्तन रखना सदनों मैं समृद्धि का घोतक माना जाता है शादी के मौके पर खाने के लिए डूंगा पत्तल का उपयोग होता है शिकार हेतु आदिवासी द्वारा प्रयुक्त औजार के प्रकारों का ही उपयोग किया जाता है मछली पकड़ने के लिए जाल कुमनी,बसीडग,पोलई, आदि का प्रयोग होता है साथ ही तीर धनुष और तलवार वाला गुलेल आदि प्रकार के औजार इनके द्वारा घरों में रखे जाते हैं
सांस्कृति: झुंमइर सदनों का लोक नृत्य है। आगरा गांव के मैदान में जहां लोग मृत करते हैं कर्मा जतिया सदनों का महत्वपूर्ण त्यौहार है टुसू परब,सोहराय, सरहुल, करमा,सहरई,फगुआ,आदि मुख्य पर्व है महिलाएं घर आंगन में डोमकच झूमटा झूमर आदि सामूहिक नृत्य करती हैं सदनों में गीतों के कई प्रकार होते हैं जिसमें डमकच, झूमता, सोहर, जनानी झूमर, मरदानी झूमर ,फगुआ, पावस, उदासी तथा सोहराय आदि शामिल है
सदनों में पिता के बड़े भाई को बड़का बाप तथा छोटे भाई को काका कहते हैं पिता के पिता को आजा तथा पिता की मां को आजी कहते हैं।
इतिहास: छोटा नागपुर पठार क्षेत्र नवपाषाण से बसा हुआ था। इस क्षेत्र में कई पत्थर के उपकरणों की खोज हुई है। जो के मध्यपाषाण और नवपाषाण योग के हैं। नवपाषाण काल के दौरान दक्षिण एशिया में कृषि शुरू हुई लहरादेव,झूंसी, मेहरगढ़,भिरड़ाना, राखीगढ़ी, और चिरांद, जैसी जगह में कई नवपाषाण काल बस्तियां भी है सिंहभूम जिले से कई लोहे के औजार ,मिट्टी के बर्तन के अवशेष की खोज की गई। कार्बभ डेटिंग के अनुसार 1400 ईसा पूर्व से है। मौर्य काल में या क्षेत्र कई राजाओं द्वारा शासक था जिन्हें सामूहिक रूप से अटाविका (वन) राज्यों के रूप में जाना जाता था अशोक के शासनकाल के दौरान मौर्य साम्राज्य की आधीपद स्वीकार कर ली थी (1232 bc)
सरदारों एवं आदिवासियों के मध्य मिलजुल कर रहने की संस्कृति है आदिवासियों द्वारा मनाए जाने वाले अधिकांश त्यौहार सदनों द्वारा भी मनाए जाते हैं होली दिवाली दशहरा ईद बकरीद के अलावा जितीया, मोहराय, सरहुल करमा, टुसू पर्व, तीज आदि भी मनाए जाते हैं। नागपुर भाषा घर में बसने वाले को बंद परेवा, और धर्म में नहीं रहने वाले को जंगली कबूतर या बनया कबूतर कहते हैं।
आदिवासी घुमंतू स्वभाव के होते हैं जबकि सदान अपना समुदाई स्थान बनाते हैं।


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