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सम्राट अशोक (273 से 232 ई पू):-सम्राट अशोक का वास्तविक नाम अशोक था इन्होंने अपनी उपाधि महान घोषित की थी ।सम्राट अशोक की विशेषताओं में सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्यवादी युग में युद्ध नीति का परित्याग कर प्रजा को संतान के रूप में मानने वाला वह पहला विश्व सम्राट था। दीप वंश, दिव्यावदान, महा वंश, एवं महाबोधि वंश इन साहित्यिक स्रोतों से हमें सम्राट अशोक की जानकारी उपलब्ध होती है। इनके ऐतिहासिक स्रोत में मास्की अभिलेख और जूनागढ़ अभिलेख महत्वपूर्ण है। यह माना जाता है कि भगवान बुद्ध ने सम्राट अशोक के जन्म से बहुत पहले ही उनके बारे में भविष्यवाणी कर दी थी और उनका कहना था कि पाटलिपुत्र में एक ऐसा राजा होगा जो चार में से एक महादेव प्रशासन करेगा और जंबूद्वीप में मेरे प्रवचनों को प्रचारित करेगा।पूरी दुनिया में मेरे विचारों का प्रचार-प्रसार करेगा सम्राट अशोक ने ऐसा ही किया जैसा भगवान बुद्ध ने कहा था।इनके पिता का नाम बिंदुसार था तथा माता धम्मा थी जो (चंपा के ब्राह्मण की पुत्री थी)। सम्राट अशोक का जन्म 304 ईसापुर पाटलिपुत्र में हुआ था जो कि आज के पटना शहर के नाम से जाना जाता है।

माना जाता है कि बिंदुसार की 16 पटरानी या और 101 पुत्र थे पुत्रों में केवल तीन के नाम ही उल्लेखनीय हैं सुशीम। जो सबसे बड़ा था अशोक और तिष्य।कहा जाता है कि उन्हें इतना बल था कि वह एक लकड़ी के छड़ से ही एक सिंह को मार डालने की क्षमता रखता था। अशोक को उनके प्रारंभिक समय में एक निडर परंतु बहुत ही बेरहम राजा माना जाता है, 286 ईसापुर में उनको अवंती प्रांत के वायसराय नियुक्त किया गया उज्जैन विद्रोह को दबाने के बाद। पिता बिंदुसार ने अशोक को तक्षशिला का भी वायसराय बना दिया था। सम्राट अशोक को भारत के इतिहास के साथ-साथ दुनिया भर में 2 वजहों से जाना जाता है पहला कलिंग युद्ध और दूसरा भारत और दुनिया में बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए272 ईसा पूर्व में अशोक के पिता बिंदुसार की मृत्यु के उपरांत 2 वर्षों तक अशोक और उसके सौतेले भाइयों के बीच घमासान युद्ध चला बौद्ध ग्रंथ डीपवंश और महा वंश के अनुसार अशोक ने सिंहासन पर कब्जा करने के लिए अपने 99 भाइयों को मार गिराया।अपने शासनकाल के दौरान वह अपने साम्राज्य को भारत के सभी 1 महाद्वीपों तक बढ़ाने के लिए लगातार 8 वर्षों तक युद्ध करता चला गया। कलिंग पर खूनी जंग में दोनों पक्षों के एक लाख सैनिकों की मृत्यु के उपरांत इतनी बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु से सम्राट अशोक त्रस्त होकर कसम खा ली कि वह जीवन में और कभी युद्ध नहीं करेगा। इसके उपरांत ही उन्होंने अपनी नीति में बदलाव लाया और उन्होंने अपने राज्य की बेहतरी के लिए प्रयास किए तथा बौद्ध धर्म को अपनाकर इस धर्म के प्रचार प्रसार में अपना समय व्यतीत करने लगे।

सम्राट अशोक का शासनकाल ३७ वर्षों का था। जैसा कि हम जानते हैं कलिंग युद्ध से पूर्व सम्राट अशोक दोस्त एवं क्रूर हुआ करता था अतः अंतापुर में उसकी क्रूरता का मजाक उड़ाने पर उसने 500 स्त्रियों का वध कर डाला था। फाहयान तथा हुएनसांग के अनुसार पाटलिपुत्र में अशोक द्वारा स्थापित एक नरक था जिसमें वह प्रजा को दंड दिया करता था। अशोक के 13वें शिलालेख में कलिंग युद्ध के संबंध में विस्तृत वर्णन मिलता है जिस समय अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया उस दौरान कली उत्तर में वैतरणी से लेकर पश्चिम में अमरकंटक एवं दक्षिण में महेंद्र गिरी पर्वत तक फैला हुआ था। दक्षिण भारत से सीधा संपर्क बनाना इसके लिए बहुत जरूरी था ,बिंदुसार कालीन प्रतिशोध की भावना एवं मौर्य साम्राज्य के हितों की सुरक्षा के लिए अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त किए।धोनी और जोगड़ अभिलेख कलिंग की प्रजा से संबंधित है इन अभिलेखों में अशोक ने प्रजा को अपनी संतान कहा है।कलिंग विजय के उपरांत अशोक का हृदय परिवर्तन हो गया अशोक ने युद्ध के बजाय शांति और अहिंसा की नीति को अपनाया कलिंग विजय अशोक के लिए परिवर्तनकारी घटना थी यह दिग्विजय से धम्मविजय में परिवर्तित हो गया।

कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजय देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा झकझोर दिया। राज्यारोहण के नौवें वर्ष उसने कलिंग के शक्तिशाली राज्य पर आक्रमण किया तथा भीषण संग्राम और भयानक नरसंहार के बाद उसे विजय की प्राप्ति हुई इस युद्ध में लगभग 100000 लोग मारे गए डेढ़ लाख बंदी बनाए गए और सहस्त्र घायल हुए घायलों की चीख-पुकार व विधवाओं के विलाप और अनाथ बालकों के करुण क्रंदन का उस पर भारी प्रभाव पड़ा उसका ह्रदय करुणा से ओतप्रोत हो गया और उसने इस भीषण रक्तपात और भारी जनसंहार का प्रमुख कारण अपने आप को ही माना और भविष्य में युद्ध करने का दृढ़ निश्चय किया ।कलिंग विजय अशोक द्वारा राज्य विस्तार का अंतिम परिणाम था इस युद्ध की अत्यंत भयंकर नरसंहार ने युद्ध की विनाश लीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वह प्रायश्चित करने के प्रयत्न मैं बौद्ध विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ।मगर इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपने पूर्वजों की तरह अशोक भी वैदिक धर्म का अनुयाई था कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार अशोक के इष्ट देव शिव थे लेकिन अशोक कलिंग युद्ध के बाद अब शांति और मोक्ष चाहता था और उस काल में इन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया।भाब्रू लघु शिलालेख में अशोक त्रिरत्न बुद्धम और संघ में विश्वास करने के लिए कहता है और भिच्छू तथा तथा भी चूड़ियों से कुछ बौद्ध धर्म के ग्रंथों का अध्ययन तथा श्रवण करने के लिए कहता है लघु शिलालेख से यह भी पता चलता है कि राज्य विषय के दसवें वर्ष में अशोक ने बोधगया की यात्रा की।कलिंग विजय के उपरांत सम्राट अशोक ने साम्राज्य को सैनिक शक्ति के बजाय धम्म से संगठित करना ज्यादा सरल समझा। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म श्रमण,मोगालीपुत्त तिस्स के संपर्क से अपनाया था।

भाब्रू शिलालेख के अनुसार अशोक ने 84000 स्तूप का निर्माण कराया था। तथा इन्होंने बोधगया की यात्रा की एवं स्तूपोर के निर्माण से यह सिद्ध होता है कि अशोक का धर्म बौद्ध धर्म ही था और उसने उसी का प्रचार किया।वस्तुत अशोक के धम मानव धर्म एवं नैतिक नियमों से परिपूर्ण सर्वग्राही दिनचर्या थी जो मानव मानव में विश्वास बंधुओं एवं सहिष्णुता को प्रकट करने का उद्देश्य मात्र था। इसने मानव कल्याणकारी तत्वों को बौद्ध धर्म में से निकालकर बुध की परिकल्पना ओं को सर्वग्राही रूप में धम्म के रूप में प्रस्तुत किया। अशोक के दूसरे एवं सातवें अभिलेखों के अनुसार अशोक ने धम्म को परिभाषित करते हुए अभिव्यक्त किया है कि धम्म साधुता है।, बहुत से अच्छे कल्याणकारी कार्य करना, पाप रहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया, दान, सत्य एवं पवित्रता है। इन्होंने धाम में के कुछ स्वीकार लिया तथ्यों को भी बताया है यथा, जीव हिंसा नहीं करनी चाहिए, माता पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए, गुरुजनों के प्रति आदर भाव प्रदर्शित करना चाहिए, दास एवं नौकरों के प्रति सुहृदयी होना चाहिए, अल्प व्यय करना चाहिए, एवं अल्पसंगरह करना चाहिए।अशोक के धर्म के अनुसार पाप धम्म की प्रकृति का औरोधक है इसलिए धन की प्राप्ति के लिए इनसे बचना अत्यंत आवश्यक है। पाप को अशोक के धर्म के अनुसार कई भागों में वर्गीकृत किया गया है, इसलिए धम्म की प्राप्ति के लिए इनसे बचना अत्यंत आवश्यक है। अशोक के धर्म का सैद्धांतिक पक्ष यह उजागर करता है कि अशोक को परलोक में विश्वास था। अशोक के शासन का मूल आधार इस समय ‘धम्म’हो गया था।

अशोक के अभिलेखों में धर्म शब्द का प्रयोग अनेक जगहों पर होता है अशोक धर्म शब्द का तो नाम लेता है लेकिन विशेषताएं बताता है कि अनुकरणीय जिसका मनुष्य को अनुसरण करना चाहिए वर्जनीय जो अनुकरणीय है वह धर्म है और जो वर्जन ई य है या अधर्म है ,पाप है। अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार यात्राओं से प्रारंभ किया ,सम्राट अशोक का साम्राज्य बहुत बड़ा था अशोक ने अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को भी धर्म प्रचार के काम में लगा दिया तीसरे स्तंभ लेख एवं सातवें स्तंभ लेख से ज्ञात होता है कि उसने व्युस्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार एवं उपदेश करने का आदेश दिया था अधिकारी प्रति 5 पांचवें वर्ष अपने-अपने क्षेत्रों के दौरे पर जाया करते थे तथा सामान्य प्रशासन किए कार्यों के साथ जनता में धर्म का प्रचार प्रसार किया करते थे। उसने अपने साम्राज्य के विभिन्न पदाधिकारी को जगह-जगह घूमकर धर्म के बारे में लोगों को बताने की आज्ञा प्रदान की थी साथ ही साथ राजा की ओर से जो धर्म संबंधी घोषणा है भी हुआ करती थी।अपने अभिषेक के 13 वर्ष में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने पदाधिकारियों का एक नवीन वर्ग बनाया जिसे धर्म महामात्र कहा जाता था राज परिवार के सदस्यों से धर्म के लिए धन आदि दान में प्राप्त करते थे और राजा द्वारा जो धन दान में दिया जाता था उस की समुचित व्यवस्था करके उसे धर्म प्रचार के काम में लगाया करते थे। इनका प्रमुख कार्य विभिन्न धर्मों के संप्रदायों के बीच के देशों को समाप्त करना एकता पर बल देना धर्म की रक्षा करना और धर्म की वृद्धि करना था। इसके साथ ही साथ सम्राट अशोक ने मानव और पशु जाति के कल्याण के लिए भी अनेक कार्य किए सर्वप्रथम पशु पक्षियों की हत्या पर रोक लगा दी गई अपने व विदेशी राज्यों में भी मनुष्य और पशुओं के लिए चिकित्सालय की व्यवस्था करवाई कुए खुद बाय विश्रामगृह बनवाएं फलदार वृक्ष लगवाए प्याऊ लगवाए।

दीपांश एवं महा वंश के अनुसार अशोक के राज्य काल में पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति हुई इसकी अध्यक्षता मोगलीपुत्त तिस्स नामक बौद्ध भिक्षु ने की थी। इस समिति की समाप्ति के बाद अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कई भिक्षुओं को विदेश भी भेजा ,लंका में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को भेजा था, माना जाता है कि यहां के राजा ने इसे अपना लिया और बौद्ध धर्म को राज धर्म के रूप में घोषित कर दिया था तथा अशोक के अनुकरण पर उसने देवा नाम प्रिय की उपाधि भी ग्रहण कर ली। भारतीय इतिहास में अशोक के अभिलेखों का महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है अशोक के यह लेख पत्थरों के स्तंभों और शीला ऊपर हिमालय से मैसूर तक और उड़ीसा से काठियावाड़ आ तक खुदे हुए हैं यह पाली भाषा में है, इन अभिलेखों को पाली भाषा में खुदवाने का एक विशेष कारण यह भी था कि उस समय अधिकांश लोग पाली भाषा को व्यवहार में लाया करते थे। केवल मान सेहरा और शाहबाजगढ़ी के अभिलेखों की लिपि खरोष्ठी है ब्राह्मी लिपि बाएं से दाएं और और खरोष्ठी दाएं और से बाई ओर लिखी जाती थी ।मोटे तौर पर इन शिलालेखों को तीन भागों में विभाजित किया गया है शिलालेख स्तंभ लेख और गुहालेख। सम्राट अशोक ने अपने प्रशासनिक व्यवस्था को काफी सरल बनाते हुए चंद्रगुप्त मौर्य के शासन से नए तत्वों का समावेश किया जिसमें राजद एवं देवत्व के मध्य सीधा संपर्क करना आसान था। प्रजा को अपनी संतान के समकक्ष मानने के लिए हर संभव प्रयास किए गए थे।अशोक के सिपाहियों को आदेश था कि राजा को किसी भी तरह के कष्ट होने पर किसी भी समय और किसी भी स्थान पर उनसे मिलने में कोई कठिनाई ना हो। न्याय प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी एवं न्यायाधीश अशोक स्वयं ही हुआ करता था । न्यायिक अधिकारी राजुक होते थे जिन्हें व्यापक अधिकार प्रदान किए गए थे।इसके शासनकाल में प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था सभी विभागों का नियंत्रण राजा के अधीन होता था सभी पदाधिकारियों की नियुक्ति एवं समस्त कार्यों का उत्तरदायित्व राजा के हाथों में होता था।


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