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औद्योगिक अर्थव्यवस्था नीति क्या है विस्तार पूर्वक वर्णन करें?

किसी देश की औद्योगिक नीति व नीति है जिसका उद्देश्य उस देश के निर्माण उद्योग का विकास करना एवं उसे उचित दिशा प्रदान करना होता है। औद्योगिक नीति का अर्थ सरकार के उन निर्णय हो एवं घोषणाओं से होता है जिसमें उद्योगों के लिए अपनाई जाने वाली नीतियों का उल्लेख होता है। 1948 से अभी तक सरकार द्वारा घोषित औद्योगिक नीतियों से निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका, औद्योगिक संस्कृति की दिशा और औद्योगिकीकरण का निर्धारण होता रहा है इन नीतियों की घोषणा समय-समय पर सरकारों की बदलती प्राथमिकताओं पर आधारित होती है।
ऐसी भी है जो ऐतिहासिक कही जाती है जैसे, 1956 की औद्योगिक नीति जिससे आज के सार्वजनिक क्षेत्र की पहचान बनी है, 1991 की दूसरी ऐतिहासिक नीति जिसे भारत में आर्थिक सुधारों की जननी कहा जाता है, यहां 1948 से बनी सभी औद्योगिक नीतियों का विवेचन आवश्यक नहीं है परंतु 1991 से पहले की नीतियों की प्रमुख बातों को अगर हम समझ ले तो 19 91 की नीति को समझना आसान हो जाएगा।
1991 से पूर्व की औद्योगिक नीति
पहले औद्योगिक नीति 1948,
दूसरी औद्योगिक नीति 1956,
तीसरी औद्योगिक नीति 1977,
चौथी औद्योगिक नीति 1980,
पांचवी औद्योगिक नीति 1990
छठी औद्योगिक नीति 1991

56 की नीति के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना हुई थी और कुल 18 क्षेत्रों में उद्योग के लिए उनका एकाधिकार था। कुछ क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को मोहलत विधिवत पंजीकरण और लाइसेंस के बाद दी जा सकती थी यदि सरकार चाहे तो इन क्षेत्रों में भी सार्वजनिक क्षेत्र का प्रवेश कर सकते थे।
इस प्रकार अर्थव्यवस्था में महत्व वाले तेल, ऊर्जा, भारी उद्योग, टेलीकॉम इत्यादि विश स्टेटस सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गए।
म्यूजिक बड़ी कंपनियां एकाधिकार एवं प्रतिबंधित व्यापार नियमन एवं विदेशी कंपनियां विदेशी मुद्रा अधिनियम के तहत अत्यधिक नियमन के दायरे में थी इन्हें क्रम एमआरटीपी कंपनी और एसपीआरए कंपनियां भी कहा जाने लगा था।
सरकारों का यह विश्वास था कि जब कंपनी का आकार बड़ा हो जाता है तबीयत अधिकार एवं शोषण की प्रवृतियां बनाने लगती हैं। इसलिए व्यवसाय शुरू करने के लिए लाइसेंस प्राप्त कर लेने के बाद भी निजी क्षेत्र को विस्तार या विभिनता लाने के लिए सरकार से पुणे अनुमति आवश्यक थी जबकि यही सब कुछ किसी भी व्यवसाय के लिए सामान्य बात होनी चाहिए।
1991 से पूर्व की नीतियों में औद्योगिक उत्पादों जैसे सीमेंट, स्टील और अन्य मौलिक उत्पादों का मूल्य नियमन सरकारों द्वारा किया जाता था।


सरकार की हरनीति घोषणा में मिश्रित अर्थव्यवस्था यानी सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के साथ-साथ विकसित होने पर बल दिया जाता था परंतु वास्तव में यह नीतियां सार्वजनिक क्षेत्र के पक्ष में भारी झुकाव रखती थी।
1991 से पूर्व की औद्योगिक नीतियां अत्यधिक नियमन और नियंत्रण करने वाली थी, शालिनी क्षेत्र का बोलबाला था और सीमित क्षेत्र में निजी क्षेत्र का अस्तित्व था। सरकार द्वारा बनाई गई औद्योगिक नीति से उस देश के औद्योगिक विकास के निम्नलिखित तथ्यों का पता चलता हैः
औद्योगिक विकास की कार्य योजना एवं कार्य योजना की रणनीति क्या होगी।
औद्योगिक विकास में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की भूमिका क्या होगी।
औद्योगिक विकास में विदेशी उद्यमियों एवं विदेशी पूंजी निवेश की दिशा क्या होगी।

नई औद्योगिक नीति 1991ः 1991 की नई औद्योगिक नीति को भारत में आर्थिक सुधारों की जननी कहा जाता है। यद्यपि सुधार के कदम पहले भी उठाए गए थे परंतु वे निवर्तमान नीतियों में बदलाव द्वारा लाए गए थे जबकि नई औद्योगिक नीति में इन बदलावों को स्पष्ट रूप से दिखाया गया।,
इसे नई औद्योगिक नीति नई आर्थिक नीति तथा नई उदारीकरण नीति जैसे नामों से भी जाना गया। नई नीति के द्वारा व्यवसाय करने की पूरी छूट बिना किसी प्रकार के सरकारी नियंत्रण और सार्वजनिक क्षेत्र का दायरा काम करते हुए निजी क्षेत्र के विस्तार हेतु कई सहूलियत दी गई। नहीं विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए उधार विदेशी निवेश नीतियां बनाने की वकालत की गई। और नई औद्योगिक अथवा आर्थिक नीति के तीन प्रमुख क्षेत्र निर्धारित किए गए हैंः
उदारीकरण
सार्वजनिक क्षेत्र
विदेशी निवेश

उदारीकरणः उदारीकरण द्वारा पूर्व की लाइसेंस और पंजीकरण को समाप्त किया गया ताकि निजी क्षेत्र स्वतंत्र रूप से बिना लाइसेंस और पंजीकरण के अपने उद्योग स्थापित कर सके। लाइसेंस व्यवस्था की समाप्ति उदारीकरण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। परमाणु ऊर्जा और रेलवे इन दोनों को भी निजी क्षेत्र के दायरे से बाहर रखा गया है। कुछ क्षेत्रों के लिए अभी भी निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए लाइसेंस की आवश्यकता पड़ती है जैसे किसी प्रकार का हथियार, दवाई , कोयले का खनन, रक्षा संबंधी सामान, सभी प्रकार की शराब, सिगरेट , खतरनाक रसायन।
पर्यावरण को प्रभावित करने या प्रदूषण पैदा करने वाले उद्योगों को लाइसेंस लेने या पंजीकरण की आवश्यकता तो नहीं है परंतु उन्हें प्रशासनिक अनुमति द्वारा निवेश के पहले लेना पड़ता है। इसके अतिरिक्त उदारीकरण नीति के अंतर्गत अब निजी कंपनियों द्वारा क्षमता विस्तार और विविधीकरण के लिए किसी पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं है। नई नीति से निजी क्षेत्र को कौन सा एक व्यवसायिक प्रतिष्ठान के रूप में काम करने की बिना प्रशासनिक नियंत्रण के पूरी छूट मिल चुकी है और उनका संचालन विस्तार आदि बाजार की मांग के अनुसार और उपलब्ध अवसरों पर आधारित हो चुका है। अब निजी क्षेत्र की परिपक्वता लचीलापन और उनकी युद्ध समन्वय स्थिति को स्वीकार आ जाए और देश की अर्थव्यवस्था में उन्हें बड़ी जिम्मेदारियां दी जाए यह समय आ चुका है। नई नीति इस बात का परिचायक है कि सरकार की सोच में भी एक आधारभूत बदलाव आया है और यह है कि सरकार का काम शासन करना जो उत्पादन करने से भिन्न है। निजी क्षेत्र और सरकार की अलग-अलग भूमिकाएं भी स्पष्ट हो चुकी है निवेश बढ़ाकर समृद्धि में निरंतरता निजी क्षेत्र की जिम्मेदारी है जबकि सरकार का काम बड़े सामाजिक मुद्दों पर विचार अर्थव्यवस्था और कुशल प्रशासन देने की है। जिम्मेदारियों का निर्धारण भी सरकार की सोच में बदलाव का एक द्योतक है।

सार्वजनिक क्षेत्रः 1991 की नई नीति से सार्वजनिक क्षेत्र की परिधि को काफी सीमित कर दिया गया। 18 क्षेत्रों को घटाकर कुल 5 क्षेत्रों वाला कर दिया गया और भविष्य में इंसान क्षेत्रों को और विक्रम करने की आशा व्यक्त की गई है। हालांकि इसमें परमाणु ऊर्जा रेलवे और लाइसेंस की आवश्यकता वाले उद्योग शामिल नहीं है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि भविष्य में अब कोई भी नया सार्वजनिक क्षेत्र नहीं स्थापित होगा और मौजूदा कंपनियों में यदि निवेश किया गया तो उसके लिए पूंजी उत्साहजनक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को अपनी प्राप्ति से या अब तक हुए लाभों से प्राप्त की जाएगी साजन क्षेत्रों के लिए कोई नया बजट प्रावधान नहीं किया जाएगा शिवाय घाटे में चल रही कंपनियों और आर्थिक दबाव झेल रही कंपनियों को छोड़कर।
साजन क्षेत्र की कंपनियों में ज्यादा व्यवसाई कुशलता की अपेक्षा शुरू से हो रही है। इन कंपनियों के निदेशक मंडल में इस क्षेत्र विशेष के विषय के साथियों की ही नियुक्ति होती है। इसके मुख्य कार्यकारी कंपनी के निष्पादन के लिए जवाब दे होते हैं। साजन क्षेत्र की किन कंपनियों का निष्पादन खाती हो रहा है उन्हें दैनिक क्रियाकलाप में ज्यादा स्वतंत्रता मिलती है सर्वप्रथम यह स्वतंत्रता उन्हें समझौता ज्ञापन के द्वारा निष्पादन में प्रतिबद्धता और संचालन में लचीलापन के द्वारा प्रदान की जाती है इंटरनेट पादन के आधार पर इन्हें महारत्न नवरत्न और मिनी रत्न सैन्य में वर्गीकृत कर के निवेश के निर्णय लिए जाते हैं।

निजीकरणः क्षेत्र की स्थापना के लिए सरकार द्वारा निवेश शेयर के माध्यम से बजट प्रावधानों के अंतर्गत किया गया था अतः विनिवेश एवं निजी करण दोनों से आशय है सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र को प्रतिभूतियों को बेचना। हमें पता है कि प्रतिभूतियों का खरीदना और बेचना स्टॉक मार्केट के माध्यम से होता है और इस प्रकार प्रतिभूतियों की कीमत खरीदार और विक्रेता के द्वारा तय की जाती है।

1991 की नीति निजीकरण का समर्थक क्यों है?

इस नीति में सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण का परिपक्व फैसला निम्न कारणों से लिया गया:
प्रारंभ में प्रमुख क्षेत्रों में क्षमता विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है जैसे कि निर्भरता, जोगी करण के लिए धरातल तैयार किया गया औद्योगिक समृद्धि सुनिश्चित की गई। परंतु अब वह समय आ गया है कि क्रियाकलापों को ऊंची गति प्रदान की जाए तथा अधिक क्षमता का विकास हो सके।
उधारी इसे प्रमुख क्षेत्रों में निजी क्षेत्र द्वारा निवेश के मार्ग खुल गया है जिससे प्रतियोगिता और भी ज्यादा बढ़ गई है। साजन क्षेत्र का निजी क्षेत्र की तुलना में शुद्ध बिजनेस मॉडल बनकर काम करना संभव नहीं हो पा रहा है।


औद्योगिक उत्पादन करने में सरकार की भूमिका सदैव एक अंतरिम और थोड़े समय वाली व्यवस्था है यह कमी अस्थाई व्यवस्था नहीं हो सकती सरकार अस्थाई तौर पर केवल उन्हीं क्षेत्रों में उत्पादन वती हो सकती है। जहां जनकल्याण प्रभावित हो रहा हो जैसे रेलवे अथवा राष्ट्रहित का मामला हो जैसे परमाणु ऊर्जा।
लाभ क्षेत्र के उद्यमों का निजीकरण क्यों किया जाए? निजी करण का उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना ही नहीं है परंतु इसके पीछे एक और भी बड़ा कारण यह है कि क्या भविष्य में भी आज के लाभ कमाने वाले उपक्रम कड़ी प्रतियोगिता वाले वातावरण में भविष्य में भी उतने ही लाभ करने वाले होंगे।
किसी भी व्यवसाय में त्वरित निर्णय लेने की योग्यता होनी चाहिए इसमें यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि लिया गया निर्णय सही था या गलत। इस प्रकार के निर्णय में व्यावसायिक जोखिम की संभावना हमेशा बनी रहती है परंतु निर्णय लेने की योग्यता होना आवश्यक है।
उपरोक्त सारी बातों को ध्यान में रखकर सरकार ने कुछ बड़ी कंपनियों के निजीकरण का फैसला लिया जैसे कि वेदांता ग्रुप, बीएसएनल, आईपीसीएल, मॉडर्न फूड्स और मारुति। निजी करण का प्रथम चरण विरोध तथा विवादों से भरा रहा। निजीकरण के लाभ और आवश्यकता होने के बावजूद सरकार और अधिक निजी करण के पक्ष में नहीं है तथा इस विषय पर विपक्ष और कर्मचारी यूनियनों की आम सहमति की प्रतीक्षा करेगी जो कि ठीक भी है निजी करण एक लंबी प्रक्रिया है जिसमें कई दशक लग जाते हैं।
निजी करण को ही मात्र आर्थिक सुधार का जरिया नहीं समझना चाहिए और ना ही इसे सारी आर्थिक समस्याओं का हल निकल कर सामने आएगा कुछ ऐसी गलत धारणा सार्वजनिक क्षेत्र की स्थापना के समय बनी थी निजी करण ज्यादा से ज्यादा यह कर सकता है कि देश में एक प्रतियोगी और 10:30 उद्योग का आधार बन सके किंतु इसे सुधारो का एकमात्र पहलू कहना गलत होगा।
देश में अभी भी व्यवसाय करने में काफी नौकरशाही जैसी अड़चनें हैं और सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए। हम यह कह सकते हैं कि उदारीकरण से लाभ तो हुआ है परंतु अभी भी इसे विश्वस्तरीय नहीं कहा जा सकता। हमारे भारत को हजारों छोटे आर्थिक सुधारों की आवश्यकता है ना की धमाकेदार बड़े सुधार।


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