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  1. आर्य समाज की स्थापना कब हुई ?
  2. आर्य समाज के सिद्धांत क्या है?
  3. आर्य समाज द्वारा कौन-कौन से मुख्य कार्य किए गए हैं?

दयानंद सरस्वती ने 1857 ईसवी में आर्य समाज की स्थापना की। उनका जन्म 1824 ईस्वी में गुजरात के बकराना के शिवपुर नामक ग्राम में हुआ था। उनका बचपन का नाम मूल शंकर था।
21 वर्ष की आयु में ही इन्होंने अपना गृह त्याग कर दिया और 15 वर्षों तक वह ज्ञान की खोज में घूमते रहे। उन्होंने 1860 ईस्वी में मथुरा पहुंच कर स्वामी बृज आनंद से दीक्षा ग्रहण किया था, वही उन्होंने संस्कृत की शिक्षा के साथ-साथ वेदों का ज्ञान भी प्राप्त किया।
वेदों के अध्ययन के बाद उन्हें यह एहसास हुआ कि वेद हमारे संस्कृति की मूल जड़ है जिसके बारें में सभी भारतीयों को जानना अति आवश्यक है, इसलिए उन्होंने “वेदों की ओर लौटो” का नारा दिया ।
आर्य समाज की स्थापना – हिंदू धर्म की वास्तविकता को सामने लाने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने सत्यार्थ नामक एक ग्रंथ की रचना की।
जिसमें ज्ञान की वास्तविकता को जानने का अर्थ था छुपे हुए ज्ञान को जानना, जिसे उस समय के भारतीय पूर्ण रूप से अनभिज्ञ थे। उनके बारे में इस ग्रंथ में बताया।
दयानंद सरस्वती का विचार था कि जब तक लोग वेदों का अध्ययन नहीं करेंगे तब तक वह हिंदू धर्म को नहीं समझ सकेंगे। इस प्रकार उन्होंने हिंदू धर्म की वास्तविकता में छुपी हुई ज्ञान को बाहर लाने का प्रयास किया।
1857 ईसवी में मुंबई में दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की जो धीरे-धीरे आर्य समाज की जड़े हिंदुओं में फैलते चली गई एवं 20 वर्ष बाद आर्य समाज के प्रचार प्रसार के लिए 1877 ईसवी में लाहौर गए तथा 1878 ई० में दिल्ली में भी आर्य समाज की स्थापना की गई ।
30 अक्टूबर 1883 ई० में स्वामी दयानंद सरस्वती जी का निधन हो गया।


आर्य समाज के सिद्धांत – उन्होंने वेद सच्चाई को ज्ञान का स्रोत माना एवं उनका मानना था कि वेद का ज्ञान सभी भारतवासियों को होना अति आवश्यक है। वेद का ज्ञान ही लोगों को सच्चे ज्ञान की ओर ले जाता है। जिससे लोगों को फैल रही कुरीतियों को समझने की चेतना जागृत होती है। जिसके कारण नव चेतना से लोग नवजीवन को पुनर्जागरण के तौर पर नए जीवन का प्रारंभ कर सकते हैं।
उन्होंने सृष्टिकारी ईश्वर के बारे में कहा कि ईश्वर अजर ,अमर, निर्विकार, न्याय कारी, दयालु और सर्वशक्तिमान है।
उन्होंने कहा कि ईश्वर का कोई आकार नहीं होता है अर्थात् वे दयालु है वे सभी पर दया करते हैं, वह निर्विकार हैं वह अजर है उनकी ना तो मृत्यु होती है और ना ही जन्म, वह मनुष्य की रचना करते हैं, उन्होंने ही प्रकृति की और हम सब की रचना की है, उन्होंने जगत के सभी जीवो के लिए सुंदर सुंदर चीजें एवं स्थान बनाई है ,सृष्टि की रचना उनके हाथ में है ,इसलिए उन्होंने ईश्वर को सृष्टिकर्ता का नाम दिया।
3)— उनके अनुसार किसी भी कार्य की सत्यता और असत्यता पर विचार करके उस काम को करना चाहिए । आर्य समाज ने हमें संदेश दिया है कि किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी सत्यता और सत्यता की जांच जरूर कर लेनी चाहिए।

4)—– सभी को असत्य का त्याग एवं सत्य को ग्रहण करना चाहिए। असत्य का मतलब यह है कि हमें कभी भी किसी प्रकार के झूठ का सहारा नहीं लेना चाहिए हमें सर्वदा सत्य बोलना चाहिए सत्य ही ऐसा मार्ग है जो हमें सत्य की ओर ले जा सकता है और सच्चे ज्ञान दिला सकता है

4)— मानव को केवल अपनी उन्नति स।से ही संतुष्ट नहीं होना चाहिए अर्थात केवल अपनी उन्नति के बारे में नहीं सोच कर दूसरों की उन्नति पर भी ध्यान देना चाहिए। सब की उन्नति को ही अपनी उन्नति समझना चाहिए यही उसकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए

6)—– समस्त मानव समाज को शारीरिक आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। शारीरिक का अर्थ होता है सभी के द्वारा किए गए कार्य ।आत्मिक का अर्थ होता है आत्मा के द्वारा किए गए कार्य। जो सभी के भलाई के लिए हो तथा सामाजिक उन्नति का अर्थ होता है हमारे द्वारा जो कार्य किए जाते हैं वे केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि समाज की उन्नति के लिए भी होना चाहिए। अर्थात हमारे भीतर सामाजिक भावना होनी चाहिए

7)— धर्मा अनुकूल ही आचरण करना मानव का प्रमुख कर्तव्य है। धर्मा अनुकूल कार्य करने में ही अपनी तथा समाज की भी भलाई निहित रहती है। इसके विपरीत हमें कार्य नहीं करना चाहिए यही आर्य समाज का सबसे प्रमुख उद्देश्य था

8)— अविद्या को समाप्त कर विद्या का प्रचार प्रसार करना चाहिए। प्राचीन समय में अधिकतर लोग अशिक्षित थे जिससे समाज पिछड़ा हुआ था। इसलिए उन्होंने विद्या पर जोर दिया और कहा कि अविद्या अर्थात अशिक्षा को छोड़कर ही हम समाज और खुद को उन्नत कर सकते हैं।

9)— स्वयं के हित से संबंधित कार्य में आचरण की स्वतंत्रता रखनी चाहिए परंतु सामाजिक कार्य में आपसे मतभेदों को भुला देना चाहिए। आचरण की स्वतंत्रता का अर्थ होता है हमें आचरण को हमेशा सुंदर रखना चाहिए परंतु सामाजिक कार्यों की जब बात आती है तो सद्भावना के लिए हमें इस प्रकार की भावनाओं को छोड़ देना चाहिए।

10) ज्ञान की प्राप्ति से ही ईश्वर का बोध होता है अर्थात बिना शिक्षा के ,ज्ञान के, हम वेदों का पुराणों का अध्ययन नहीं कर सकते जिससे लोगों को जागृत करना आसान नहीं होगा इस प्रकार हमें ईश्वर की प्राप्ति के लिए ज्ञान की आवश्यकता है।

आर्य समाज के कार्य—— स्वामी दयानंद सरस्वती ने सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सुधार आदि के कार्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया जैसे—–
1—- सती प्रथा को समाप्त करने पर जोर दिया
2—- बाल विवाह को सामाजिक बुराई माना गया।

3— विधवा विवाह का समर्थन किया।

4—- जात पात एवं छुआछूत का पूर्णता: विरोध किया।

स्त्री प्रथा में जिस स्त्री के पति का देहांत हो जाता था उसे अपने पति के साथ ही जला दिया जाता था। अर्थात तत्कालीन समाज में स्त्री का खुद का कोई वजूद नहीं था उसके सामाजिक मेहता सुन के बराबर से।
२--बाल विवाह—उस समय कम उम्र में ही बच्चों की शादी कर दी जाती थी। जो अपने आप में एक बहुत बड़ी सामाजिक बुराई थी जिससेकई कुरीतियां उभर कर सामने आई थी। इसलिए बाल विवाह को समाप्त करने का उन्होंने भरपूर प्रयास किया ०
किसी स्त्री के पति के मरने के बाद या तो स्त्री को सती होना पड़ता था या जीवन पर्यंत उसे विधवा बनकर ही रहना होता था। उस समय एक विधवा कर समाज में बहुत ही दयनीय स्थिति थी जिंदा होकर भी वह पशु के समान जीवन व्यतीत करते थे उस पर बहुत सारे सामाजिक व्यवस्थाओं को लाभ दिया जाता था बहुत सारी बंदिशे थी। जिसे वाहन करते हुएअपनी जिंदगी व्यतीत करती थी ।

जात पात__जात पात छुआछूत का मतलब था कि उस काल में जात-पात की जड़े बहुत गहराई तक फैली हुई थी पूर्णविराम उस जाति के लोग निम्न जाति का बुरी तरह से शोषण किया करते थे। इन कुरीतियों कोहटाने के लिए ही उन्होंने अथक प्रयास किया।

३–—शिक्षा का विकास__स्त्रियों को समाज में आदर मिले इसके लिए स्त्री शिक्षा पर जोर दिया इससे शिक्षा अनिवार्य होना चाहिए ताकि उन्हें समानता का अधिकार मिले। उनका विश्वास था कि यदि स्त्री शिक्षित रहेगी तो समाज और अपने घर की उन्नति वह भली प्रकार से कर सकती है।

वैदिक शिक्षा का प्रचार प्रसार—–वैदिक शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए उन्होंने जगह-जगह गुरुकुल स्थापित करवाएं। ताकि लोग वैदिक शिक्षा का ग्रहण कर अपने मूल जड़े अर्थात हिंदुत्व की ओर आसानी से लौट सके और समझ सके कि उनकी वास्तविकता क्या है इसलिए उन्होंने वैदिक शिक्षा और पुराणों की शिक्षा के लिए गुरुकुल स्थापित किए।

एकेश्वरवाद——आर्य समाज ने वेद वेदों की ओर लौटो का नारा दिया तथा बहुत देवार और अवतारवाद का खंडन किया उनका कहना था कि ईश्वर अलग-अलग रूप में अवतार ना लेकर बल्कि एक ही है और एक ही ईश्वर की हमें पूजा करनी चाहिए जिससे समाज में व्याप्त आडंबर को दूर किया जा सके।
४—–अंधविश्वास तथा मूर्ति पूजा का विरोध कर एक ईश्वर की आराधना करने का संदेश दिया।

५-_—–प्राचीन आर्य संस्कृति और सभ्यता को सामने लाकर भारतीयों में आत्म सम्मान व गौरव पैदा करने का काम किया

६—-स्वामी जी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया। उस समय भारत में ब्रिटिश ब्रिटिश शासन था इसलिए विदेश विदेशों से ब्रिटिश सामान भारत में आयात किया जाता था जिससे भारतीयों का भरपूर शोषण होता था अर्थात वह सामान भारतीयों द्वारा में उपयोग में लाई जाती थी . जिसे भाग जिसे ब्रिटिशर्स भारत में आया करते थे वहीं दूसरी तरफ भारत में बने सामान काभारत में खपत नहीं हो पाता था। इस तरह धीरे-धीरे भारतीय कुटीर और लघु उद्योग समाप्त होते गए और विदेशी सामान का भारत में भरपूर उपयोग होने लगा। इसी वजह से उन्होंने विदेशी सामान का पूर्ण बहिष्कार किया और देसी उद्योगों को बढ़ावा देने का प्रयास किया।

७——–भारतीयों को पुनर जागृत करने का काम किया। सत्य प्रकाश में उन्होंने लिखा था कि अच्छे से अच्छे विदेशी शासन की तुलना स्वदेशी शासन से नहीं की जा सकती। क्योंकि कोई भी विदेशी दूसरे प्रशासन तभी करता है जब उसका उसे शोषण करना होता है। इस प्रकार विदेशी केवल देश का शोषण ही करते हैं।

८—–वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि भारत भारत वासियों के लिए है। अर्थात भारत में जो विदेशी शासन आए हैं तथा उनके साथ जो विदेशी संस्कृति आई है उसे पूर्णता समाप्त करना चाहिए तथा विदेशियों को अपने देश से खदेड़ देना चाहिए।
इस प्रकार देश की आर्थिक संस्कृतिक और सामाजिक विकास के लिए उन्होंने बहुत सारे कार्य के।


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