1.भारत में आधुनिक धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन की क्या भूमिका थी? 2.ब्रह्म समाज की स्थापना किसने की ? 3.धार्मिक आंदोलन के क्षेत्रों में शुरू हुई थी? 4.ब्रह्म समाज का विघटन कब हुआ था ?
भारत में आधुनिक ,धार्मिक, सामाजिक सुधार आंदोलन भूमिका या पृष्ठभूमि –हर काल में चाहे वह प्राचीन काल हो मध्य काल हो या आधुनिक काल हो समाज में कुछ ना कुछ बदलाव होता है जिसे हम कुर्तियां करते हैं इन कृतियों के फलस्वरूप समाज में एक वितरा धर्म रूढ़िवादिता समाहित हो जाती है इसे हटाने के लिए धर्म सुधार आंदोलन चलाया जाता है प्राचीन काल में धर्म सुधार के लिए गौतम बुद्ध आगे आएं, मध्यकाल में गुरु नानक संत कबीर आदि धर्म सुधारक आगे आएं, जिन्होंने सामाजिक और धार्मिक सुधार के लिए उपदेश दिए। इसी प्रकार आधुनिक काल में भी हिंदू समाज में कुरीतियां ऐसे चौराहे में पहुंच गया जहां जाकर समाज में विभिन्न कुर्तियां समाहित हो गई थी । जिससे कई विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो गई थी। धर्म के नाम पर समाज उच्च और निम्न भागों में विभाजित हो गया । ऊंची जाति द्वारा निम्न जाति पर सामाजिक भेदभाव आर्थिक भेदभाव किए जा रहे थे जिसका परिणाम यह निकला कि आपस में जो लगाव था वह खत्म होने के कगार पर थे, इसी समय में भारत में विभिन्न यूरोपीय देशों से और ब्रिटिश से लोग आए और पादरी भी साथ में आए जो इन परिस्थितियों का फायदा उठाकर इन्हीं निम्न जातियों जनजातियों को मिशनरी धर्म परिवर्तन के लिए प्रलोभन देने लगे और उन्हें मिशनरी धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करने लगे। इस क्रम में एक धार्मिक उन्माद का वातावरण उत्पन्न होने लगा। इस समय भारत में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग उभरकर सामने आता है और सामाजिक धार्मिक सुधार का भरसक प्रयास करते हैं उस क्रम में जो विभिन्न सामाजिक धार्मिक सुधार के प्रणेता रहे हैं जैसे राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, केशव चंद्र सेन, दयानंद सरस्वती आदि।
धार्मिक सामाजिक सुधार में होता क्या है-समाज के जो कुर्तियां थी वह धर्म से जुड़ी थी तथा धर्म की जो कुरीतियां थी उनकी जगह समाज से जुड़ी थी इस कारण दोनों स्तर पर बदलाव लाने की पहल की गई शिक्षा को बढ़ावा देने का प्रयास किया गया उनके प्रयासों के फलस्वरूप यह सुधार आंदोलन सामने आया जिन्हेंसामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन के नाम से जाना जाता है
सुधार आंदोलन के प्रमुख क्षेत्र– भारत में तीन प्रमुख प्रेसिडेंसी क्षेत्र जो ब्रिटिश के समय भारत में थे इन्हीं तीन केंद्रों से सुधार आंदोलन की लहर पूरे भारत में फैलने शुरू हुई। क्षेत्र थे मुंबई कोलकाता और मद्रास।

आखिर ऐसा क्या था कि इन्हीं तीन क्षेत्रों से सुधार आंदोलन का प्रारंभ हुआ।
वास्तविकता यह है कि ब्रिटिशर्स जहां इकट्ठा हुए वह जगह व्यापारिक केंद्र बन गया जो प्रेसिडेंसी के रूप में विकसित हुआ था। जँहां शिक्षा का विकास सबसे पहले हुआ। इसी शिक्षा के विकास ने एक मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवियों का वर्ग उत्पन्न किया।
बुद्धिजीवी मध्यम वर्ग ने पूरे धार्मिक सामाजिक सुधार आंदोलन का नेतृत्व किया और यही कारण है कि बंगाल में कोलकाता, बंबई और मद्रास में यह तीनों क्षेत्र से विकसित हुए जहां से धार्मिक सामाजिक सुधार आंदोलन की लहर वही जो धीरे-धीरे पूरे हिंदुस्तान में फैल गई ।
जिसमें सबसे अग्रेन राजा राममोहन राय। इन्हें धार्मिक सुधार आंदोलन के नेता या अग्रदूत भी कहा जाता है।
राजा राममोहन राय-। राजा राममोहन राय जी प्रारंभ से ही मूर्ति पूजा, बहू देव और आदि के विरोध में थे। उनका जन्म 1774 ईसवी तथा इनकी मृत्यु 1833 ईस्वी में हुई।
नवजागरण-। नवजागरण को पुनर्जागरण भी कहा जाता है।नवजागरण या पुनर्जागरण के अग्रदूत या आधुनिक भारत के पिता के नाम से भी राजा राममोहन राय को जाना चाहता हैै
वह विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता थे जैसे इंग्लिश, संस्कृत, फारसी, हिंदी। 7 भाषाओं में यह पारंगत है इतनी शिक्षा प्राप्त करने के कारण है इनकी बुद्धिमता का स्तर काफी ऊपर था।
वह एक आम आदमी से हटकर रूढ़िवादी सोचो से ऊपर उठकर मूर्ति पूजा के विरोध के रूप में और सामाजिक समानता के पक्षधर के रूप में उभर कर सामने आए थे।
उनके कार्यों को तीन खंड में विभाजित करते हैं।
१-। धार्मिक सुधार की दिशा के क्षेत्र में
२-। शिक्षा के क्षेत्र में,
३-। पत्रकारिता के क्षेत्र में
१_। धार्मिक क्षेत्र-– राजा राममोहन राय जी ने सबसे पहले फारसी में एक ग्रंथ लिखी इस पुस्तक का नाम
तोहफा त-उ ल – मोहेदि इ, पुस्तक में उन्होंने पहली बार मूर्ति पूजा का विरोध किया।
इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद होता है एकेश्वरवाद को उपहार अर्थात वह बहुदेवबाद विरोधी थे। धीरे धीरे धार्मिक सुधार को लेकर प्रयत्न करना शुरू किया इस संदर्भ में सर्वप्रथम
1815 में आत्मीय सभा नाम की एक संगठन स्थापित की इस सभा का उद्देश्य धार्मिक सुधार से जुड़ा हुआ था।
1816 ईस्वी में वेदांत सोसाइटी नाम की सभा स्थापित की।
1820 ईसवी में इन्होंने एक प्रमुख कार्य किया जो ईसाई धर्म पर आधारित एक पुस्तक था जिसका नाम पृष्ठ ऑफ जीसस था। जिसमें उन्होंने ईसाई धर्म पर कटाक्ष किया। ईसाई धर्म के बुराइयों के भी विरोधी थे। इस पुस्तक में उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि किस प्रकार से ईसा मसीह को चमत्कारिक शक्ति का व्यक्ति बताया गया है । परंतु वास्तव में ऐसा नहीं हो सकता। इस प्रकार ईसाई धर्म में दिखावा पन था उसे भी उजागर करने की कोशिश की।

1823 में जॉन हिंडोन के प्रयासों से लंदन में प्रकाशित किया गया
1828 ईस्वी- उनका जो प्रमुख सुधार माना जाता है वह 1828 इसमें में ब्रह्म समाज का गठन जिसका मूल उद्देश्य हिंदू धर्म में आए कुर्तियों को दूर करना था। बाद में यही ब्रह्मसमाज के नाम से जाना जाने लगा। ब्रह्म समाज और भ्रम सभा की स्थापना का श्रेय भी राजा राम मोहन राय को जाता है उन्होंने इन सभी प्रयासों से धर्म में एकेश्वरवाद लाने का प्रयास किया मूर्ति पूजा बहुदेवबाद तथा समाज में व्याप्त भेदभाव का भी विरोध किया।
शिक्षा के क्षेत्र में सुधार- 1829 ईस्वी में कोलकाता में हिंदू कॉलेज की स्थापना देवीधर के सहयोग से की थी 1825 ईस्वी में वेदांत कॉलेज की स्थापना की।
पत्रकारिता के क्षेत्र में सुधार– राजा राम राजा राम मोहन राय को भारतीय पत्रकारिता का अग्रदूत भी कहा जा जाता है वह कई भाषा के जानकार थे इसलिए उन्होंने विभिन्न भाषाओं में पत्रकारिता का भार लिया और समाचार पत्र छापे। उनमें प्रमुख है1
1– 1821 ईस्वी में संवाद कुमुदिनी बांग्ला भाषा में छपी
2– 1822 में मीरात उल अखबार फारसी भाषा में छपी।
3-‘ 1823 ईस्वी में ब्रह्मनिकल मैगजीन इंग्लिश में प्रकाशित की यह तीन प्रमुख कार्य पत्रकारिता के क्षेत्र में थे।
सामाजिक क्षेत्र में योगदान– वे जातिवाद के विरोधी थे महिलाओं के उत्थान के पक्षधर थे। उन्हीं के प्रयासों ने के फल स्वरुप 1829 ईस्वी में Lord William Bentinck की सहायता से सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया। वे सामाजिक समानता के पक्षधर थे सती प्रथा पर प्रतिबंध 1829 में बंगाल में तथा 1830 में मद्रास और मुंबई में इस प्रथा पर प्रतिबंध लगा।
सती प्रथा हटाना यह उनका एक महत्वपूर्ण सामाजिक सहयोग माना जाता है
राजा की उपाधि— 1830 ईस्वी में बादशाह अकबर द्वितीय उनके संपर्क में आए और उन्हें राजा की उपाधि दी अपने एक दूत के रूप में ब्रिटेन भेजा जिसमें भारतीय राजाओं के साथ अच्छे व्यवहार के गुजारिश की गई थी उस समय समुद्र को पार करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। 1833 ईस्वी में England के ब्रेस्टन शहर में उनकी मृत्यु हो गई।

1830 ईस्वी में उनके इंग्लैंड जाने के बाद राजा रामचंद्र बीघा बग्गी स्को ब्रह्मसमाज की कार्यभार दिया गया परंतु 1833 ईस्वी में राजा राममोहन राय की मृत्यु के बाद द्वारिका नाथ द्वारा इसे संभाला गया। 1843 ईस्वी में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र देवेंद्र नाथ टैगोर के द्वारा ब्रह्म समाज को संभाला गया।
ब्रह्म समाज का विघटन— केशव चंद्र सेन ने देवेंद्र नाथ को आचार्य के पद पर स्थापित किया केशव चंद्र जी काफी उदारवादी थे फल स्वरुप वह विभिन्न धर्मों को जोड़ने का प्रयास करने लगे जिससे ब्रह्म समाज काफी उदास उदारवादी हो गया। परिणाम स्वरूप 1865 ईस्वी में उन्हें आचार्य के पद से निष्कासित कर दिया गया। जिससे ब्रह्म समाज दो भागों में बट गया
1– ब्रह्म समाज
2– आदि ब्रह्म समाज या भारतीय ब्रह्म समाज
ब्रह्म समाज का नेतृत्व देवेंद्र नाथ के द्वारा किया गया। जबकि आदि ब्रह्म समाज का नेतृत्व केशव चंद्र सेन के द्वारा किया गया। भारतीय ब्रह्म समाज ज्यादा चर्चित रहे वनस्पति के ब्रह्म समाज के। उनके द्वारा ब्रह्म विवाह को एक act के रूप में पारित करवाया गया।
परंतु जैसा जाना जाता है किसी भी संस्था में धीरे-धीरे कुर्तियां पर अपने लगती है उसी प्रकार 1878 ईस्वी में चंद्रसेन बाबू जिस कृतियों का विरोध करते थे वे उसे खुद करते हुए बिहार के राजा से अपने 12 वर्ष की पुत्री का विवाह कर देते हैं परिणाम स्वरूप आदि ब्रह्म समाज पुनः दो भागों में विभाजित हो जाता है इस प्रकार ब्रह्मसमाज धीरे धीरे बहुत खंडों में विभाजित हो जाता है जिसका पुनर्गठन किसी भी बड़े नेता द्वारा संभव नहीं हो पाता और ब्रह्मसमाज मुख्यधारा से हट जाता है और नए धार्मिक संगठन का उद्भव होने लगता है।