जलवायु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी प्रमुख कारण
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आईपीसीसी के प्रमुख डॉ.आर.के. पचौरी ने जलवायु परिवर्तन के लिये निम्न कारणों को उत्तरदायी बताया है-
- औद्योगी करण (1880) से पूर्व कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 280 पीपीएम थी जो 2005 के अन्त में बढ़कर 379 पीपीएम हो गई है।
- औद्योगीकरण से पूर्व मीथेन की मात्रा 715 पीपीबी थी और 2005 में बढ़कर 1734 पीपीबी हो गई है। मीथेन की सान्द्रता में वृद्धि के लिये कृषि एवं जीवश्म ईंधन को उत्तरदायी माना गया है।
- इधर के वर्षों में नाइट्रस ऑक्साइड की सान्द्रता क्रमशः 270 पीपीबी से बढ़कर 319 पीपीबी हो गई है।
- समुद्र का जलस्तर 1-2 मि.मी. प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है।
- पिछले 100 वर्षों में अंटार्कटिका के तापमान मेें दोगुना वृद्धि हुई है तथा इससे बर्फीले क्षेत्रफल में भी कमी आई है।
- मध्य एशिया, उत्तरी यूरोप, दक्षिणी अमेरिका आदि में वर्षा की मात्रा में वद्धि हुई है तथा भूमध्य सागर, दक्षिणी एशिया और अफ्रीका में सूखा में वृद्धि दर्ज की गई है।
- मध्य अक्षांशों में वायु प्रवाह में तीव्रता आई है।
- उत्तरी अटलांटिक से उत्पन्न चक्रवातों की संख्या में वृद्धि हुई है।

आईपीसीसी की रिपोर्ट में इस बात की चेतावनी दी गई है कि समस्त विश्व के पास ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम करने के लिये मात्र 10 वर्ष का समय और है। यदि ऐसा नहीं होता है तो समस्त विश्व को इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा।
पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन आना एक प्राकृतिक घटना है। इसकी रफ्तार बहुत धीमी होती है। सैकड़ों और कभी-कभी हजारों साल बाद इसका पता लगता है। इसका मुख्य कारण धरती की निर्धारित कक्षा सूर्य के चारों ओर चक्कर काटने का पथ में धीरे-धीरे सूक्ष्म परिवर्तन आना है इससे धरती को मिलने वाली सौर उर्जा घटती बढ़ती रहती है। जो अंत में जलवायु परिवर्तन का कारण भी बनती है इसके आधार पर वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि अगला हिमयुग 5000 साल बाद प्रारंभ हो सकता है। उल्लेखनीय है कि उत्तरी यूरोप 16वीं और 19वीं शताब्दी के बीच हिम युग झेल चुकी है उस दौरान वहां जाड़ों में तापमान नदियों और नेहरे जम हो गई थी। लॉगइन कर मैदान की तरह खेल खेलते थे।
प्राकृतिक जलवायु परिवर्तन के कुछ और भी कारण है जैसे ज्वालामुखी विस्फोट सूरज द्वारा निष्कासन में परिवर्तन और वातावरण तथा सागर की आपसी क्रियाओं में परिवर्तन।
वैज्ञानिकों ने हिमक्रोड (आइस कोर) का अध्ययनकरके धरती के पिछले कई हजार सालों की औसत तापमान का पता लगाया है पिछले लगभग 100 सालों का तापमान तो सीधे रिकॉर्ड किया गया है पता लगा है कि सन 1880से अब तक धरती का औसत तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस पर चुका है अगर या बदलाओ समान रूप से धीरे-धीरे होता तो इसमें चिंता की कोई बात नहीं थी पर ऐसा नहीं हुआ।

जलवायु परिवर्तन: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जलवायु परिवर्तनों को जब हम भौतिकीय काल-क्रम के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो हिमयुग विशेष उल्लेखनीय प्रतीत होते हैं। पृथ्वी के जलवायु इतिहास में इन हिमयुगों का विशेष महत्त्व है। इन हिमयुगों ने सम्पूर्ण व्यवस्था का कायाकल्प कर दिया। अब तक ऐसे पाँच महत्त्वपूर्ण हिमयुग पृथ्वी पर आये हैं। इन हिमयुगों में पूर्व कैम्ब्रियन काल के दो हिमयुग, आर्डोविशियन काल के अन्त में एक, काबोनिफेरस-परमियन काल का एक तथा सेनोजोईक काल के हिमयुग महत्त्वपूर्ण हैं।
भारत की जलवायु पर प्रभाव:-
वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की सान्द्रता में वृद्धि होने पर परिणामस्वरूप पृथ्वी के हर क्षेत्र में जलवायु सामान रूप से उष्णतर नहीं हो रही है। कहीं अपेक्षाकृत अधिक उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों की जलवायु होने का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। उष्ण कटिबंधीय मैं 118 देश और इलाके आते हैं, यह अधिकांशत: विकासशील देश है। इनमें हमारा भारत देश भी शामिल है।
भारत के लिए ग्रीन हाउस गैसों का सान्द्रता में वृद्धि के भावों का आकलन करना कठिन नहीं है क्योंकि यहां मौसम का दैनिक अवलोकन करना और प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करने की परंपरा काफी पुरानी है।
पिछले 90 वर्ष (1901 से1989) के मौसम संबंधी आंकड़ों के विश्लेषण यह ज्ञात हुए हैं, इस दौरान वायुमंडल के ताप में लगभग 0.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है।
मानसून के महीने में (जून से सितम्बर तक) ताप बढ़ने के बजाय घटने लगता है (औसत ह्रास 0.3 डिग्री सेल्सियस) जबकि दिसंबर से लेकर फरवरी तक वृद्धि 0.7 डिग्री सेल्सियस तक अधिक हो जाती है। साथ ही देश के कुछ भागों में पश्चिमी तट दक्षिणी प्रायद्वीप के आन्तरिक भाग देश के उत्तर भारत और उत्तर पूरब भागों में ताप वृद्धि बहुत कम अथवा बिल्कुल भी नहीं होती है।इसके बारे में विलक्षण या बताया गया है कि सन् 1940 के बाद के दशक में उत्तरी गोलार्ध के ताप में होने वाली कमी भारत में नहीं हुई।

देश के विभिन्न भागों में स्थित 25 मौसम अवलोकन केंद्रों द्वारा 81 वषों (सन् 1875 से 1955 तक) एकत्रित आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में होने वाली वर्षा की मात्रा में कई स्थानीय परिवर्तन नहीं हो रहे हैं यद्यपि कहीं कहीं किसी वर्ष सूखा पड़ जाता है, तो किसी वर्ष अतिवृष्टि हो जाती है। यहां ना तो किसी क्षेत्र में वर्षा की मात्रा में स्थानीय रूप से कमी होते जाने के आसार नजर आए हैं और ना ही वृद्धि के।विश्व के अनेक स्थानों में विभिन्न मंडलों की मदद से सुपर कंप्यूटरों द्वारा आने वाली शताब्दी में भारत की जलवायु में होने वाली संभावित परिवर्तनों के बारे में जो अनुमान लगाया गया है वह कुछ इस प्रकार से हैं:-
- इक्कीसवीं सदी में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाने से ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण भारत की जलवायु भी कुछ गर्म हो जाएगी। वायुमंडल के ताप में सबसे अधिक वृद्धि (3.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक) भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी इलाके में होगी। पर अरब सागर और बंगाल की खाड़ी की ताप वृद्धि होगी लगभग 2.5 डिग्री सेल्सियस।
- वायुमंडल के ताप में वृद्धि होने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रभाव वर्षा के वितरण पर पड़ सकता है। वायुमंडल मे उष्णतर होते जाने से मानसून द्रोणी के उत्तर की ओर सरक जाने की सम्भावना है। यदि ऐसा हो गया तब भारतीय उपमहाद्वीप पर होने वाली वर्षा की मात्रा में वृद्धि हो सकती है। यह वृद्धि 6 मिमी. प्रति मास जैसी हो सकती है। सबसे अधिक वृद्धि के मध्य भारत क्षेत्र में होने की सम्भावना है। सर्दी की ऋतु में होने वाली वर्षा की मात्रा में वृद्धि हो सकती है। सबसे अधिक वृद्धि भारत के पूर्व तट पर होगी।
- बंगाल की खाड़ी में चक्रवात उस समय पैदा होते हैं, जब सागर सतह का ताप 27 डिग्री सेल्सियस या अधिक होता है। वायुमंडल के ताप में वृद्धि हो जाने से बंगाल की खाड़ी में सतह के पानी के ताप के बढ़ जाने की सम्भावना है। इसके फलस्वरूप अधिक विनाशकारी चक्रवातों के पैदा होने की सम्भावना बढ़ जाएगी।
- वायुमंडल के ताप में वृद्धि होने के प्रभाव हमारे निकटवर्ती सागरों पर भी पड़ेंगे। समझा जाता है कि भारत के वायुमंडल के ताप में वृद्धि हो जाने के फलस्वरूप वर्ष 2080 के आसपास तक अरब सागर में जल स्तर काफी ऊँचा उठ जाएगा। जल स्तर के केरल के तट पर सबसे कम (18 सेमी.) और गुजरात के तट पर सबसे अधिक (21 सेमी.) तक ऊपर उठ जाने की सम्भावना है।

जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न भारत के लिये सम्भावित समस्याएँ:
- ऐसा अनुमान है कि 21वीं शताब्दी के अन्त तक भारत में वायुमंडल का औसत तापमान 3 से 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। उत्तरी तथा पश्चिमी भाग में यह परिवर्तन अधिक होगा।
- गंगा नदी की घाटी के पश्चिमी भाग में वर्षा ऋतु में कमी होगी। दूसरी ओर गोदावरी तथा कृष्णा नदी की घाटियों में वर्षा ऋतु की लम्बाई बढ़ जाएगी। इसका परिणाम होगा कि देश के कुछ भाग में सूखे का प्रकोप बढ़ेगा। तो दूसरे क्षेत्रों में बाढ़ की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
- वर्षा ऋतु के उपरान्त बंगाल की खाड़ी में समुद्री तूफान अधिक आएँगे और ऐसे तूफानों के मामले में हवा की गति भी अधिक रहेगी। इसका अर्थ कि समुद्र तट पर बसने वाले लोगों के लिये समस्याएँ बढ़ेंगी।
- जलवायु में परिवर्तन के कारण बहुत सी फसलों का क्षेत्र बदल सकता है। साथ ही वर्षा पर आधारित फसल के मामले में उपज में कमी भी आएगी। ऐसी कमी गेहूँ तथा धान की फसल में अधिक स्पष्ट होगी। देश के गर्म भाग में फसल को नुकसान अधिक होगा।
- देश के कई भागों में वन समाप्त हो जाएँगे। आर परिणामस्वरूप देश में उपस्थित जैव-विविधता को काफी नुकसान होगा।
- कोंकण रेल को उदाहरण के रूप में लेकर जब अध्ययन हुआ तो यह तथ्य सामने आया कि वायुमंडल के तापमान के बढ़ने से भवनों को नुकसान होगा। साथ ही बिजली तथा ईंधन की खपत बढ़ेगी क्योंकि एयरकंडीशनर को अधिक इस्तेमाल में लाना होगा। पूरे देश में भी बिजली की माँग बढ़ेगी। उसे पूरा करने के लिये बिजली का उत्पादन बढ़ाना होगा।
- देश में मलेरिया के मामले बढ़ेंगे और वह अवधि जब मलेरिया का प्रकोप फैलता है अलग-अलग क्षेत्र में अधिक लम्बी होगी। अन्य बीमारियाँ जिनका सीधा सम्बन्ध तापमान से है वे भी बढ़ेंगी। हैजा, अतिसार, लू, हृदय रोग, फाइलेरिया, काला-जार इत्यादि भी अधिक होने की सम्भावना रहेगी।

जलवायु परिवर्तन के पूर्वानुमान के प्रयास:-
जलवायु परिवर्तन के पूर्वानुमान लगाने के लिये सबसे बड़ी आवश्यकता ग्रीन हाउस गैसों के निष्कासन के पूर्वानुमान है पर इसमें बेहद अनिश्चितता है। बढ़ती आबादी, औद्योगिक विकास, कृषि उत्पादन, ऊर्जा आवश्यकताएँ आदि भविष्य में क्या मोड़ लेंगी, कहना कठिन है, पर आईपीसीसी को कुछ निश्चित तो करना ही था। अतः तय हुआ कि जैसा का तैसा दशा को आधार मान कर पूर्वानुमान किया जाये। यानी ग्रीन हाउस गैसों के निष्कासन में कोई कमी नहीं आएगी सब कुछ जैसा का तैसा बेरोकटोक चलता रहेगा। फिर भी अनिश्चितताएँ मौजूद हैं। कारण कि हर गैस का एक प्राकृतिक चक्र होता है।
हर गैस के सन्दर्भ में हमें इसका पूरा ज्ञान नहीं है। जलवायु परिवर्तन के कारण इनमें क्या बदलाव आएगा यह कहना भी कठिन है। फिर भी विभिन्न ग्रीन हाउस गैसों के भविष्य की गणना की गई है और इसी आधार पर इनके द्वारा उत्पन्न होने वाली ऊष्मा दर को आँका गया है। इसके बाद विभिन्न जलवायु मॉडलों के माध्यम से तापमान में होने वाली बढ़त का अनुमान लगाया गया।

धरती की जलवायु का पूर्वानुमान लगाने के लिये विभिन्न गणितीय मॉडलों का सहारा लिया जाता है। ये मॉडल वायुमंडल, सागर और ग्लेशियरों व पर्वतों के बीच की जटिल प्रक्रियाओं की नकल करके जलवायु की भविष्यवाणी करती है। पहले साधारण मॉडलों से काम चलाया जाता था, पर अब सुपर कम्प्यूटरों के आगमन ने बेहद जटिल मॉडलों पर काम करना आसान कर दिया है।
आज कल ऐसे ही एक जटिल मॉडल के सहारे पूर्वानुमान लगाया जा रहा है। इसे सामान्य परिसंचारी मॉडल के नाम से जाना जाता है। इसमें धरती के कई सालों के दैनिक मौसम के आँकड़े भर कर भविष्य के मौसम की गणना की जाती है। साथ ही ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा और इसके प्रभाव का भी आकलन किया जाता है। इस तरह हम भविष्य की जलवायु के काफी करीब पहुँच जाते हैं।