आर्थिक विकास का संक्षिप्त विवरणः
वृद्धि एक प्रक्रिया है। तथा आर्थिक वृद्धि इस प्रक्रिया का एक हिस्सा है। बहुधा आर्थिक वृद्धि का मापन राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर या प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर के द्वारा किया जाता है।
विकास को वृद्धि से अलग माना जाता है। विकास से अभिप्राय है विधि और परिवर्तन विकास की प्रक्रिया के गुणात्मक आयाम। एक अर्थव्यवस्था की वृद्धि अर्थात राष्ट्रीय उत्पादन में होने वाली वृद्धि तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन वृद्धि से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।
पीटर हॉल के अनुसार , वृद्धि के बिना विकास नहीं हो सकता। आर्थिक वृद्धि बढ़ती हुई राष्ट्रीय एवं प्रति व्यक्ति आय को प्रभावित करती है जबकि विकास इससे आगे संरचनात्मक परिवर्तन संसाधन खोज एवं क्षेत्रीय मंत्रालय को न्यून करने से संबंधित है। देश व्यक्तियों की आर्थिक समृद्धि के वृद्धि को आर्थिक विकास कहते हैं। नीति निर्माण की दृष्टि से आर्थिक विकास उन सभी प्रयत्न को कहते हैं जिनका लक्ष्य किसी जन समुदाय की आर्थिक स्थिति और जीवन स्तर के सुधार के लिए होता है। वर्तमान युग की सबसे महत्वपूर्ण समस्या आर्थिक विकास की समस्या है। आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है । कई अर्थशास्त्री हैं जो विकास अर्थशास्त्र नामक अलग विषय की आवश्यकता से इनकार करने लगे हैं। बाल्डविन और मायर के अनुसार विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय में दीर्घकालिक वृद्धि होती है।

किंतु कुछ समय बाद वह स्वयं ही अपनी परिभाषा से असंतुष्ट दिखाई देता है वह महसूस करता है कि वह जो कुछ चाहता था ,वह कह नहीं पा रहा है, वह जहां जाना चाहता था, जा नहीं पा रहा है अजीब स्थिति है कि विकास का अर्थ स्पष्ट में बिना ही विकास योजनाएं, विकास मॉडल, विकास नीति रणनीति तैयार हो रही है तथा इसके नाम पर हर एक देश में अनेक प्रकार की गतिविधियां भी चल रही है। प्रो किंडल बरजर के अनुसार आर्थिक विकास में अधिक उत्पादक तथा तकनीकी एवं संस्थागत व्यवस्था में परिवर्तन से जुड़ी हुई बातें शामिल होती है।
तकनीकी दृष्टि से समृद्धि और विकास की धारणाओं में अंतर मानते हुए भी ज्यादातर अर्थशास्त्रियों ने व्यावहारिक दृष्टि से समृद्धि और विकास को एक ही अर्थ में परिभाषित किया है।
विकास के अर्थ शास्त्र में विकास के अर्थ एवं परिभाषा से भी बड़ा विवाद और भ्रम विकास के माप एवं शिक्षकों को लेकर है। विकास के माफिया शिक्षकों की विवाद सही विकास का अर्थ और परिभाषा का विवाद उत्पन्न हुआ है। यह प्रश्न उठता है कि क्या विकास को संख्यात्मक रूप से मापा जा सकता है? पश्चिमी अर्थशास्त्र ने माना है कि विकास को संख्यात्मक रूप से मापा जा सकता है। यह माल लेने के बाद दूसरा सवाल यह उत्पन्न होता है कि विकास को कैसे और किन मापदंडों से मापा जा सकता है कि किसी देश का विकास हुआ है या नहीं और कितना हुआ है। विकास के मुख्य सूचकों को हम मुख्यता दो भागों में वर्गीकृत करते हैंः
आर्थिक सूचक गैर आर्थिक सूचक।
आर्थिक सूचक
सकल घरेलू उत्पाद( जीडीपी)
अर्थशास्त्री जैसे बाल्डविन एवं मेयर ने वास्तविक जीडीपी को ही विकास का सर्वोत्तम सूचक माना है उसके अनुसार वास्तविक जीडीपी में वृद्धि दर के आधार पर हम विकास की दर को माफ सकते हैं। कुछ सीमा तक जीडीपी को विकास का उपयोगी मापदंड होते हुए भी इसे समुचित मापदंड नहीं माना जा सकता है क्योंकि इसमें कुछ कमियां हैंः
यदि किसी देश में जीडीपी में हुई वृद्धि की तुलना में जनसंख्या में अधिक दर से वृद्धि हो जाए तब प्रति व्यक्ति जीडीपी एवं वस्तुओं एवं सेवाओं की उपलब्धि पहले की तुलना में घट जाएगी। ऐसी स्थिति होने पर यदि हम घोषणा करें कि उस देश का विकास हुआ है तो यह हास्य पद बात साबित होगी।
यदि जीडीपी में वृद्धि केवल अमीरों की आय में वृद्धि के कारण हो तो इस प्रकार जीडी पी के आय वितरण के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाती है।
यदि जीडीपी की वृद्धि सामग्री के उत्पादन में वृद्धि के कारण हुई है तो भी इस स्थिति को विकास नहीं माना जा सकता।

प्रति व्यक्ति जीडीपी
अधिकांश अर्थशास्त्री प्रति व्यक्ति वास्तविक जीडीपी में वृद्धि को ही विकास का सर्वोत्तम व्यावहारिक एवं सुविधाजनक मापदंड मानते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ निस्सीम आपको स्वीकार किया है। प्रति व्यक्ति जीडीपी को विकास का मापदंड स्वीकार कर लेने पर जनसंख्या की वृद्धि के प्रभाव का भी विचार हो जाता है क्योंकि कुल जीडीपी में कुल जनसंख्या का भाग देने पर ही प्रति व्यक्ति जीडीपी की गणना की जाती है।
प्रति व्यक्ति उपभोगः कुछ विद्वानों का कहना है कि विकास का अंतिम लक्ष्य लोगों के रहन-सहन एवं जीवन स्तर में वृद्धि करना होता है। और रहन-सहन का स्तर उपभोग के लिए उपलब्ध वस्तुओं एवं सेवाओं की मात्रा पर निर्भर करता है। अदा प्रति व्यक्ति उपभोक्ता स्तर आर्थिक विकास का सर्वोत्तम मापदंड है किंतु इस माह की भी अपनी एक कठिनाई है। प्रतीक देश को भविष्य में अधिक उत्पादन करने के लिए पूंजी संचय और बचत की आवश्यकता होती है इसके लिए उपभोक्ता कम करना पड़ता है। यदि कोई देश अपने उपभोग को कम करके बचत और पूंजी निर्माण में वृद्धि कर रहा है तो प्रति देती उपभोक्ता स्तर को विकास का मापदंड माल लेने पर उस देश का आर्थिक विकास नहीं माना जाता है। परंतु यदि कोई देश वर्तमान में अपने उपभोग स्तर में तो काफी वृद्धि कर लेता है किंतु उसकी बचत और पूंजी निर्माण कम हो जाती है तो इससे भविष्य में उसके कुल उत्पादन में कमी आने की संभावना उत्पन्न हो जाती है प्रति व्यक्ति उपभोग अस्तर के मापदंड के अनुसार उस देश का आर्थिक विकास हुआ है यह कहना सही होगा।
आर्थिक कल्याणः कुछ विद्वानों के अनुसार आर्थिक कल्याणी आर्थिक विकास का सर्वोत्तम मापदंड है आर्थिक कल्याण का विचार करते समय हम केवल यह नहीं देखते कि क्या और कितना उत्पादन किया जा रहा है बल्कि इसके अंतर्गत यह भी देखते हैं कि यह किस प्रकार उत्पादित किया जा रहा है और इसका बटवारा किस प्रकार हो रहा है। आर्थिक कल्याण में अभी देखते हैं कि देश में जिन जिन वस्तुओं का उत्पादन हो रहा है उसका तुलनात्मक महत्व कितना है? इससे हमें मूल्य आत्मक निर्णय लेने में काफी आसानी होगी।
समायोजित सकल राष्ट्रीय उत्पाद मापः विभिन्न देशों के बीच तुलनात्मक अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से कुछ अर्थशास्त्रियों ने समायोजित सकल राष्ट्रीय उत्पाद को विकास के मापदंड के रूप में स्वीकार करने का सुझाव दिया है। इस माह के माध्यम से राष्ट्रीय आय के लेखों को समायोजित करने के लिए ट्रेन शक्ति क्षमता की अवधारणा का प्रयोग किया जाता है। किंतु इस मापदंड में भी राष्ट्रीय आय के माफ की सभी सीमाएं तो होती है उसके अलावा राष्ट्रीय आय का समायोजन करना ही कोई सरल काम नहीं है उसकी अपनी कठिनाई और सीमाएं भी होती है।

गैर आर्थिक सूचकः सामाजिक सूचक में मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताओं के रूप में बताया गया है। मुख्य सामाजिक सूचक में यह शामिल है- जीवन प्रत्याशा, कैलोरी पान, शिशु मृत्यु दर, विद्यालयों में प्राथमिक कक्षाओं में भर्ती संख्या, आवाज पोषण, स्वास्थ तथा ऐसे ही वे सभी चीजें जो मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं से संबंध रखती है।
सामाजिक लेखा प्रणालीः इस प्रणाली को इसटोन एवं सीएस ने प्रतिपादित किया था। इसी क्रम में पियट एवं राउंड में भी सोशल एकाउंटिंग मैट्रिक्स के नाम से एक सूचक दिया था। किंतु इस प्रकार की प्रणाली की सबसे बड़ी कमी विश्वसनीय एवं उपयोगी आंकड़ों का ना मिल पाना है। इसके अलावा इसमें सामाजिक विकास के सब पहलुओं को सम्मिलित कर पाना भी कठिन होता है।
संयुक्त सामाजिक विकास सूचकः इस सूचक का विकास सामाजिक विकास पर संयुक्त राष्ट्र के शोध संस्थान द्वारा किया गया था। प्रारंभ में 73 सूचको को जांचा गया जिनमें से 16 सूचकों का चयन किया गयाः
जन्म के समय जीवन प्रत्याशा
20000 या उससे अधिक के क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि का प्रतिशत
प्रति व्यक्ति प्रतिदिन पशु प्रोटीन का उपभोग
प्राथमिक एवं द्वितीयक स्तर पर कुल मिलाकर भर्ती विद्यार्थियों की संख्या
व्यावसायिक भर्ती अनुपात
प्रति कमरा औसत व्यक्तियों की संख्या
प्रति 1000 जनसंख्या पर समाचार पत्र
बिजली गैस पानी आदि से युक्त आर्थिक रूप से सक्रिय जनसंख्या का प्रतिशत
प्रति पुरुष कृषि श्रमिक कृषि उत्पादन
कृषि में व्यस्त पुरुष श्रमिकों का प्रतिशत
प्रति व्यक्ति कितने किलो वाट बिजली उपभोग होता है
प्रति व्यक्ति कितने किलोग्राम स्टील उपभोग होता है
प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपभोग
विनिर्माण कार्यों से प्राप्त सकल घरेलू उत्पाद
आर्थिक दृष्टि से सक्रिय कुल जनसंख्या में वेतन एवं मजदूरी पर कार्य करने वालों का प्रतिशत

भौतिक गुणवत्ता का जीवन सूचकः विकास के इस सूचक को 1979 में मोरिस डी मोरिस ने प्रतिपादित किया था इसके अंतर्गत तीन सूचकों का प्रयोग करने की बात कही गई थी।
1 वर्ष की आयु पर जीवन प्रत्याशा
शिशु मृत्यु
साक्षरता
यह सूचक भी अधूरा है इसमें अनेक सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक सूचक को शामिल नहीं किया गया है जैसे सुरक्षा, न्याय मानव अधिकार आदि
आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकः
आर्थिक तत्व
गैर आर्थिक तत्व
आर्थिक तत्व
प्राकृतिक साधनः अधिक साधनों से हमारा अभिप्राय उन सभी भौतिक अथवा नैसर्गिक साधनों से है जो प्रकृति की ओर से एक देश को उपहार स्वरूप में प्राप्त होते हैं। किसी देश में उपलब्ध होने वाली भूमि, खनिज पदार्थ, जलसंपदा, वन संपत्ति , वर्षा एव जलवायु, भौगोलिक स्थिति और प्राकृतिक बंदरगाह उस देश के प्राकृतिक साधन माने जाते हैं। यह प्राकृतिक साधन देश के आर्थिक विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
डी गिल के अनुसार,” जनसंख्या नियंत्रण की पूर्ति की भांति प्राकृतिक साधन भी एक देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। उपजाऊ भूमि और जल के अभाव में कृषि का विधिवत विकास नहीं हो पाता। लोहा ,कोयला और अन्य खनिज संपदा के ना होने पर औद्योगिककरण का सपना भी अधूरा ही रहता है। वह प्राकृतिक साधनों का किसी देश के आर्थिक विकास को सीमित करने अथवा प्रोत्साहित करने में एक महत्वपूर्ण स्थान होता है”।

प्राकृतिक साधनों के बारे में 2 बातें अत्यंत आवश्यक है पहली प्रकृति प्रदत्त साधन सदैव के लिए सीमित और निश्चित होते हैं मानवीय प्रयासों से उन्हें खोजा तो जा सकता है परंतु उनका नव निर्माण नहीं किया जा सकता।
गिल महोदय का कहना है कि जनसंख्या बढ़ सकती है उपकरणों और मशीनों का निर्माण किया जा सकता है परंतु प्रकृति द्वारा दिए गए प्राकृतिक उपहार सदैव के लिए सीमित एवं निश्चित होते हैं।
दूसरी यह है कि यह सोच लेना भयंकर साबित होगा कि जिस देश में जितने अधिक प्राकृतिक साधन होंगे उस देश का विकास उतना ही अधिक होगा। आर्थिक विकास के लिए प्राकृतिक साधनों की केवल बाहुल्य ता ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उचित ढंग से उपयोग किया जाना अधिक आवश्यक है।
मानवीय साधनः माननीय साधनों से हमारा अभिप्राय किसी देश में निवास करने वाली जनसंख्या से है। श्रम प्राचीन काल से ही उत्पादन का एक महत्वपूर्ण एवं सक्रिय साधन माना जाता है। एडम स्मिथ के अनुसार प्रत्येक देश का वार्षिक श्रम वह कोस है जो मूल रूप से जीवन की अनिवार्यता एवं सुविधाओं की पूर्ति करता है। मानवीय श्रम ही वह शक्ति है जिस पर देश का आर्थिक विकास निर्भर करता है। प्राया यह कहा जाता है कि जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास की पूर्व आवश्यकता है लेकिन तेज गति से होने वाली जनसंख्या का बढ़ना तभी तक श्रेष्ठ कर माना जाएगा जब तक कि उनका प्रति व्यक्ति उत्पादन पर कोई विपरीत प्रभाव ना परने लगे। दूसरे शब्दों में की जनसंख्या और उसका आकार वृद्धि दर संरचना और कार्यक्षमता उस देश के आर्थिक विकास पर अत्यंत गहरा प्रभाव छोड़ता है। अति आवश्यकता इस बात की है कि आर्थिक विकास के लिए माननीय शक्ति का सही ढंग से उपयोग करने हेतु जनाधिक्य पर नियंत्रण लगाया जाए, श्रम शक्ति में उत्पादकता एवं गतिशीलता बढ़ाते हुए उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन किया जाए, मानवीय पूंजी निर्माण पर बल दिया जाए।
पूंजी संचयः प्रोफेसर कुजनेट्स के अनुसार पूंजी और पूंजी का संचय आर्थिक विकास की एक अनिवार्य आवश्यकता है। जब तक देश में पर्याप्त मात्रा में पूंजी और पूंजी निर्माण नहीं होगा तब तक आर्थिक विकास का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता है। प्रोफेसर नकाशे का कहना है कि पूंजी निर्माण आर्थिक विकास की एक पूर्व आवश्यकता है। देश के आर्थिक विकास के लिए एक बड़ी मात्रा में पूंजी और पूंजीगत वस्तुओं जैसे भवन, कल कारखाने, मशीनें, यंत्र और उपकरण, बांध, रेल, सरक, कच्चा माल इंदन की आवश्यकता होती है जिस देश के पास यह साधन जितने अधिक होंगे आर्थिक विकास उतना ही अधिक होगा। आज विकसित देशों की प्रगति का मुख्य कारण देशों में पूंजी निर्माण की ऊंची दर को बताया जाता है जबकि अल्प विकसित देशों में पूंजी निर्माण की धीमी दर के कारण उनका आर्थिक विकास आज भी अवरुद्ध अवस्था में पड़ा हुआ है। आज के इस औद्योगिक उप का सूत्र बात करने वाले कारकों में से एक प्रमुख कारक है पूंजी संचय।
तकनीकी प्रगतिः प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रोफेसर शुंपीटर का कहना है कि ताश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक तकनीकी प्रगति है। तकनीकी ज्ञान की प्रगति को एक ऐसे नए ज्ञान के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसके कारण या तो वर्तमान वस्तुएं कम लागत पर उत्पन्न की जा सके या जिनके फलस्वरूप नहीं वस्तुओं का उत्पादन संभव किया जा सके। तकनीकी ज्ञान उत्पादन की विधियों में मौलिक परिवर्तन लाकर आर्थिक विकास के कार्य को गति प्रदान करता है। विकसित देशों की विकास बेदी इधर बुनियादी रूप से उनके द्वारा की गई तकनीकी खोज पर आधारित रहती है।

उद्यमशीलताः नए अविष्कार,तकनीकी ज्ञान एवं नई खोजों का आर्थिक विकास की दृष्टि से तब तक कोई महत्व नहीं जब तक कि उन्हें व्यवहारिक रूप प्रदान न कर दिया जाए और यह काम समाज के साथ ही वर्ग को करना होता है। प्रोफेसर गिल का कहना है कि तकनीकी ज्ञान आर्थिक दृष्टि से तभी उपयोगी हो सकता है जब उसे नवप्रवर्तन के रूप में प्रयोग किया जाए और जिसकी पहल समाज के साथ ही वर्ग द्वारा की जाए। वास्तव में किसी देश का आर्थिक विकास विशेष रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश में किस प्रकार केसाहसी है।
प्रोफेसर ब्राउज़र के अनुसार ना तो अविष्कार की योग्यता और ना केवल अविष्कार ही आर्थिक विकास को संभव बनाते हैं बल्कि यह तो उन्हें कार्य रूप में परिणत करने के लिए प्रबल इच्छा और जोखिम उठाने की क्षमता पर निर्भर करता है। देशों की आर्थिक प्रगति का मुख्य कारण इन देशों में साथियों का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना है जबकि इसके विपरीत पिछड़े हुए देशों में उद्यमशीलता का अभाव और जोखिम उठाने की क्षमता ना होने के कारण इन देशों का आर्थिक विकास संभव नहीं हो पाया है।
विदेशी पूंजीः अल्पविकसित देश के आर्थिक विकास का एक अन्य निर्धारक तत्व विदेशी पूंजी है। विदेशी पूंजी के प्रयोग के अभाव में कोई भी अल्पविकसित देश आर्थिक विकास नहीं कर सकता। इसका कारण क्या है कि अल्प विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय के कम होने के कारण घरेलू बचत की दर काफी कम होती है का जीवन स्तर इतना नीचा होता है कि उनके द्वारा बचत करना संभव नहीं हो पाता। घरेलू बचत की इस कमी को विदेशी पूंजी के आया द्वारा पूरा किया जाता है। विदेशी पूंजी के आयात का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि यह अपने साथ तकनीकी ज्ञान और पूंजीगत उपकरणों को भी लाती है।

गैर आर्थिक कारणः
सामाजिक तथा संस्थागत तत्वः मायर एवं बाल्डविन के अनुसार विकास के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आवश्यकताओं का होना उसी प्रकार जरूरी है जिस प्रकार आर्थिक आवश्यकताओं का इस कारण यह है कि राष्ट्रीय विनियोग नीति पर राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आर्थिक प्रवृत्तियों का संयुक्त प्रभाव पड़ता है किसी देश का आर्थिक विकास मूल रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि लोगों में नूतन मूल्यों और संस्थाओं को अपनाने की कितनी प्रबल इच्छा है।। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक उपयुक्त वातावरण की अनुपस्थिति में आर्थिक प्रगति असंभव है। आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है कि लोगों में प्रगति की प्रबल इच्छा हो और वह उसके लिए हर संभव प्रयास करने के लिए तत्पर हो। वे अपने आप को नए विचारों के अनुकूल ढालने के लिए जागरुक हो और उनकी सामाजिक आर्थिक राजनीतिक और वैधानिक संस्था इन इच्छाओं को कार्य रूप में परिणत करने में सहायक सिद्ध हो। अल्बर्ट का कहना है कि आर्थिक विकास के लिए समाज एवं अर्थव्यवस्था की संरचना वांछित परिवर्तनों की संभावना की दृष्टि से खुली होनी चाहिए। अल्प विकसित देशों के आर्थिक पिछड़ेपन का मुख्य कारण वास्तव में यह सामाजिक और संस्थागत तत्व ही हैं। इन देशों में जाति प्रथा, छुआछूत, संयुक्त परिवार प्रणाली, अंधविश्वास, धार्मिक पाखंड जैसे तत्वों ने आर्थिक विकास के मार्ग पर सदैव बाधाएं उत्पन्न की है। इन देशों का आर्थिक विकास तब तक संभव नहीं होगा जब तक कि सामाजिक सांस्कृतिकऔर और धार्मिक संस्थाओं का नए सिरे से नवनिर्माण ना कर दिया जाए।
स्थिर तथा कुशल प्रशासनः किसी देश का आर्थिक विकास बहुत एक सीमा तक उस देश के स्थिर और कुशल प्रशासन पर भी निर्भर करता है। यदि देश में शांति और सुरक्षा पाई जाती है तथा न्याय की उचित व्यवस्था है तो लोगों में काम करने तथा बचत करने की इच्छा पैदा होगी और फल स्वरुप आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलेगा इसके विपरीत यदि देश में राजनैतिक अस्थिरता है अर्थात सरकारी बार-बार बदलती रहती है तथा आंतरिक क्षेत्र में अशांति का वातावरण व्याप्त है तो इससे विनियोग संबंधी निर्णय पर बुरा असर पड़ेगा। सरकार की कुशल प्रशासन व्यवस्था और उसके कर्मचारियों में निपुणता ईमानदारी एवं उत्तरदायित्व की भावना आर्थिक विकास की पहली शर्त है। प्रशासनिक व्यवस्था के सुचारू एवं सुदृढ़ होने पर जन सहयोग बढ़ता है विकास कार्यक्रम सफल होते हैं और नीतियों का निर्धारण और उनका निष्पादन सरलता के साथ संभव हो जाता है।
अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियांः आर्थिक विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का अनुकूलन होना भी आवश्यक है। विश्व मंच पर राजनैतिक शांति बने रहने पर ही विकास के 9 निर्माण कार्य संभव हो सकते हैं अशांति और युद्धों किधर जाती ज्वाला में विकासात्मक नहीं बल्कि विध्वंस आत्मक प्रवृतियां जन्म लेती हैं। अल्प विकसित देशों में पूंजी और पूंजीगत सामान भारी मशीनें तथा तकनीकी ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है। सभी आवश्यकताओं की आपूर्ति विकसित राष्ट्रों द्वारा जब तक नहीं की जाएगी तब तक इन देशों का आर्थिक विकास अवरुद्ध बना रहेगा। राजनीतिक स्थिरता, विकसित देशों की नीति, का रूप विदेशी व्यापार की संभावनाएं और विदेशी पूंजी का प्रवाह आदि आर्थिक विकास को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित करता है।