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भारत में पाई जाने वाली मिट्टी एवं उनके प्रकार का विवरण

मिट्टियां भारतीय किसान की अमूल संपदा है। जिस प्रदेश का संपूर्ण कृषि उत्पादन निर्भर करता है। मैदा के अध्ययन को मृदा विज्ञान कहा जाता है। पृथ्वी के धरातल पर मिट्टी असंगठित पदार्थों की एक परत है। जो अच्छे और विघटन के कारकों के माध्यम से चट्टानों और जैव पदार्थों से बने हैं। यह पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत होती है इसमें कई परत होते हैं, सबसे ऊपरी परत में छोटे मिट्टी के कण, गले हुए पौधे जीवों के अवशेष होते हैं यह परत फसलों की पैदावार के लिए महत्वपूर्ण होती है। दूसरी परत महीन कणों जैसे चिकनी मिट्टी की होती है और नीचे की विखंडित चट्टानों और मिट्टी का मिश्रण होती है तथा आखिरी परत मैं अविखंडित सख्त चटाने होती है। देश के सभी भागों में मिट्टी की गहराई और सामान रूप में पाई जाती है यह कुछ सेंटीमीटर से लेकर 30 सेंटीमीटर तक गहरी हो सकती है।


हर मिट्टी की अपनी विशेषता होती है अपनी विशिष्ट भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताओं के माध्यम से विभिन्न प्रकार की फसलों को लाभ प्रदान करती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 1986 में देश में छः प्रमुख मिट्टियों की पहचान की है-
जलोढ़ मिट्टी-उत्तर भारत के पश्चिम में पंजाब से लेकर सम्पूर्ण उत्तरी विशाल मैदान को आवृत करते हुए गंगा नदी के डेल्टा क्षेत्र तक फैली है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं ह्यूमस की कमी होती है, परंतु इसमें पोटाश तथा कैल्सियम की प्रचुरता होती है। भारत के लगभग43.4 प्रतिशत क्षेत्र पर इस मिट्टी का विस्तार है। इस मिट्टी में गन्ना, गेहूं, चावल, तंबाकू आदि की खेती की जाती है। यह मिट्टी हल्के भूरे रंग की होती है तथा तीन प्रकार की होती है तराई, बांगर और खादर।


काली मिट्टी- इस मिट्टी का विस्तार भारत के लगभग 15% क्षेत्रफल पर है। यह महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तमिल नाडु मैं ढक्कन लावा के अपक्षय से होता है। इस मिट्टी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह नमी बहुत अधिक समय तक बनाए रखती है। इस मिट्टी को कपास की मिट्टी भी कहते हैं इस मिट्टी का रंग काला होने के कारण इसमें कुछ विशिष्ट लवणों जैसे लोहा एवं एलुमिनियम के टिटानी फेरस मैग्नाइट आदि की उपस्थिति है। या मिट्टी काफी उपजाऊ होती है इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं जीवाश्म की कमी होती है। यह मिट्टी कपास के लिए उत्तम है इसके अलावा यह मूंगफली, तंबाकू, गन्ना, दलहन एवं तिलहन के लिए अनुकूल है। इसमें जल धारण क्षमता भी अधिक होती है।
लाल मिट्टी- इस मिट्टी का विस्तार भारत के लगभग 18% क्षेत्रफल पर है। इस मिट्टी का निर्माण ग्रेनाइट तथा नीस जैसी रूपांतरित चट्टानों के विखंडन से हुआ है। लोहे की ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण इसका रंग लाल होता है। यह मिट्टी तमिल नाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा एवं झारखंड के व्यापक क्षेत्रों में पाई जाती है। इस मिट्टी में लौह तत्व, एलुमिनियम अधिक होते हैं किंतु जीवांश पदार्थ, नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की कमी होती है। चूना का इस्तेमाल करके इस मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ाई जा सकती है। इसमें मुख्यता मोटे अनाज, दलहन तिलहन की खेती की जाती है।


लैटेराइट मिट्टी- इस मिट्टी का निर्माण मानसूनी जलवायु की आद्रता क्रमिक परिवर्तन के परिणाम स्वरूप उत्पन्न विशेष परिस्थितियों में होता है। इनका स्वरूप ईट जैसा होता है भीगने पर यह कोमल एवं सूखने पर कठोर हो जाते हैं। अम्लीय होने के कारण यह मिट्टी चाय की कृषि के लिए उत्तम मानी जाती है। यहमिट्टी मुख्य रूप से पूर्वी एवं पश्चिमी घाट, केरल, कर्नाटक, असम के कुछ क्षेत्र एवं मेघालय के पठार पर पाई जाती है इसका सर्वाधिक विस्तार केरल में है। इस मिट्टी में चूना, नाइट्रोजन, पोटाश एवं हिम्मत की कमी होती है।
पर्वतीय मिट्टी- यह मिट्टी मुख्यता हिमालय, पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट तथा प्रायद्वीपीय भारत की अन्य पर्वत श्रेणियों पर पाई जाती है। इस मिट्टी में जीवांश की अधिकता होती है इसकी उर्वरा शक्ति कम होती है। यह मिट्टी चाय, कहवा, मसाले एवं फलों आदि के लिए अधिक उपयुक्त है जनजातियों द्वारा झूम कृषि इसी मिट्टी में की जाती है। पर्वतीय डालो पर विकसित होने के कारण इस मिट्टी की परत पतली होती है।
मरुस्थलीय मिट्टी- मरुस्थलीय मिट्टी का विस्तार राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, हरियाणा एवं दक्षिणी पंजाब में है। यह वास्तव में बलुई मिट्टी है जिसमें नाइट्रोजन एवं जैविक पदार्थ की कमी एवं कैल्शियम कार्बोनेट की भिन्न मात्रा पाई जाती है। इसमें केवल मिलेट, बाजरा, ज्वार तथा मोटे अनाज ही उगाए जाते हैं।
मिट्टियों के निर्माण में सहायक तत्व
मौलिक चट्टाने- सैलो के कानों को अक्षय की रासायनिक व भौतिक क्रियाओं द्वारा पदार्थ में परिणत कर दिया जाता है ओड़िया पदार्थ मिट्टियों के निर्माण का अंग होता है। नवीन मिट्टियों में उन मौलिक पदार्थों का प्रभाव अधिक दिखाई देता है प्राचीन मिट्टियों में अन्य प्रकार के मिश्रण ओं के कारण मौलिक चट्टानों का प्रभाव कम हो जाता है।


धरातलीय संरचना- मिट्टी के निर्माण में मौलिक चट्टानों के पश्चात सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है धरातलीय संरचना। अधिक दाल वाली भूमि में अपरदन अधिकता से होता है, इसी कारण स्त्रियों ढाल वाले धरातल पर मिट्टी की पतली परत पाई जाती है परंतु कम ढाल वाले भागों में अपरदन कम 3 गति से होने के कारण ऐसे ढाबों पर मिट्टी की मोटी परत जमा हो जाती है भूमि निरंतर जमाव से मिट्टी एकत्रित होती रहती है।
समय- मिट्टी के निर्माण में समय का बहुत ही महत्व है। जिन मित्रों का विकास शीघ्र ही हुआ हो उन्हें युवा मिट्टियांकहते हैं। हिमनद के द्वारा इस प्रकार की युवा मिट्टियों का निर्माण होता है। नदी जालौर के जमाव से जो मिट्टियां बनती हैं उन्हें अविकसित मिट्टियां अथवा नवजात मिट्टियां कहते हैं। नहीं अथवा युवा मिट्टी को परिपक्व होने में जो समय लगता है वह बहुत ही महत्वपूर्ण होता है तथा इसकी उम्र वर्षों की उम्र भी नहीं दी जा सकती। परिपक्वता किधर अनेक तथ्यों पर निर्भर करती है। आंध्र प्रदेश की मिट्टियों को परिपक्व होने में हजारों वर्ष लग जाते हैं जबकि उष्णकटिबंधीय प्रदेश की मिट्टियां कई लाख वर्ष पुरानी है।
जलवायु- मिट्टी के विकास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक जलवायु है। आद्रता, टॉप, पवन तीनों ही तत्व मिट्टी के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। जल मिट्टी की रासायनिक और जैविक क्रियाओं के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण तत्व है। इन पर मुख्य रूप से वर्षा और पवनों का प्रभाव पड़ता है।
वर्षा का प्रभाव- अधिक वर्षा से मिट्टी की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है उसमें लीचिंग क्रिया द्वारा खनिज तथा पोषक तत्व धरातल के नीचे चले जाते हैं इस प्रकार की मिट्टियां विश्वत रेखा वाले प्रदेशों में पाई जाती है। इस प्रकार की मिट्टियां कृषि के लिए उपयोगी होती है।


जैविक क्रियाएं- मिट्टी के निर्माण में जैविक क्रियाएं भी सहायता करती है। पशु एवं वनस्पति के द्वारा मिट्टियों के रूप में परिवर्तन होता है। वनस्पतियों से जीवांश मिलता है। जिन बेटियों में वनस्पति अंक अधिक मात्रा में पाया जाता है उनका रंग तथा स्वरूप परिवर्तित हो जाता है, वे उर्वरा मिट्टियां होती हैं। पशु और यूवी मिट्टियों का रूप बदलने में सहायता करते हैं।
मिट्टी के कानों की बनावट के आधार पर उनका वर्गीकरण-
बालू- बालू के कण 1 मिमी से0.05 मिली मीटर के व्यास के होते हैं, जिस मिट्टी में इस प्रकार के कणों की मात्रा की प्रतिशत अथवा इससे अधिक हो और मृतिका अथवा चिकनी मिट्टी का प्रतिशत 20% अथवा उससे कम हो उसे बालू कहते हैं।
बलुई दोमट- चिकनी मिट्टी का प्रतिशत अधिक पाया जाता है। यह बलुई दोमट मिट्टी कहलाती है। इसमें 20 से 50% तक बालू के कण होते हैं और 50 से 80% तक चिकनी मिट्टी के कण होते हैं।
दोमट- इस प्रकार की मिट्टियों में चिकनी मिट्टी, गाद और बालू के कणों का मिश्रण पाया जाता है। दोमट में चिकनी मिट्टी का प्रतिशत 20 तथा का प्रतिशत 20 से 40 होता है। गेम वीडियो में गार्ड की मात्रा अधिक होती है उसे गार्ड और जिसमें चिकनी मिट्टी के कणों की मात्रा अधिक होती है उसे मृतिका दोमट कहते हैं।
चिकनी मिट्टी अथवा मृतिका- जिन नीतियों में चिकनी मिट्टी अथवा मृतिका के कणों की अधिकता होती है उसे मृतिका अथवा चिकनी मिट्टी कहते हैं। मेथी का कानों की बनावट 0.005 मिली मीटर के व्यास में भी कम होती है। यह सबसे बारीक कण होते हैं। ऐसी मिट्टियों में मृतिका तथा चिकनी मिट्टी की अधिकता पाई जाती है। चिकनी मिट्टी अथवा मृतिका में पानी अधिक दिनों तक सुरक्षित रहता है।
रितिक पर्यावरण का एक प्रमुख तत्व है जो कि जल के साथ मिलकर मानव के भोजन पानी निवास एवं वस्त्र जैसी अनिवार्य आवश्यकताएं पूरी करती है।


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