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1.औद्योगिक नीति से आप क्या समझते हैं?
2.भारत में औद्योगिक नीति का विकास
3.औद्योगिक नीति 1948, 1956 , 1977, 1985तथा 1991 का उल्लेख करें!
4. भारत की औद्योगिक नीति 1991 का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें!
5.सूक्ष्म और मध्यम उद्योग से आप क्या समझते हैं इनकी मुख्य समस्याओं का उल्लेख करें?
6.भारत में उदारीकरण में सार्वजनिक क्षेत्र में की भूमिका क्या है?
7. सार्वजनिक उद्यमों का विनिवेश और निजी करण से आप क्या समझते हैं?

औद्योगिक नीति से अर्थ सरकार के उस चिंतन से है जिसके अंतर्गत औद्योगिक विकास का स्वरूप निश्चित किया जाता है तथा जिसको प्राप्त करने के लिए नियम और सिद्धांतों को लागू किया जाता है। यह एक ऐसी व्यापक धारणा है जिसमें दो तत्वों का मिश्रण होता है। प्रथम औद्योगिक विकास एवं संरचना के संबंध में सरकार का दृष्टिकोण दर्शन क्या रहेगा दूसरा इस दृष्टिकोण की प्राप्ति के लिए औद्योगिक इकाइयों को नियंत्रित एवं नियमित करने की दृष्टि से किन सिद्धांतों प्रक्रिया नियम और नियमों का पालन होगा। औद्योगिक नीति में उन सभी नीति सिद्धांतों एवं विधियों का विवरण होता है जिन्हें उद्योगों के विकास के लिए अपनाया जाता है प्रीति विशेष रूप से भावी उद्योगों के विकास प्रबंध और स्थापना से संबंधित होती है। इस नीति को बनाते समय में देश का आर्थिक ढांचा माजिद व्यवस्था उपलब्ध प्राकृतिक एवं तकनीकी साधन और सरकारी चिंतन का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है। इन औद्योगिक नीति व औद्योगिक विकास के लिए सुनिश्चित ,सुनियोजित एवं प्रेरणादायक और जोगी की नीति की आवश्यकता होती है क्योंकि वह देश के औद्योगिक विकास को सुनियोजित कर देश व और अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करता है। वह राष्ट्र को मार्गदर्शन और निर्देशन देता है, सरकार को निश्चित कार्यक्रम बनाने में मदद करता है तथा इसके साथ ही जनसाधारण को अपनी निश्चित जीविका का साधन बनाने में सहायता प्रदान करता है। भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए औद्योगिक नीति काफी महत्वपूर्ण है कि यहां नियोजित अर्थव्यवस्था के माध्यम से औद्योगिक विकास होता है क्योंकि देश में प्राकृतिक साधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है लेकिन उनका उचित विदोहन नहीं हो रहा है यहां प्रति व्यक्ति आय कम होने के कारण पूंजी निर्माण की दर भी कम है तथा उपलब्ध पूंजी सीमित मात्रा में है आता हमें चाहिए कि हम इसका उचित प्रयोग करें । देश का संतुलित विकास करने के लिए संसाधनों को उचित दिशा में प्रवाहित करने के लिए, एकाधिकार, वितरण की व्यवस्था सुधारने के लिए युक्त हितों को समाप्त करने तथा नियंत्रित करने के लिए कुछ गिने हुए व्यक्तियों के हाथ में धन अथवा आर्थिक सत्ता के केंद्रीकरण को रोकने के लिए, असमानता घटाने के लिए, बेरोजगारी की समस्या को हल करने के लिए, विदेशों पर निर्भरता समाप्त करने के लिए सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए एक उपयुक्त एवं स्पष्ट औद्योगिक नीति की आवश्यकता होती है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले भारत में कृषि औद्योगिक नीति की घोषणा नहीं की गई क्योंकि भारत में ब्रिटिश सरकार का शासन था तथा उनकी नीति ब्रिटेन के हितों से प्रेरित थी और वह भारत में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन नहीं देना चाहते थे। महायुद्ध के अनुभव के बाद सरकार ने देश में औद्योगिक नीति की आवश्यकता महसूस की जिसके फलस्वरूप सन 1944 में नियोजन तथा पुणे निर्माण विभाग की स्थापना की गई। इस विभाग के अध्यक्ष सर आद्रशीर दयाल द्वारा 1945 को एक औद्योगिक नीति विवरण पत्र जारी किया गया लेकिन व्यवहार में उसको क्रियान्वित नहीं किया जा सका। ब्रिटिश सरकार ने भारत विकास के प्रति उदासीनता की नीति अपनाई और उनका सदैव या प्रयास रहा कि भारत कच्चे माल का निर्यातक और निर्मित माल का आयातक बना रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश में तिरु आर्थिक विकास के लिए औद्योगिक नीति की घोषणा करना आवश्यक समझा गया जिसके लिए भारत सरकार ने दिसंबर 1947 में एक औद्योगिक सम्मेलन का आयोजन किया जिसका यह निष्कर्ष निकला की भारत सरकार को जल्दी एक स्पष्ट औद्योगिक नीति की घोषणा करनी चाहिए। सम्मेलन की सिफारिश पर भारत सरकार द्वारा 6 अप्रैल 1948 को तत्कालीन उद्योग एवं पूर्ति मंत्री डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा मिश्रित अर्थव्यवस्था के आधार पर तैयार की गई प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा की गई।

औद्योगिक नीति 1948ः स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 6 अप्रैल सन 1948 को प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा की गई इस नीति में आगामी कुछ वर्षों तक विद्यमान औद्योगिक इकाइयों का राष्ट्रीयकरण ना करने और सरकारी स्वामित्व में नई औद्योगिक इकाइयां स्थापित करने का प्रावधान करने का निर्णय लिया गया। इस प्रकार प्रथम औद्योगिक नीति में निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ कार्य करने पर भी जोड़ दिया गया। इस नीति के अंतर्गत उद्योगों को चार भागों में विभाजित किया गया ,पूर्णतया सरकारी क्षेत्रः इस क्षेत्र में सुरक्षात्मक एवं राष्ट्रीय हित के लिए प्रमुख तीन उद्योग शस्त्र निर्माण और युद्ध सामग्री परमाणु शक्ति के उत्पादन और नियंत्रण तथा रेल यातायात के स्वामित्व और प्रबंधन को रखा गया एवं इसके प्रबंध को पूर्णतया केंद्रीय सरकार के एकाधिकार क्षेत्र में भेज दिया गया। ,अधिकांश सरकारी क्षेत्रः स्वर्ग में कोयला लोहा एवं इस्पात, वायुयान निर्माण, पोत निर्माण, टेलीफोन तथा खनिज तेल उद्योगों को शामिल किया गया। इन उद्योगों से संबंधित जो औद्योगिक इकाइयां वर्तमान में निजी क्षेत्र में हैं उन्हें अगले 10 वर्षों तक निजी क्षेत्र में रहने दिए जाने की अनुमति मिली परंतु इससे संबंधित नई औद्योगिक इकाइयां स्थापित करने का अधिकार पूर्णतया सरकारी क्षेत्र को सौंप दिया गया।, सरकार द्वारा नियमित क्षेत्रः राष्ट्रीय महत्व के कुछ आधारभूत उद्योगो एवं कुछ उपभोक्ता उद्योगों को शामिल किया गया उद्योगों की संख्या 18 थी
पूर्णतया निजी क्षेत्रः इस वर्ग में उन सभी बचे उद्योगों को रखा गया। इन उद्योगों पर निजी क्षेत्र का पूर्ण अधिकार था। इस नीति के अंतर्गत लघु एवं कुटीर उद्योगों को भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया ताश का उत्तरदायित्व राज्य सरकारों को सौंपा गया और उनकी सहायता के लिए विभिन्न स्तरों पर विशेष संस्थानों के निर्माण पर जोर दिया गया। नीति में यह भी बताया गया कि सरकार कुटीर एवं लघु उद्योगों और बृहत उद्योगों के बीच समन्वय स्थापित करेगा। इस नीति में स्त्रियों और योगी की करण के लिए उच्च तकनीकी ज्ञान वर्धन की दृष्टि से विदेशी पूंजी को आवश्यक समझा गया इसलिए सरकार ने इस नीति के अंतर्गत विदेशी पूंजी के प्रति उदार पूर्वक रुख अपनाया। इस नीति के अंतर्गत सरकार की प्रसिद्ध कृति अनावश्यक विदेशी स्पर्धा को रोकने की थी जिससे कि उपभोक्ता पर अनुचित भार ना आए और विदेशी साधनों का उपयोग भी किया जा सके इसके साथ ही श्रमिकों के हित पर भीजोड़ दिया गया।


औद्योगिक नीति 1956ः 1948 की औद्योगिक नीति के बाद देश में बहुत पद परिवर्तन हुए जिसके बाद भारत को एक नई औद्योगिक नीति की आवश्यकता महसूस होने लगी। इस नीति के संबंध में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में कहा था की प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा के बाद इन 8 वर्षों में भारत में काफी औद्योगिक विकास तथा परिवर्तन हुए हैं नया संविधान बना जिसके अंतर्गत मौलिक अधिकारों और राज्य के प्रति नीति निर्देशक तत्व घोषित किए गए हैं प्रथम योजना पूर्ण हो चुकी है और सामाजिक तथा आर्थिक नीति का प्रमुख उद्देश्य समाजवादी समाज की स्थापना करना मान लिया गया है। आता इन सभी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए भारत की नई औद्योगिक नीति 30 अप्रैल 1956 को घोषित की गई। इसका मुख्य उद्देश औद्योगिकरण की गति में वृद्धि करना था, उद्योगों का विकास एवं विस्तार करना, सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार करना, रोजगार के अधिक अवसर उपलब्ध कराना, आय तथा धन के वितरण की असमानता उनको काम करना, औद्योगिक संतुलन स्थापित करना तथा श्रम प्रबंध एवं पूंजी के मध्य मधुर संबंध स्थापित करना था। इसकी मुख्य विशेषताएं थी उद्योगों का वर्गीकरण, लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास, निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग, निजी क्षेत्र के प्रति न्याय पूर्ण एवं भेदभाव रहित व्यवहार, संतुलित औद्योगिक विकास, तकनीकी एवं प्रबंधकीय सेवाएं तथा औद्योगिक संबंध एवं श्रम कल्याण करना था।


औद्योगिक नीति 1977ः 1956 से लेकर 1973 तक अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं घटी और कुछ ऐसी आर्थिक दशा उत्पन्न हो गई जिसके कारण यह आवश्यक हो गया कि सरकार को अपनी पूर्व घोषित 1956 की औद्योगिक नीति के व्यवहारिक स्वरूप में परिवर्तन करना चाहिए। 1977 में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन आया। 30 वर्षों से चल रहा कांग्रेस का शासन समाप्त हो गया और देश में जनता सरकार की स्थापना हुई इस नीति की आवश्यकता के कई कारण थे जैसे 1956 के बाद अनेक आर्थिक सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तन, कांग्रेस शासन के बाद जनता शासन की स्थापना, नई सरकार का नया दृष्टिकोण और कुछ कर गुजरने की इच्छा, आर्थिक व्यवस्था में क्रांतिकारी सुधार की आवश्यकता, कांग्रेस शासन के बाद जनता शासन की स्थापना, ग्रामीण क्षेत्रों के विकास की योजना को सफल बनाना, संतुलित आर्थिक विकास। 23 दिसंबर 1977 को संसद में उद्योग मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस द्वारा नई औद्योगिक नीति को प्रस्तुत किया गया। करते हुए फर्नांडीस ने कहा कि नई नीति पुरानी विकृतियों को दूर करने के लिए बनाई गई है तथा इसमें यह भी ध्यान रखा गया है कि देश के लोगों की आकांक्षाएं पूरी हो जाए। उद्योग मंत्री ने उद्योग और कृषि की अंतर क्रियाओं के महत्व पर विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया। और कहा कि हमारा बहुत सा औद्योगिक उत्पादन कृषि पर आधारित है और इसी प्रकार कृषि आधुनिकीकरण और विकास करने के लिए हमें स्वदेशी उद्योगों के लिए हमें स्वदेशी उद्योगों से ही यंत्र एवं अन्य सामग्री प्राप्त करनी होगी। इस नीति से रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई लघु एवं कुटीर उद्योगों को सर्वोच्च प्राथमिकता मिली, छोटे क्षेत्र का सृजन हुआ, उद्योग का विकास एवं जिला उद्योग केंद्र बना, खादी एवं ग्रामीण उद्योगों में भी बढ़ोतरी हुई आदि।
औद्योगिक नीति 1985ः देश में आर्थिक विकास की प्रक्रिया को गतिमान करने औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि करने तथा राष्ट्रीय संसाधनों के उच्चतम प्रयोग की दृष्टि से वर्ष 1985 में महत्वपूर्ण घोषणा एवं निर्णय किए गए। इस औद्योगिक नीति का प्रमुख लक्ष्य था आर्थिक विकास में आने वाली बाधाओं को दूर करना, गतिशील औद्योगिक वातावरण का निर्माण करना, विकास विनियोग और उत्पादन की गति को तेज करना।
औद्योगिक नीति 1991ः इस नीति की घोषणा 24 जुलाई 1991 को कर दी गई। इसके प्रमुख उद्देश्य थे संगठित नीति संरचना, लघु उद्योगों का विकास, आत्मनिर्भरता, एकाधिकार की समाप्ति, श्रमिकों के हितों का संरक्षण, विदेश विनियोग, सार्वजनिक क्षेत्रों की भूमिका। सरकार ने औद्योगिक नीति 1991 के घोषित होने के पश्चात भी औद्योगिक उपलब्धियों को मजबूत करने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अधिक प्रतिस्पर्धा बनाने की प्रक्रिया को गति देने घरेलू तथा विदेशी प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने पर जोर देने आदि के लिए औद्योगिक नीति 1991 में समय-समय पर परिवर्तन एवं संशोधन किया औद्योगिक नीति में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन एवं सुधारो का विवरणः
औद्योगिक अनुज्ञापन में ढील ः औद्योगिक नीति 1991 की जब घोषणा हुई थी तो उस समय अट्ठारह प्रमुख उद्योगों को अनुज्ञापन लेना आवश्यक था जिसमें 14 अप्रैल 1993 से उद्योगों को अनुज्ञापन से मुक्त कर दिया गया तत्पश्चात 1997 में केंद्र सरकार ने उदारीकरण की दिशा मैं कदम बढ़ाते हुए पांच अन्य उद्योगों को अनुज्ञापन से मुक्त कर दिया। इसके 3 वर्ष पश्चात पुनः चार और उद्योगों को अनिवार्य अनुज्ञापन से मुक्त कर दिया। इस प्रकार औद्योगिक नीति 1991 में घोषित 18 प्रकार के उद्योगों के अनुज्ञापन को घटाकर वर्तमान में पांच प्रकार के उद्योगों को ही अनिवार्य लेने की आवश्यकता है।


सरकारी क्षेत्रों के लिए आरक्षित उद्योगों में कमीः औद्योगिक नीति 1991 में सरकारी क्षेत्र के लिए 17 आरक्षित उद्योगों को रखने का प्रावधान किया गया था परंतु उदारीकरण के लागू होने के पश्चात इस में कमी की गई। ऐसे सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या घटकर केवल तीन ही रह गई जो इस प्रकार है परमाणु ऊर्जा, रेलवे परिवहन एवं परमाणु खनिज ऊर्जा।
एमआरटीपी अधिनियम के स्थान पर शारदा अधिनियम 2002ः भारतीय अर्थव्यवस्था में घरेलू तथा विदेशी कंपनियों के मध्य स्वास्थ्य एवं सकारात्मक प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने तथा उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए एमआरटीपी अधिनियम के स्थान पर प्रतिस्पर्धा अधिनियम बनाने का निर्णय विजय राघवन समिति की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने लिया। इस संदर्भ में संसद द्वारा वर्ष 2002 में प्रतिस्पर्धा विधेयक को पारित किया गया तथा 14 जनवरी 2003 को भारत के राज्य पत्र में प्रकाशित होने के बाद इसी तिथि से यह अधिनियम अस्तित्व में आया।
उत्पाद एवं आयात शुल्क में कमीः 1991 की औद्योगिक नीति में उत्पाद एवं आयातकों को सरल एवं तार्किक बनाने का प्रयास किया गया था परंतु इसके पश्चात भी पूंजीगत वस्तुओं पर उत्पाद शुल्क और युक्तिसंगत बनाया गया है। उनके संबंधों को कम करने के लिए तथा निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए आयात उत्पाद शुल्क में और भी कटौती की गई है।
बीमा व्यवसाय में निजी कंपनियों को अनुमतिः नई औद्योगिक नीति के बीमा व्यवसाय के संबंध में प्रावधान किया गया था कि यह व्यवसाय केवल सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित रहेगा परंतु अक्टूबर 2000 में इसका परिवर्तन किया गया तथा बीमा निर्णायक विकास प्राधिकरण ने प्रारंभ में निजी क्षेत्र की तीन कंपनियों को बीमा व्यवसाय प्रारंभ करने का अनुज्ञापन प्रदान कर दिया इन तीन कंपनियों में जीवन बीमा के क्षेत्र में एचडीएफसी स्टैंडर्ड लाइफ इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, साधारण बीमा के क्षेत्र में रिलायंस जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड तथा रॉयल सुंदरम एलाइंस इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड को अनुज्ञापन प्रदान किया गया।
लघु उद्योगों की नीति में परिवर्तनः नई औद्योगिक नीति में लघु उद्योगों के निवेश की सीमा को एक करोड रुपए देने का प्रावधान किया गया था परंतु फरवरी 1997 में इस में परिवर्तन करके तीन करोड़ की सीमा निर्धारित कर दी गई तथा लघु उद्योगों की मांग पर पुनः फरवरी 1997 में इस सीमा को घटाकर ₹10000000 कर दिया गया।

औद्योगिक नीति 1991 का मूल्यांकनः तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी वी नरसिंह राव ने इस नीति को उदार नीति बताते हुए अगस्त 1991 को राज्यसभा में कहा कि सरकार ने औद्योगिक नीति 1991 को एक खुली औद्योगिक नीति की संज्ञा दे दी है। इसमें अनेक आधारभूत परिवर्तन किए गए हैं। औद्योगिक लाइसेंसिंग, रजिस्ट्रेशन व्यवस्था एकाधिकार अधिनियम का अधिकांश भाग समाप्त कर दिया गया है। विदेशी पूंजी के पर्याप्त स्वागत की नीति अपनाई गई है। लोक उपक्रमों की भूमिका को पुनः परिभाषित किया गया तथा औद्योगिक स्थानीयकरण की नीति को पूनः तय किया गया। उपरोक्त विशेषताओं के बावजूद कुछ आलोचकों का विचार था कि बड़ी कंपनियां और औद्योगिक घरानों के विस्तार विलीनीकरण एवं अधिग्रहण की जांच व्यवस्था को समाप्त करके सरकार ने आर्थिक पत्ती के संकेंद्रण को रोकने के संदर्भ में उचित कार्य नहीं किया है। उनका कहना है कि विदेशी पूंजी और तकनीक के स्वागत पूर्ण आगमन से घरेलू उद्योगों के विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। हम कह सकते हैं कि यह नीति भारतीय औद्योगिक अर्थव्यवस्था को आधुनिक कुशल गुणवत्ता प्रधान और विश्व बाजार में प्रतियोगी बनाने में महत्वपूर्ण प्रयास साबित हो चुकी है।


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