सूर्यताप और तापमान:-
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- सूर्य ताप:-पृथ्वी सत्ता पर आने वाले सौर विकिरण को सूर्यताप कहते हैं। सूर्य की सतह से चारों ओर विकसित होकर फैलने वाला था आपको सौर विकिरण (solar radiation) कहते हैं, कुल एक विकरित उर्जा का लगभग 51% पृथ्वी के धरातल तक पहुंचता है।
- सूरज एक विशाल इंजन है जो धरातल पर पवनों समुंदर की धाराओं और विभिन्न ऋतुओं को उत्पन्न भी करती है।
- सूर्य ताप को प्रभावित करने वाले कारक है:
सूरज से दूरी, पृथ्वी का अपने अक्ष पर घूमना, सूर्य किरणों का कोण, दिन की लंबाई, ऊंचाई, ढाला आदि। - पृथ्वी औसत रूप से वायुमंडल के ऊपरी सतह पर 1.94 कैलोरी/प्रति वर्ग सेमी. प्रति मिनट ऊर्जा प्राप्त करती है। पृथ्वी सूरज द्वारा विकिरित ऊर्जा का 2 अरबवाॅं भागी प्राप्त कर पाती है।
*सूर्यताप भूमध्य रेखा के 10 डिग्री उत्तर तथा दक्षिण के मध्यवर्ती क्षेत्र को प्राप्त होता है क्योंकि यहां वर्ष भर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती है। - सबसे कम सूर्यताप ध्रुवों पर पृथ्वी द्वारा गृह स्टाफ का केवल 40% ही प्राप्त कर पाती।
- कुल सौर विकिरण का 57 प्रतिशत नष्ट हो जाता है, और केवल 45% आप ही हूं पृष्ठ तक पहुंचता है।
- पृथ्वी से सौर शक्ति का जो भाग परावर्तित होता है उससे “अलबीडो” कहते हैं।
*सूर्य से विकृत ऊर्जा की मात्रा 40% अंशी वायु मंडल द्वारा प्रत्यक्ष रूप में ग्रहण किया जाता है।
*सूर्यताप की मात्रा सूरज की किरणों से सीधी या तिरछी होने पर निर्भर करती है। - सौर विकिरण का वायुमंडलीय अपक्षय प्रकीर्णन, विसरण, अवशोषण द्वारा होती है।
- वायुमंडल का ग्राम एवं ठण्डा होने मुख्यत: विकिरण संचालन एवं संवहन पर निर्भर करती है।
- संचालन:-आण्विक सक्रियता द्वारा पदार्थ के मध्यम से होने वाली ऊष्मा का संचार संचालन कहलाता है।
- संवहन:- किसी पदार्थ में एक भाग से दूसरे भाग की और उसके तत्वों के साथ उष्मा के संचार की क्रिया संवहन कहलाती है।
- विकिरण:- किसी भी पदार्थ की ऊष्मा तरंगों के सीधे संचार द्वारा गर्म होने की क्रिया विकिरण कहलाती है इस प्रक्रिया में उर्जा बिना किसी माध्यम (0 मे भी) के यात्रा कर सकती है।
- प्रकीर्णन:- वायुमंडल में विज्ञान अणुओं, जलवाष्प अथवा कणों द्वारा सौर ऊर्जा की लघु तरंगों का प्रत्येक दिशा में बिखराव की प्रक्रिया को प्रकीर्णन कहते हैं।
*प्रकाश के प्रकीर्णन के कारण आकाश में रंग नीला दिखाई देता है। - प्रकाश का परिवर्तन:- जब प्रकाश की किरणों किसी धरातल पर पड़ती है, तब उनका कुछ भाग परावर्तित हो जाता है। इस क्रिया को प्रकाश का परिवर्तन कहते हैं।
- विसरित परिवर्तन:- विसरित परिवर्तन के कारण ही वृक्षों के नीचे अथवा कमरों के भीतर प्रकाश पहुंचता है तथा वस्तुएं दिखाई पड़ती है।
- पूर्ण मेघाच्छादन के समय सूर्य के प्रकाश में कमी का मूल कारण परिवर्तित होता है।

वायुमण्डल तथा पृथ्वी की ऊष्मा (Heat) का प्रमुख स्रोत सूर्य है। सौर ऊर्जा को ही सूर्यातप कहते हैं। अनुमान है कि सूर्य के धरातल पर लगभग 5,700° सेण्टीग्रेड अथवा 6000° केल्विन से भी अधिक तापमान रहता है और इसके नाभिक (Nucleous) में 1.5 से 2.0 करोड़ डिग्री केल्विन तापमान रहता है। सूर्य से निरन्तर शून्य की ओर ताप तरंगों (Heat waves) के रूप में शक्ति प्रसारित होती रहती है। सूर्य के धरातल से निकलने वाली गर्मी प्रति वर्ग इंच लगभग 1,00,000 अश्व शक्ति के बराबर होती है। पृथ्वी सूर्य से 14.96 करोड़ किलोमीटर दूर है एवं इसके धरातल को सूर्य से प्रसारित शक्ति का केवल 12,00,00,00,000 भाग (दो अरबवाँ भाग) ही प्राप्त होता है। सूर्य से पृथ्वी के समस्त धरातल पर प्रति मिनट इतनी शक्ति प्राप्त होती है, जितनी कि मानव जाति एक वर्ष में उपयोग में लाती है। सूर्य की शक्ति का इतना स्वल्प अंश प्राप्त होते हुए भी पृथ्वी की समस्त भौतिक और जीवन सम्बन्धी घटनाएं इसी शक्ति पर निर्भर होती हैं। सूर्य से प्राप्त होने वाली इसी शक्ति को ही सूर्याभिताप कहते हैं। यह प्रति सैकण्ड 2,97,000 किलोमीटर की गति से विद्युत चुम्बकीय तरंगों के द्वारा पृथ्वी के धरातल पर आता है। इसे पृथ्वी तल तक पहुँचने में 8 मिनट 30 सेकण्ड का समय लगता है।

स्टीयर्स के अनुसार, “एक दिन का सूर्यातप वह कुल ऊष्मा है जो सूर्य से धरातल पर उस एक दिन से प्राप्त होती है”।
The insolation for a day is the total amount of heat received from the sun during that day.
मोंकहाउस के अनुसार, “सूर्य से विकरित ऊष्मा को सूर्यातप कहा जाता है।”
ट्रिवार्था के अनुसार, “सूर्य से ताप का विकिरण लघु तरंगों के रूप में होता है जो 1250 से 16,700 किलोमीटर लम्बी होती है तथा 1,86,000 मील प्रति सेकण्ड की गति से चलती है, सूर्यातप कहलाती है।”
सूर्य पृथ्वी से लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूरा है। सूर्य की सतह पर 6,000 सेण्टीग्रेड तापमान है जो विकिरण द्वारा चारों ओर फैलता है, लेकिन सूर्य से प्रसारित इस शक्ति का कुछ अंश ही धरातल को प्राप्त होता है। और इस न्यून ऊर्जा के कारण ही भूतल पर सभी प्रकार के जीवों का अस्तित्व सम्भव होता है।
सूर्य से बड़े परिमाण में चारों ओर शक्ति प्रसारित होती है, परन्तु सूर्य से प्रसारित इस शक्ति का कुछ ही अंश धरातल को प्राप्त होता है, क्योंकि सूर्य से निकलने वाली शक्ति जब धरातल पर पहुँचती है तो उसे वायुमण्डल की 640 किलोमीटर मोटी परत को पार करके आना पड़ता है। इसलिए धरातल पर आने वाली शक्ति का लगभग आधे से अधिक भाग मार्ग में नष्ट हो जाता है। किम्बाल (Kimball) ने नष्ट होने वाली शक्ति का आगणन इस प्रकार किया है- कुल 100% में से 35% प्रतिविम्बित होकर वापस शून्य में चली जाती है, 19% जलवाष्प, गैसें, वायुमण्डलीय क्रियाएं एवं धुल के कण सोख लेते हैं। इस प्रकार सूर्य से प्राप्त कुल शक्ति का 35+19 = 54 % भाग नष्ट हो जाता है और केवल 46% ही पृथ्वी तक पहुँच पाता है”।

सूर्याभिताप Factors Affecting Insolation:-
सूर्य की किरणों का सापेक्ष तिरछापन- पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है, अतः सूर्य की भू-सापेक्ष स्थिति बदलती रहती है। इस परिक्रमण के फलस्वरूप सूर्य 6 महीने उत्तरायण और 6 महीने दक्षिणायन होती है। दूसरे शब्दों में, जब 22 दिसम्बर को सूर्य मकर अयन रेखा पर लम्बवत् चमकता है। अर्थात् दक्षिणायन तो उत्तरी गोलार्द्ध में उसकी किरणें बहुत तिरछी पड़ती हैं। उस समय उत्तरी ध्रुव वृतीय क्षेत्रों में तो ये पहुँच भी नहीं पाती है। यह मकर रेखा सूर्य की दक्षिणायन यात्रा की अन्तिम सीमा होती है। यहाँ से 22 दिसम्बर के उपरान्त सूर्य की उत्तरायण गति आरम्भ होती है और तब उत्तरी गोलार्द्ध में सूर्य की किरणे अधिकाधिक सीधी पड़नी आरम्भ हो जाती हैं। 21 जून को सूर्य की किरणे कर्क रेखा प्रर लम्बवत हो जाती हैं।
सूर्याभिताप की मात्रा सूर्य की किरणों के सीधे या तिरछे होने पर निर्भर करती है। धरातल पर जब सूर्य की किरणे ठीक लम्बवत् होती हैं, तो ताप अधिक प्राप्त होता है,और जब ये किरणे तिरछी पड़ती हैं, तब ताप कम प्राप्त होता है। इसके दो मुख्य कारण हैं-
तिरछी किरणे धरातल के अधिक भाग को घेरती हैं, अतः उन्हें भूतल के अधिक भाग को गर्म करना पड़ता है, इसके विपरीत सीधी किरणे धरातल के कम भाग पर पड़ती हैं और यह कम भाग ही सारा या अधिक ताप प्राप्त करता है।
तिरछी किरणों को वायुमण्डल की अधिक मोटाई पार करनी पड़ती है अतः वायुमण्डल में अधिक ताप नष्ट हो जाता है, फलतः धरातल पर पहुंचने वाले ताप की मात्रा कम हो जाती है।

दिन और रात की लम्बाई-
परिभ्रमण और परिक्रमण पृथ्वी की दो गतियाँ हैं। परिभ्रमण गति द्वारा पृथ्वी अपनी धुरी पर बराबर चक्कर लगाती है और परिक्रमण द्वारा वह अपनी कक्ष पर 66½° का कोण बनाती हुई सूर्य के चारों ओर घूमती है। इन गतियों के कारण ही पृथ्वी पर दिनरात तथा ऋतु परिवर्तन होता है भिन्न-भिन्न ऋतुओं में विभिन्न अक्षांशों पर दिन और रात की लम्बाई भिन्न-भिन्न होती है, जिनका प्रभाव पृथ्वी पर सूर्याभिताप की न्यूनाधिक मात्रा पर पड़ते है। किसी स्थान पर जितना ही सूर्य ऊंचा और अधिक देर तक चमकता है, वहां उतना ही अधिक सूर्याभिताप प्राप्त होता है। भूमध्य रेखा पर दिन-रात सदैव बराबर होते हैं, परन्तु भूमध्य रेखा से दूर अन्य अक्षांशों पर परिभ्रमण की विभिन्न स्थितियों के अनुसार दिनरात छोटे-बड़े होते रहते हैं। विभिन्न अक्षांशों पर ज्यों-ज्यों विषुवत् रेखा से उत्तर या दक्षिण को जाते हैं, सूर्य से प्राप्त गर्मी की यह मात्रा जाती है।
वायुमण्डल की अवस्था Condition of Atmosphere–
धरातल पर प्राप्त सूर्याभिताप की मात्रा वायुमण्डल की अवस्था पर निर्भर करती है। आकाश की मेधाच्छन्नता, आर्द्रता, धूल, आदि वायुमण्डल की परिवर्तनशील दशाएं पृथ्वी पर पहुँचने वाले सूर्याभिताप की मात्रा को निरन्तर बदलती रहती हैं। वायुमंडल में छायी हुई धूल सूर्य शक्ति को पृथ्वी तक पहुंचने में बाधा उपस्थित करती है। आकाश की मेघाच्छन्नता भी सूर्याभिताप पर गहरा प्रभाव डालती है, क्योंकि मेघ सूर्याभिताप को पुनः प्रतिबिम्वित करने में बड़े महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं, इस कारण धरातल पर आने वाली सूर्यशक्ति में कुछ न्यूनता जाती है।

पृथ्वी से सूर्य की दूरी-
* सूर्य से पृथ्वी की दूरी सदैव एक समान नहीं होती। उपसौर (Perihelion) की अपेक्षा अपसौर(Aphelion) की दशा में सूर्य से पृथ्वी की दूरी अधिक होती है। अपसौर की व्यवस्था में पृथ्वी को सूर्य से कम शक्ति प्राप्त होती है, और उपसौर की दशा में अधिक होती है।
घरातल की प्रकृति Nature surface–
* खुली और वनस्पति-विहीन शैलों वाले क्षेत्र खेतिहर भूमि की अपेक्षा अधिक गरम होते हैं। इसी प्रकार बालू मिट्टी वाले भाग कॉप या दलदल भूमि की अपेक्षा शीघ्र ही अधिक गरम और ठण्डे हो जाती हैं। इसी कारण से मरुस्थलों में दैनिक तापान्तर अधिक मिलता है।
ऊँचाई का प्रभाव Effect Altitude–
- अधिक ऊंचे स्थानों पर तापमान कम रहता है। इसका कारण यह है, कि जब समुद्र के धरातल से प्रति 165 मीटर ऊँचे उठने पर तापमान 1°C कम हो जाता है। इसके ये कारण हैं-
वायुमण्डल की ऊपरी पतों का घनत्व कम होता है, इस कारण वहाँ भूमि से गर्मी शीघ्र विकिरित हो जाती है।
धरातल के समीप की वायु में कार्बन, जलवाष्प, धूलकण, आदि पर्याप्त मात्रा में विद्यमान रहते हैं। ये सब धरातल से गर्मी को शीघ्र बाहर निकलने से रोकते हैं। धरातल के समीप की वायु सघन और अधिक घनत्व वाली होती है, अतः स्वयं पर्याप्त गर्मी सोख लेती है। फलस्वरूप धरातल के समीप की वायु का तापमान अधिक तथा पर्वतीय भागों में तापमान कम रहता है।