history – Vinay IAS Academy https://vinayiasacademy.com Rashtra Ka Viswas Wed, 12 Aug 2020 15:47:41 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=5.3.4 भारत पर अरबों का आक्रमण https://vinayiasacademy.com/?p=2957 https://vinayiasacademy.com/?p=2957#respond Wed, 12 Aug 2020 15:47:39 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2957 Share it1.भारत पर अरबों का आक्रमण कब हुआ ?इस आक्रमण से भारत को क्या क्या हानियां हुई वर्णन करें? 2.मोहम्मद बिन कासिम का इस आक्रमण में क्या योगदान था? 3.मोहम्मद गजनवी ने भारत में कब और कैसे आक्रमण किया वर्णन करें? 4.मोहम्मद गौरी के आक्रमण पर टिप्पणी दें तथा इससे  भारत पर क्या प्रभाव पड़ा […]

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1.भारत पर अरबों का आक्रमण कब हुआ ?इस आक्रमण से भारत को क्या क्या हानियां हुई वर्णन करें?
2.मोहम्मद बिन कासिम का इस आक्रमण में क्या योगदान था?
3.मोहम्मद गजनवी ने भारत में कब और कैसे आक्रमण किया वर्णन करें?
4.मोहम्मद गौरी के आक्रमण पर टिप्पणी दें तथा इससे  भारत पर क्या प्रभाव पड़ा इस पर विमर्श करें।

भारत पर अरबों का आक्रमण   का वर्णन 9 वी शताब्दी के बिलादूरी रचित पुस्तक ” फुतुल अल बलदान एवं 13वीं शताब्दी में अबू बर्क कुफी  द्वारा रचित पुस्तक चचनामा में मिलती है। खलीफा उमर साहब  के समय अरबो ने थाने,   भड़ौच  और देवल को जीतने की असफल कोशिश की। अरब के आक्रमण के समय  सिंध पर दाहिर का शासन था। इस आक्रमण का मूल उद्देश्य भारत के खजाने को लूटना तथा इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार करना था। सर्वप्रथम मुसलमानों का आक्रमण 636 ईसवी में हुआ था यह आक्रमण खलीफा उमर के समय हुआ परंतु यह आक्रमण और सफल रहा था।  इस मध्यकालीन भारत में  सूफी आंदोलन की शुरुआत भी इसी समय हुई थी। अपनी सफलताओ से  खुश होकर अरबो ने सिंध पर आक्रमण करना शुरू कर दिया।  इस आक्रमण के पीछे का मुख्य कारणः उस समय इराक का शासक था अल हज्जाज वह भारत की संपन्नता को देखकर  आश्चर्य हो चुका था और इसे जीतकर अपने शासन पद्धति में मिलाकर उसे और संपन्न बनाना चाहता था। दूसरा कारण यह भी माना जाता है कि अरबो के कुछ जहाज सिंध के देवल बंदरगाह पर कुछ समुद्री लुटेरों द्वारा  लूट लिए गए थे जिसके बदले में खलीफा ने के राजा दाहिर से जुर्माना मांगा था परंतु दाहिर ने यह कह कर मना कर दिया डाकू पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। इस जवाब से खलीफा गुस्से में आकर सिंध पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया।

मोहम्मद बिन कासिम का आक्रमणः

  मोहब्बत बिन कासिम का जन्म सऊदी अरब में हुआ था उसके पिता कासिम बिन यूसुफ का देहांत काफी जल्द हो गया था उसे युद्ध और प्रशासन की कलाओं से उसके चाचा हज्जाज बिन यूसुफ ने अवगत कराया।
मोहब्बत बिन कासिम ने मकरान तट के रास्ते से भारत पर आक्रमण किया था किया था।
712 इसवी में  मोहम्मद बिन कासिम जो उस समय 17 वर्ष का था ने सिंध पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया  उसने  सिंध, सीविस्तान जैसे महत्वपूर्ण किलो को जीत कर उसे अपने अधिकार में कर लिया।
इसे जीतने के बाद  मोहब्बत बिन कासिम ने बहमनाबाद आदि स्थानों को जीतते हुए मध्यप्रदेश की ओर प्रस्थान किया।
  देशद्रोही  सरदार मौकाह की सहायता से कासिम ने दाहिर को हराया था।
देवल के विजय के बाद मोहम्मद बिन कासिम ने नेऊन  पर आक्रमण करने का निश्चय किया परंतु यहां पर बौद्धों की संख्या अधिक थी इसलिए वहां के लोगों ने  मोहम्मद बिन कासिम का स्वागत किया और बिना युद्ध किए ही  कासिम ने नेऊन के दुर्ग पर अधिकार जमा लिया।
नेऊन  जीतने के बाद कासिम सिविस्तान की और बढा। उस समय  यहां का शासक माझरा था वह बिना युद्ध किए ही कासिम के डर से  अपने राज्य छोड़कर चला गया इस तरह यहां भी कासिम बिना युद्ध के  जीत गया ।
इसके बाद कासिम ने जाटों की राजधानी सीसम पर भी अधिकार कर लिया। यहां के शासक को कासिम ने मार डाला और यहां के लोगों ने कासिम को अपने शासक के रूप में स्वीकार कर लिया।
सीसम  को जीत  लेने के बाद  कासिम राओर की ओर बढा। यहां  दाहिर और मोहम्मद बिन कासिम के बीच में युद्ध हुआ। इस युद्ध में दाहिर  मारा गया और इसके बाद यहां पर कासिम का अधिकार हो गया।
यह सभी क्षेत्रों को जीतने के के बाद ताकि इनकी नजर ब्राह्मणवाद पर पड़ी। यहां  के शासक जयसिंह ने बहादुरी से  कासिम का सामना किया परंतु वहां की जनता के विश्वास था के कारण व मारा गया और यहां पर भी कासिम का अधिकार हो गया।
ब्राह्मणवाद जीतने के बाद कासिम की नजर  आलोर पर पहुंची यहां के लोगों ने विवश होकर आत्मसमर्पण कर दिया।
आलोर पर विजय प्राप्त करने के बाद काफी मुल्तान पहुंचा। यहां पर के बीच में काफी आंतरिक कलह  था  यहां के नगर के जल स्रोत के जानकारी मिलते ही सैनिकों ने दुर्ग पर  कब्जा जमा लिया क्योंकि यहां से नगर के लोगों को जल की आपूर्ति होती थी यहां पर अधिकार मिलते हैं कासिम को बहुत सारा खजाना प्राप्त हुआ इसलिए उसने इस नगर का नाम स्वर्ण नगर रख दिया।
भारत में पहली बार जजिया नामक कर की वसूली मोहब्बत बिन कासिम द्वारा ही की गई थी।
715 ईसवी में खलीफा सुलेमान ने मोहम्मद  बिन कासिम की हत्या करवा दी।

भारत पर अरबों के आक्रमण का परिणामः

यह सभ्यता एवं संस्कृति पर इस आक्रमण का परिणाम 1000 ईस्वी तक रहा।
शुरुआती दौर में  अरबियों  ने लोगों को इस्लाम अपनाने के लिए विवश किया।
अरबिया की मुस्लिम संस्कृति पर भारतीयों की संस्कृति का काफी गहरा प्रभाव  पड़ा।
अरब वासियों ने चिकित्सा, दर्शन, नक्षत्र, विज्ञान, गणित एवं शासन प्रबंध की शिक्षा भारतीयों से ग्रहण  की।
उस समय अरबियों  ने चरक संहिता एवं पंचतंत्र जैसे ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद करवाया।
बगदाद के खलीफाओं द्वारा भारतीय विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया गया।
  भारतीयों से शिक्षित होने के बाद खगोल शास्त्र पर अरबों ने अनेक पुस्तकों की रचना की जिसमें अल्फाज री की किताब उल जिज  प्रमुख है।
इस्लाम धर्म के लोगों ने हिंदू धर्म के प्रति सहिष्णुता का प्रदर्शन भी किया।
अरबो का  सिंध के विजय के बाद आर्थिक क्षेत्र पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा।

महमूद गजनवी का आक्रमणः

गजनवी वंश की  नींव सामान्य साम्राज्य के तुर्क दास अधिकारी अलप्तगिन   जो उस समय खुरासान का राज्यपाल था उन्होंने डाली थी।
932 ईसवी में अलप्तगिन  ने गजनी साम्राज्य की स्थापना की थी जिसकी राजधानी गजनी थी।।
अलप्तगिन  के दास तथा उसके दामाद  सुबुक्तगीन ने शासक बनते ही जयपाल के विरुद्ध आक्रमण किया था।
सुबुक्तगीन 977 में गजनवी की गद्दी पर बैठा था
  गजनबी सुबुक्तगीन का पुत्र था जिसका जन्म 1 नवंबर 971 में हुआ था। गजनवी खुरासान का शासक था
गजनबी 27 वर्ष की उम्र में अर्थात 998 ईसवी में गद्दी पर बैठा। उसने सिस्तान के खलीफा को पराजित करके सुल्तान की उपाधि धारण करने वाला प्रथम मुस्लिम शासक बना।
महमूद गजनबी को बगदाद के खलीफा अल कादर बिल्लाह ने उसके पद के अनुरूप मान्यता प्रदान करते हुए  उसे  “यामीन उद दौला ” और ”  यामीन उल  मिल्लाह ” की उपाधि दी।
महमूद एक मूर्ति भंजक आक्रमणकारी था तथा इसका उद्देश्य भारत में मौजूद सभी खजानो तथा धन प्राप्ति  करना था
इसका विशेष उद्देश्य हिंदुओं के मंदिरों पर आक्रमण करना तथा इनके मंदिरों को लूटना और उन्हें  कमजोर   बनाकर मार देना  था।
महमूद गजनबी ने भारत पर 1000 से 1026 ईस्वी तक 17 बार आक्रमण किया। इन आक्रमणों का उल्लेख हेनरी इलियट ने किया है। vinayiasacademy.com

इन 17 आक्रमण का उल्लेख  इस प्रकार हैः

गजनबी ने भारत पर पहला आक्रमण 1001 ईसवी में   किया  तथा पेशावर के कुछ भागों पर अधिकार जमा कर वहां से वापस लौट गया। परंतु उसने अपना दूसरा आक्रमण 1000 से 1000 दो इसवी के बीच में पेशावर के   राजा जयपाल के ऊपर किया था इसमें राजा जयपाल की हार हुई थी राजा जयपाल ने आत्महत्या कर ली थी।  और गजनबी ने उसके राज्य पर अधिकार जमा लिया।
सन 1002 ईस्वी में उसने सिस्तान के खुलुफ को बंदी बनाया।
सन 1004 ईस्वी में उच्छ  के  शासक  वजीरा को दंडित करने के लिए आक्रमण किया परंतु वह गजनबी के डर से  भाग कर आत्महत्या कर लिया।
सन 1005 में   गजनबी ने मुल्तान के शासक के विरुद्ध युद्ध किया और उसे पराजित करके उसे अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया।
1008 में नगरकोट के विरुद्ध आक्रमण मूर्ति वाद के विरुद्ध आक्रमण था गजनबी ने जयपाल के बेटे आनंदपाल को हराया। इसके  साथ साथ उसने हिमाचल के कांगड़ा की संपत्ति तथा कई हिंदू राजाओं को( उज्जैन, ग्वालियर कन्नौज, कालिंजर, और अजमेर) को हराने के बाद  हड़प  ली।
महमूद गजनबी थानेसर के चक्र स्वामी इनकी का से निर्मित आदम कद प्रतिमा को अपने साथ गजनवी ले गया था।
1009 ईस्वी में अलवर के राज्य नारायणपुर पर विजय प्राप्त की थी।
हजार दस एसपी ने महमूद का आठवां आक्रमण मुल्तान पर था वहां के साथ-साथ दाऊद को पराजित कर उसने मुल्तान के शासन को सदा के लिए अपने अधीन कर लिया।
सन  1013 ईस्वी में नवीन ने त्रिलोचन पाल को हराया।
1015 ईस्वी में  त्रिलोचन पाल के पुत्र भीम पाल के विरुद्ध था जो उस समय कश्मीर का शासक था इस युद्ध में भीमताल पराजित हुआ था।vinayiasacademy.com
  1018 में उसने कन्नौज पर आक्रमण किया और बुलंदशहर के शासक हरदत्त को पराजित किया। 1019 में उसने पुनः कन्नौज पर आक्रमण किया उस समय वहां के शासक ने बिना युद्ध किए ही आत्मसमर्पण कर दिया।
1020 ईस्वी में महमूद का 13 वां आक्रमण और उसने बुंदेलखंड ,कीरात तथा लोहकोट को जीत लिया था।
  1021 में महमूद के 14 में आक्रमण के दौरान महमूद ने ग्वालियर तथा कालिंजर पर आक्रमण किया ग्वालियर पर कब्जा करने में असफल रहा परंतु कालिंजर के सांसद गोंडा ने विवश होकर संधि कर ली।
सन 1024 में अजमेर नहर वाला और काठियावाड़ में आखरी युद्ध लड़ा गया।
सन 1025 से 26 में उसने सोमनाथ मंदिर जो गुजरात में स्थित है उसे लूट कर 2000000 दिनार की संपत्ति  हासिल की और वहां के राजपूतों से बचने के लिए थार मरुस्थल के रास्ते का सहारा लिया। इस मंदिर को लूटते समय महमूद ने लगभग 50000 ब्राह्मणों एवं हिंदुओं का कत्ल किया था।
सोमनाथ मंदिर लूट कर ले जाने के रास्ते  मैं उस पर जाटों ने हमला किया था।
महमूद गजनवी का भारत पर अंतिम आक्रमण 1027 ईसवी में जाटों के विरुद्ध था।
1028-29 में निशापुर के शासकों से  पराजित हुआ।
1030 में  उसे बीमारी हो गई जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
महमूद गजनबी ने भारत में एक सेना का गठन किया था जिसका सरदार तिलक नामक एक हिंदू था।
महमूद गजनवी के सिक्कों पर केवल अमीर महमूद ही लिखा गया है।
महमूद गजनी भाग पर कली मा का संस्कृत रूपांतरण ” अव्यमेकं अवतारः” अंकित करवाया।
भारत पर गजनवी के आक्रमण का कोई राजनीतिक असर तो नहीं पड़ा परंतु इन आक्रमणों से राजपूत राजाओं के युद्ध रणनीतियों की कमियों के बारे में खुलासा हो गया। इसे एक और खुलासा हुआ कि भारत में एक राजनीतिक एकरूपता नहीं थी।

मोहम्मद गौरी का  भारत पर आक्रमणः

मोहम्मद गौरी का पूरा नाम सुल्तान शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी था इसका जने 1149 एसपी में अफगानिस्तान में हुआ था मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण करने का मुख्य उद्देश्य इस्लामी साम्राज्य का विस्तार करना था  इसके साथ-साथ भारत में मौजूद धन संपत्ति को भी लूटना था। मोहम्मद गौरी गौर के शासक गयासुद्दीन का छोटा भाई था।   मोहम्मद गौरी अफगान का सेनापति था।  1173 ईसवी में वह गौरी साम्राज्य का  शासक  बना। vinayiasacademy.com
मोहम्मद गौरी ने भारत पर लगातार आक्रमण करके दिल्ली सल्तनत की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया।
मोहम्मद गौरी ने प्रथम आक्रमण 1175 इसवी में गोमल दर्रा होते हुए मुल्तान पर किया।  इस युद्ध में उस ने मुल्तान को जीत लिया था।
1178  इसवी में गौरी ने गुजरात के शासक मूलराज द्वितीय पर आक्रमण किया परंतु इस युद्ध में गौरी की हार हुई या उसकी पहली हार थी। इस युद्ध का संचालन नायिका देवी ने किया था जो मूलराज की पत्नी थी।
इस युद्ध से सीखने के बाद गाड़ी ने पहले संपूर्ण पंजाब पर अपना अधिकार करने के बाद भारत पर अधिकार करने का प्रयास  करने लगा।
  1179 –  1180 इसवी के बीच में पेशावर पर कब्जा कर लिया।
  1182 ईस्वी में उसने जींद के निचले भाग पर आक्रमण करके सुमरा वंश के शासक को अपने अधीन कर लिया।
1186 ईसवी में गौरी ने  लाहौर, सियालकोट तथा भटिंडा को जीत लिया था।
1190 इसवी तक गौरी ने संपूर्ण पंजाब को गौर साम्राज्य का अंग बना लिया।
1191 एसपी में दिल्ली और अजमेर के शासक पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद गौरी के बीच तराइन के मैदान में पहला मुकाबला हुआ जिसमें मोहम्मद गौरी पराजित हुआ इसे तराइन का प्रथम युद्ध कहा जाता है।
1192 एसपी में गवरी एवं चौहान के बीच तराइन के मैदान में दूसरा युद्ध हुआ जिसमें पृथ्वीराज चौहान पराजित हुआ साथ ही चौहान साम्राज्य का नाश हुआ। इसे तराइन का द्वितीय युद्ध कहा जाता है
  1194 ईस्वी  मोहम्मद गौरी ने ऐबक की सहायता से कन्नौज नरेश जयचंद को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया।
1195 से  1194 इसवी में गौरी ने चुनार के पास जाटों और राजपूतों को पराजित किया।
1194 के बाद गाड़ी के दो सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक तथा बख्तियार खिलजी ने भारतीय क्षेत्रों को एक-एक करके जीतना प्रारंभ कर दिया इसी के दौरान बख्तियार खिलजी ने बिहार तथा बंगाल के कुछ क्षेत्रों को जीता और नालंदा विश्वविद्यालय एवं बंगाल विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया था।
   1205 ईसवी में गौरी ने खोखरा को पराजित  किया।
गजनी जब वापस लौट रहा था तो 15 मार्च 1206 इसवी को सिंधु नदी के दमक नामक स्थान पर धोखे से उसकी हत्या कर दी गई थी।
मोहम्मद गौरी ने अपनी मृत्यु से पूर्व ही अपने दासो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था।
मोहम्मद गोरी ने  अपने साम्राज्य के समय सिक्कों में एक तरफ शिव के बैल तथा देवनागरी लिपि में पृथ्वीराज तथा दूसरी तरफ घोड़े के साथ मुहम्मद बिन शाम लिखा था।
मोहम्मद गौरी के कुछ सिक्कों पर लक्ष्मी की आकृति भी अंकित रहती थी।
मोहम्मद गौरी के आक्रमण के बाद भारत में तुर्क सत्ता की स्थापना हुई। इसने राजनीतिक तत्व के प्रवेश के मूलभूत ढांचे में बदलाव ना होने के बावजूद भी तुर्कों के आक्रमणों ने भारतीय समाज के जीवन के सभी क्षेत्रों में नए तत्वों को पैदा किया।  भारत में शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता की स्थापना हुई तथा इसके साथ ही सामंती प्रथा का अंत हुआ। और नई स्थापत्य कला का उदय हुआ। तुर्की अपने साथ कला के फारसी तत्वों को लेकर आएं जिसे फारसी कला के भारतीय कला में मिल जाने से एक नई कला का उदय   हुआ।अढाइ  के दिल का झोपड़ा नामक मस्जिद का निर्माण इसी  इसी कला से हुआ था। भारतीय समाज पर भी इसका गहरा असर पड़ा था इसमें सल्तनत की स्थापना हो जाने पर भेदभाव और जातिवाद में कुछ हद तक गिरावट आई। आगमन से शिक्षा के क्षेत्र में एक नई प्रणाली की शुरुआत हुई जिसे मदरसा प्रणाली कहा जाता है। यह प्रणाली भारतीय प्रणाली से  अलग थी। ओड़िया शिक्षा मस्जिदों में दी जाती थी। ट्रकों के आगमन से भारत में फारसी भाषा का उदय हुआ था तथा राज कार्यों में इस भाषा को प्राथमिकता भी दी गई थी।


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चोल वंश का शासन काल https://vinayiasacademy.com/?p=2955 https://vinayiasacademy.com/?p=2955#respond Wed, 12 Aug 2020 13:02:33 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2955 Share it1.चोल वंश की स्थापना किसने की थी और शासन काल की पद्धति कैसी थी? 2.इस की सांस्कृतिक उपलब्धियां कौन-कौन सी थी? 3.इसका उत्थान और पतन कैसे हुआ? चोल प्राचीन भारत का एक राजवंश था। जिसने दक्षिण भारत मैं शक्तिशाली शासकों के साथ मिलकर 9 वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के बीच एक अत्यंत […]

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1.चोल वंश की स्थापना किसने की थी और शासन काल की पद्धति कैसी थी?
2.इस की सांस्कृतिक उपलब्धियां कौन-कौन सी थी?
3.इसका उत्थान और पतन कैसे हुआ?

चोल प्राचीन भारत का एक राजवंश था। जिसने दक्षिण भारत मैं शक्तिशाली शासकों के साथ मिलकर 9 वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया।
लंका पर विजय प्राप्त करने के साथ-साथ इनका मालदीप पर भी अधिकार था। इनका साम्राज्य 36 लाख वर्गकिलोमीटर तक फैला हुआ था।
चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की थी।
चोल साम्राज्य का विस्तार नौवीं शताब्दी में जोरों शोरों से हुआ।
इनके पास शक्तिशाली नौसेना थी और जिस कारण से ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हुए।
चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक अर्थात बारहवीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया, वरन कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया।
इस राज्य की कोई एक स्थाई राजधानी नहीं थी।
यह क्षेत्र उसके राजा की शक्ति के अनुसार घटता-बढ़ता रहता था।
वर्तमान पंचायती राज्य व्यवस्था चोल की ही देन है।
चोल काल में सोने के सिक्कों को काशु कहते थे।
चोल कालीन सभी मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण नटराज शिव मंदिर है। मंदिर के प्रवेश द्वार को गोपुरम कहा जाता था।
चोल की भाषा संस्कृत और तमिल थी।
चोल कालीन ने मध्य एलार नामक श्रीलंका (सिंहल) को जीतकर उस पर पचास वर्षों से भी अधिक शासन किया।
वर्तमान पंचायती राज्य व्यवस्था चोल की ही देन है। चोल का स्थानीय स्वशासन बहुत ही मजबूत थी।
उस समय प्रांत को मंडलम कहा जाता था, कमिश्नरी को कोट्टम, जिला को नाडु, ग्राम को कुर्रम कहा जाता था।
चोल कालीन सभी मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण नटराज शिव मंदिर है। मंदिर के प्रवेश द्वार को गोपुरम कहा जाता था।

चोल काल को दक्षिण भारत का स्वर्ण युग भी कहा जाता है।
विजयालय जिसने चोल शासनकाल की स्थापना की थी शुरू में पल्लवों का एक सामंती सरदार था।।
उसने 850 ई. में तंजौर को अपने अधिकार में कर लिया और पाण्ड्य राज्य पर चढ़ाई कर दी। चोल 897 तक इतने शक्तिशाली हो गए थे कि, उन्होंने पल्लव शासक को हराकर उसकी हत्या कर दी और सारे टौंड मंडल पर अपना अधिकार कर लिया।
सभी घटनाओं के बाद पल्लव का शासनकाल खत्म हो गया और उस समय चोल शासकों की शक्ति चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी।
परंतु इस घटना के बाद चोल शासकों अपने से भी ज्यादा शक्तिशाली राष्ट्रकूटों का सामना करना पड़ा।
चोल शासकों और राष्ट्रकूटो के युद्ध में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई. में चोल सम्राट परान्तक प्रथम को पराजित किया और चोल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। जिससे चोल वंश खत्म होने की कगार पर आ गया।
परंतु 965 ई. में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूटों के पतन के बाद चोल एक बार फिर अपनी शासन पद्धति में खड़े हुए।


चोल साम्राज्य का उत्थान –
छठी शताब्दी के मध्य दक्षिण भारत में जिन शासकों का राज्य रहा अर्थात जीन वंश का शासन हुआ वे है पल्लव, चालुक्य तथा पाण्डय। पल्लवों की राजधानी कांची, चालुक्यों की बादामी तथा पाण्ड्यों की राजधानी मदुरई थी, जो आधुनिक तंजौर में है और दक्षिण अर्थात केरल में, चेर शासक थे। कर्नाटक क्षेत्र में कदम्ब तथा गंगवंशों का शासन था। इस युग के अधिकतर समय में गंग शासक राष्ट्रकूटों के अधीन थे या उनसे मिलते हुए थे। राष्ट्रकूट इस समय महाराष्ट्र क्षेत्र में सबसे अधिक प्रभावशाली थे। पल्लव, पाण्ड्य तथा चेर आपस में तथा मिलकर राष्ट्रकूटों के विरुद्ध संघर्षरत थे। इनमें से कुछ शासकों विशेषकर पल्लवों के पास शक्तिशाली नौसेनाएँ भी थीं। पल्लवों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ बड़े पैमाने पर व्यापारिक सम्बन्ध थे और उन्होंने व्यापार तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों को बढ़ाने के लिए कई राजदूत भी चीन भेजे। पल्लव अधिकतर शैव मत के अनुयायी थे और इन्होंने आधुनिक चेन्नई के निकट महाबलीपुरम में कई मन्दिरों का निर्माण किया।

चोल वंश के सबसे शक्तिशाली राजा राज्य (985-1014 ई.) तथा उसका पुत्र राजेन्द्र प्रथम (1012-1044 ई.) थे। राज्यराज को उसके पिता ने अपने जीवन काल में ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था और सिंहासन पर बैठने के पहले ही उसने प्रशासन तथा युद्ध-कौशल में दक्षता प्राप्त कर ली थी। राजराज ने सबसे पहले अपना ध्यान पाण्ड्य तथा चेर शासकों तथा उनके मित्र श्रीलंका के शासक की ओर दिया। उसने त्रिवेन्द्रम के निकट चेर की नौसेना को नष्ट किया तथा कुइलान पर धावा बोल दिया। उसके बाद उसने मदुरई तक विजय प्राप्त की और पाण्ड्य शासक को अपना बंदी बना लिया। उसने श्रीलंका पर भी आक्रमण किया और उस द्वीप के उत्तरी हिस्से को अपने साम्राज्य का अंग बना लिया। ये क़दम उसने इसलिए उठाया क्योंकि वह दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से होने वाले व्यापार को अपनी मुट्ठी में रखना चाहता था। उन दिनों कोरो मंडल तट तथा मालाबार, भारत तथा दक्षिण पूर्व एशिया के बीच होने वाले व्यापार के केन्द्र थे। राजराज ने मालदीव द्वीपों पर भी चढ़ाई की। उत्तर में राजराज ने गंग प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों को भी अपने अधिकार में ले लिया तथा वेंगी को भी जीत लिया।चोल राज्य आधुनिक कावेरी नदी घाटी, कोरोमण्डल, त्रिचनापली और तंजौर तक विस्तृत था।


चोल की शासन व्यवस्था
चोलो के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उनका शासन सुसंगठित था। यहां का राजा मंत्री एवं विभिन्न अधिकारियों से विचार-विमर्श करके सावन चलाता था। शासनसुविधा की दृष्टि से सारा राज्य अनेक मंडलों में विभक्त था। मंडल कोट्टम् या बलनाडुओं में बँटे होते थे। इनके बाद की शासकीय परंपरा में नाडु (जिला), कुर्रम् (ग्रामसमूह) एवं ग्रामम् थे। चोल राज्यकाल में इनका शासन जनसभाओं द्वारा होता था। चोल ग्रामसभाएँ “उर” या “सभा” कही जाती थीं। इनके सदस्य सभी ग्रामनिवासी होते थे। सभा की कार्यकारिणी परिषद् (आडुगणम्) का चुनाव ये लोग अपने में से करते थे। उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेख से उस ग्रामसभा के कार्यों आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। उत्तरमेरूर ग्रामशासन सभा की पाँच उपसमितियों द्वारा होता था। इनके सदस्य अवैतनिक थे एवं उनका कार्यकाल केवल वर्ष भर का होता था। ये अपने शासन के लिए स्वतंत्र थीं एवं सम्राटादि भी उनकी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे।

चोल शासक प्रसिद्ध भवन निर्माता थे। सिंचाई की व्यवस्था, राजमार्गों के निर्माण आदि के अतिरिक्त उन्होंने नगरों एवं विशाल मंदिर तंजौर में बनवाया। यह प्राचीन भारतीय मंदिरों में सबसे अधिक ऊँचा एवं बड़ा है। तंजौर के मंदिर की दीवारों पर अंकित चित्र उल्लेखनीय एवं बड़े महत्वपूर्ण हैं। राजेंद्र प्रथम ने अपने द्वारा निर्मित नगर गंगैकोंडपुरम् (त्रिचनापल्ली) में इस प्रकार के एक अन्य विशाल मंदिर का निर्माण कराया। चोलों के राज्यकाल में मूर्तिकला का भी प्रभूत विकास हुआ। इस काल की पाषाण एवं धातुमूर्तियाँ अत्यंत सजीव एवं कलात्मक हैं।

चोल शासन के अंतर्गत साहित्य की भी बड़ी उन्नति हुई। इनके शाक्तिशाली विजेताओं की विजयों आदि को लक्ष्य कर अनेकानेक प्रशस्ति पूर्ण ग्रंथ लिखे गए। इस प्रकार के ग्रंथों में जयंगोंडार का “कलिगंत्तुपर्णि” अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त तिरुत्तक्कदेव लिखित “जीवक चिंतामणि” तमिल महाकाव्यों में अन्यतम माना जाता है। इस काल के सबसे बड़े कवि कंबन थे। इन्होंने तमिल “रामायण” की रचना कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में की। इसके अतिरिक्त व्याकरण, कोष, काव्यशास्त्र तथा छंद आदि विषयों पर बहुत से महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी इस समय हुई।

चोल साम्राज्य का पतन :
चोल साम्राज्य के अंतिम शासक कुलोत्तुंग द्वितीय के उत्तराधिकारी निर्बल थे। वे अपने राज्य को अक्षुण्ण बना रखने में असफल रहे। सुदूर दक्षिण में पाण्ड्य, केरल और सिंहल (श्रीलंका) राज्यों में विद्रोह की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई थी और वे चोलों की अधीनता से मुक्त हो गए। समुद्र पार के जिन द्वीपों व प्रदेशों पर राजेन्द्र प्रथम द्वारा आधिपत्य स्थापित किया गया था, उन्होंने भी अब स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। द्वारसमुद्र के होयसाल और इसी प्रकार के अन्य राजवंशों के उत्कर्ष के कारण चोल राज्य अब सर्वथा क्षीण हो गया। चोलों के अनेक सामन्त इस समय निरन्तर विद्रोह के लिए तत्पर रहते थे, और चोल राजवंश के अन्तःपुर व राजदरबार भी षड़यत्रों के अड्डे बने हुए थे। इस स्थिति में चोल राजाओं की स्थिति सर्वथा नगण्य हो गई थी।

  • चोल वंश के शासकः
  • कार्यकाल
  • विजयालय (850 – 875 ई.)
  • आदित्य (चोल वंश) (875 – 907 ई.)
  • परान्तक प्रथम (908 – 949 ई.)
  • परान्तक द्वितीय (956 – 983 ई.)
  • राजराज प्रथम (985 – 1014 ई.)
  • राजेन्द्र प्रथम (1014 – 1044 ई.)
  • राजाधिराज (1044 – 1052 ई.)
  • राजेन्द्र द्वितीय (1052 – 1064 ई.)
  • वीर राजेन्द्र (1064 – 1070 ई.)
  • अधिराजेन्द्र (1070 ई.)
  • कुलोत्तुंग प्रथम (1070 – 1120 ई.)
  • विक्रम चोल (1120 – 1133 ई.)
  • कुलोत्तुंग द्वितीय (1133 – 1150 ई.)

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हर्षवर्धन के शासनकाल https://vinayiasacademy.com/?p=2953 https://vinayiasacademy.com/?p=2953#respond Wed, 12 Aug 2020 11:25:58 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2953 Share it1.हर्षवर्धन के शासनकाल के बारे में क्या जानते हैं? 2.हर्षवर्धन के शासनकाल में होने वाले विभिन्न प्रकार की उपलब्धियों का वर्णन करेंं. हर्षवर्धन का जन्म थानेसर वर्तमान हरियाणा मे हुआ था यह प्राचीन हिंदुओं के तीर्थ केंद्रों में से एक है । हर्षवर्धन को भारत का अंतिम हिंदू सम्राट कहा जाता है। उसके पिता […]

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1.हर्षवर्धन के शासनकाल के बारे में क्या जानते हैं?
2.हर्षवर्धन के शासनकाल में होने वाले विभिन्न प्रकार की उपलब्धियों का वर्णन करेंं.


हर्षवर्धन का जन्म थानेसर वर्तमान हरियाणा मे हुआ था यह प्राचीन हिंदुओं के तीर्थ केंद्रों में से एक है । हर्षवर्धन को भारत का अंतिम हिंदू सम्राट कहा जाता है। उसके पिता का नाम प्रभाकर वर्धन था।अपने भाई राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद सातवीं शताब्दी के शुरुआत में हर्षवर्धन ने थानेश्वर और कन्नौज का शासक 16 वर्ष की उम्र में 606 ईसवी में बना। 612 इसवी तक इसने पूरे उत्तर साम्राज्य में अपना साम्राज्य विकसित कर लिया। हर्ष और चालुक्य राजा पुलकेसीन द्वितीय के बीच 618 में नर्मदा नदी के पास एक युद्ध हुआ जिसमें हर्षवर्धन पराजित हुआ। हर्षवर्धन के शासनकाल में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया। हर्षवर्धन को यात्रियों में राजकुमार, नीति का पंडित एवं वर्तमान शाक्यमुनि कहा जाता था। नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ने एवं बौद्ध ग्रंथ संग्रह करने के उद्देश्य से भारत आया था उस समय नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति शीलभद्र थे। हर्ष ने 641 इसवी मैं अपने दूत चीन भेजें 45 एवं 645 ईसवी में दो चीनी दूत उस के दरबार में आए। चीनी यात्री ह्वेनसांग से मिलने के बाद हर्ष ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राज्य आश्रय प्रदान किया तथा वह पूर्ण रुप से बौद्ध बन गया। vinayiasacademy.com


हर्ष की उपलब्धियांः

  • हर्षवर्धन को प्राचीन भारत के शासकों की गौरवमई परंपरा का अंतिम एवं प्रतापी सम्राट माना जाता है।
  • वह एक सफल योद्धा, पराक्रमी विजेता, सुयोग्य शासक धर्म परायण सम्राट था।
  • उसने पूरे उत्तर भारत के विशाल हिस्से पर राज किया पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में आसाम तक और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक।
  • हर्ष की शासन व्यवस्था स्वरूप राजतंत्र आत्मक थी।
  • हर्ष महाराजाधिराज, शिलादित्य, परम भट्टाराक, परमेश्वर जैसी महान उपलब्धियां धारण करता था।
  • अशोक और चंद्रगुप्त मौर्य की तरह हर्षवर्धन ने भी अपनी प्रजा पालन एवं प्रचार रक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दिया।
  • हर्ष ने दो ग्रंथोंकी रचना की थी जो हैः सुप्रभात स्रोत तथा अष्ट महाश्री चैत्य संस्कृत स्रोत। इसने तीन संस्कृत नाटक ग्रंथों की भी रचना की थी जिनके नाम है प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानंद।
  • हर्ष ने शशांक को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार करने के बाद उसे अपना राजधानी बनाया था।
  • उत्तर भारत में प्रभुत्व स्थापित करने के कारण हर्ष को सकलोतत्तरा पदनाथ पदवी से विभूषित भी किया गया है।
  • हर सभी पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था तथा उनके लिए घोषणा पत्र एवं आज्ञा पत्र निकालता था इसके साथ ही वह युद्ध में सेना का भी नेतृत्व करता था।
  • हर्ष ने अपने शासनकाल में पानी राजस्व व्यवस्था को भी संतुलित रखा था उसने एक और अपनी प्रजा पर कार्ड का बोझ भी नहीं बढ़ाया और दूसरी और राज्य के व्यय में वृद्धि भी नहीं की।
  • हर्ष ने अपनी संपत्ति में से विद्यार्थियों विद्वान और दीन दुखियों को भी संपत्ति दान में दी थी।
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  • हर्ष ने अपने शासनकाल में मांसाहार को बंद करवाया तथा जीवो को कठोर शारीरिक दंड देने की मनाही कर दी।
  • हर्षवर्धन ने गंगा के तट पर हजारों स्तूपोर का भी निर्माण करवाया तथा जो मैं यात्रियों के लिए विश्राम ग्रह बनवाया इसके साथ ही पवित्र बौद्ध स्थानों पर भी सराय की स्थापना करवाई।
  • हर्षवर्धन ने अपने शासनकाल में किसानों के लिए सिंचाई की उत्तम व्यवस्था की उसने तुला यंत्र जो कि एक प्रकार का जल पंप है बनवाया।
  • हर्षवर्धन के शासनकाल में मथुरा सूती वस्त्रों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध था उझानी तथा कन्नौज भी आर्थिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध थे।
  • हर्ष अपने शासनकाल में प्रयाग में प्रति पांचवें वर्ष एक समारोह आयोजित करवाता था जिसे महा मोक्ष परिषद कहा जाता था।
  • हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने उसके लिए हर्ष चरित्र एवं कादंबरी की रचना की।
  • अविनाश शासक को महाराज तथा महा सामंत कहा जाता था।
  • हर्ष के मंत्री परिषद के मंत्री को सचिव कहा जाता था।
  • प्रशासन की सुविधा के लिए हर्ष का साम्राज्य कई प्रकार के प्रांतों में विभाजित था हर प्रांत को भुक्ति कहा जाता था प्रत्येक भक्ति का शासक राष्ट्रीय कहलाता था।
  • हर्ष चरित्र में प्रांतीय शासक को लोकपाल कहा गया है।
  • ग्राम प्रशासन के प्रधान को ग्रामाक्षपटलिक कहा जाता था।
  • पुलिसकर्मियों को चार्ट या भाट कहा जाता था।
  • अश्व सेना के अधिकारियों को बृहदेश्वर पैदल सेना के अधिकारियों को महाबल अधिकृत कहा जाता था।
  • हज के प्रमुख पदाधिकारी थे कुमार अमात्य, दीर्घ ध्वज।
  • हर्षवर्धन पंजाब छोड़कर समस्त उतरी भारत राज्य पर शासन किया।
  • हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत में आर्थिक रूप में बहुत प्रगति की थी
  • हर्ष बादामी के चालुक्य वंश के शासक पुल के सीन द्वितीय से पराजित हुआ था क्योंकि छठी और आठवीं शताब्दी के दौरान दक्षिणी भारत में चालुक्य बड़े शक्तिशाली थे।
  • इसने कई विश्रामगृह और अस्पतालों का भी निर्माण करवाया था।
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  • हर्षवर्धन ने सती प्रथा पर भी प्रतिबंध लगाया था इसने माजी कुरीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था साथ ही उसने अपनी बहन को भी क्षति होने से बचाया था
  • हर्षवर्धन सभी धर्मों का सामान आदर करता था।
  • हर्षवर्धन ने शिक्षा को भी काफी महत्व दिया है देशभर में कई कार्यक्रम चलाया इसका सबसे अच्छा उदाहरण नालंदा विश्वविद्यालय।
  • प्रयाग का मशहूर कुंभ मेला भी हर्ष ने शुरू करवाया था।
  • भारत की अर्थव्यवस्था हर्ष के शासन काल में बहुत तरक्की की थी।
  • हर्षवर्धन ने अपने आय को चार बराबर भागों में बांट रखा था जिनके नाम शाही परिवार के लिए, सेना तथा प्रशासन के लिए, धार्मिक निधि के लिए और गरीबों बेसहारों के लिए था।
  • 647 इसवी में हर्षवर्धन का निधन हो गया था।
  • हर्षवर्धन एक बड़ा गंभीर कूटनीतिज्ञ बुद्धिमान एवं अखंड भारत की एकता को साकार करने के स्वप्न को संजोने वाला राजनीतिज्ञ था।।

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गुप्त साम्राज्य का उदय( भाग-1) https://vinayiasacademy.com/?p=2757 https://vinayiasacademy.com/?p=2757#respond Mon, 27 Jul 2020 10:39:11 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2757 Share itगुप्त साम्राज्य का उदय गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी शताब्दी के अंत में प्रयाग के निकट कौशांबी में हुआ था जिस प्राचीनतम गुप्त राजा के बारे में पता चला है वह है श्री गुप्त हालांकि प्रभावती गुप्त के पुणे ताम्रपत्र अभिलेख में इसे आदिराज कहकर संबोधित किया गया है। यह प्राचीनतम भारतीय साम्राज्य था […]

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गुप्त साम्राज्य का उदय
गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी शताब्दी के अंत में प्रयाग के निकट कौशांबी में हुआ था जिस प्राचीनतम गुप्त राजा के बारे में पता चला है वह है श्री गुप्त हालांकि प्रभावती गुप्त के पुणे ताम्रपत्र अभिलेख में इसे आदिराज कहकर संबोधित किया गया है। यह प्राचीनतम भारतीय साम्राज्य था जो लगभग 319 से 605 ईसवी तक अपनी चरम पर मौजूद था और भारतीय उपमहाद्वीप में अधिकांश हिस्सों पर इनका आधिपत्य स्थापित था।मौर्य वंश के पतन के बाद दीर्घकाल में हर्ष तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं रही कुषाण एवं सात वाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का प्रयास किया मौर्योत्तर काल के उपरांत तीसरी शताब्दी ईस्वी में तीन राजवंशों का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्ति दक्षिण में वाकाटक तथा पूर्वी भाग में गुप्त वंश प्रमुख है मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनः स्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को गुप्त तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी के शुरुआत में हुआ गुप्त वंश का प्रारंभिक राजा आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था। श्री ग्रुप में गया में चीनी यात्रियों के लिए एक मंदिर बनवाया था जिसका उल्लेख चीनी यात्री इत्सिंग ने 500 वर्ष बाद किया पुराणों में यह कहा गया है कि आरंभिक गुप्त राजाओं का साम्राज्य गंगा द्रोणी प्रयाग साकेत तथा मगध में फैला था श्री गुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामंतों को प्रदान की जाती थी अतः श्री गुप्त किसी के अधीन शासक था प्रसिद्ध इतिहासकार केपी जायसवाल के अनुसार उक्त धाराओं के अधीन छोटे से राज्य प्रशासन चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार मगध के मन में एक मंदिर का निर्माण करवाया था तथा मंदिर के व्यय में 24 गांव को दान दिए थे।


गुप्त काल के ऐतिहासिक स्रोतों में विशाखदत्त खरीद देवीचंद्रगुप्तम तथा मुद्राराक्षस शुद्र का मृच्छकटिकम् कालिदास रचित मालविकाग्निमित्रम् कुमारसंभवम् रघुवंशम अभिज्ञान शाकुंतलम् प्रमुख है स्मृतियों में बृहस्पति नारद आदि प्रमुख है पुराणों के अनुसार वायु पुराण मत्स्य पुराण विष्णु पुराण ब्रह्म पुराण आदि से हमें गुप्तकालीन ऐतिहासिक स्रोत की जानकारी प्राप्त होती है इनके अलावा बौद्ध साहित्य मैं मंजूश्री मूल कल्प तथा वसुबंधु चरित तथा जैन साहित्य जिनसेन रचित हरिवंश पुराण से भी हमें गुप्तकालीन जानकारी प्राप्त होती है इनके अलावा विदेशी साहित्य को में फाह्यान का फो-क्यों-कि तथा युवान च्वांग ह्वेनसांग का सी-यु-की आदि ग्रंथ प्रमुख है। साथ ही पुरातात्विक स्रोतों से भी इनकी विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है यथा प्रशासकीय एवं अभिलेख समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति एवं एरण अभिलेख चंद्रगुप्त द्वितीय का महरौली स्तंभ लेख तथा उदयगिरी गुफा अभिलेख कुमारगुप्त प्रथम का मंदसौर लेख गढ़वा शिलालेख दिलशाद स्तंभ लेख स्कंद गुप्त का जूनागढ़ प्रशस्ति भीतरी स्तंभ लेख प्रमुख है।गुप्त साम्राज्य की जानकारी में मुद्राओं का भी काफी महत्वपूर्ण स्थान रहा है गुप्त योग्य से भारतीय मुद्रा के इतिहास में नवीन युग की शुरुआत आती है गुप्त शासकों की स्वर्ण एवं रजत मुद्राएं मंदिर एवं मूर्तियां उदयगिरि भूमरा नाचना कुठार देवगढ़ एवं तिगवा के मंदिर सारनाथ बुद्ध मूर्ति मथुरा की जैन मूर्तियां अजंता व भाग्य चित्र भूमि अदनान संबंधी भी कई महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त होती है। अतः गुप्त वंश का इतिहास की जानकारी के लिए उपरोक्त स्रोतों का होना अति आवश्यक है।

सर्वप्रथम साहित्यिक स्रोतों में पुराणों का महत्व पूर्ण स्थान है पुराणों में दी गई वंशावली यों का आलोचनात्मक अध्ययन करने के बाद या निष्कर्ष निकाला गया है कि पुराणों में दी गई गुप्त वंश संबंधी जानकारी विश्वसनीय है पुराणों की संख्या 18 है किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से वायु प्रवाह ब्रह्म पुराण मत्स्य पुराण विष्णु पुराण और भागवत पुराण अत्यधिक महत्त्व रखते हैं पुराणों से गुप्त साम्राज्य उसके विभिन्न प्रांतों तथा सीमाएं स्पष्ट चित्र मिलता है साम्राज्य के अखंड भागो तथा उसके कार्य क्षेत्र से बाहर के प्रदेशों में अंतर रखा गया है राजाओं तथा छोटे-छोटे राज्यों के नाम याद करने तथा उनकी क्षमता स्थापित करने में पुराणों से सहायता मिलती है साम्राज्य के अंदर के राज्य तथा स्वतंत्र राज्यों के अभ्युदय का समय निश्चित करने में भी वे सहायक रहे हैं पुराणों से ही ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त प्रथम साकेत तथा मगध में राज्य करता था गुप्त साम्राज्य के राज्य के पूर्वार्ध में उसके समकालीन शासक को जैसे तथा वाकाटक वंश और सिंध तथा पश्चिमी पंजाब में शक आदि का पूर्ण विवरण पुराणों से प्राप्त होता है।धर्म शास्त्रों से भी बहुत से लाभदायक सामग्री प्राप्त होती है जयसवाल मानता है कि नारद का समय पूर्व गुप्त काल था संभवत बृहस्पति भी पूर्व गुप्त काल में ही जीवित रहा व्यास हरित पितामह की स्मृतियां भी संभवत गुप्त काल में ही लिखी गई थी उनकी रचनाओं से पर्याप्त जानकारी मिलती है। मंदाकिनी 30r की रचना संभवत चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में उसके प्रधानमंत्री शिखर ने की पुस्तक का उद्देश्य राजा को आदेश देना था लेखक ने अपने स्वामी द्वारा सक शासक के वध की रक्षा की है।

लेखक के शब्दों में भेष बदलकर शत्रु की हत्या करने से नैतिकता का उल्लंघन नहीं होता। काव्य-नाटक साहित्य भी हमारे लिए लाभदायक है सेतुबंध काव्य या सेतु काव्य कौमुदी महोत्सव देवीचंद्रगुप्तम और मुद्राराक्षस इसी श्रेणी में आते हैं। सेतुबंधम एक प्राकृत काव्य है जिसमें लंका पर आराम के आक्रमण तथा रावण के वध को चित्रित किया गया है इस पुस्तक की रचना वाकाटक राजा भंवर सिंह ने की थी कौमुदी महोत्सव 5 अंकों में लिखा गया एक नाटक है कुछ विद्वानों का विचार है कि इस पुस्तक की रचना किशोरी का ने की और कुछ अन्य विद्वानों ने व जी का को इसकी लेखिका बताया है। मगर वास्तविकता यह है कि इस पुस्तक की रचना 340 इसी में की गई और इसमें मदद की तत्कालीन राजनीतिक अवस्था का चित्रण किया गया है इस नाटक की कथा के अनुसार सुंदर वर्मा मगध का राजा था उसकी कई रानियां थी लेकिन उस में से किसी ने भी पुत्र को जन्म नहीं दिया था जब वह बूढ़ा होने लगा तो उसने चंद्रसेन को दत्तक पुत्र बना लिया वह मदद खुद का था और उसकी पत्नी लिखी हुई जाति की थी प्लीज कोई मदद के राजवंश के पुराने शत्रु थे नाटक में छवियों को मलेज कहा गया है चंद्रसेन को गोद लेने के बाद सुंदर वर्मा के एक पुत्र हुआ जिसका नाम उसने कल्याण वर्मा रखा राजा अपने पुत्र को बहुत चाहने लगा चंद्रसेन को यह अच्छा ना लगा और उसने अपने पोषक पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया युद्ध में सुंदर वर्मा की मृत्यु हो गई और चंद्र सेन राजा बन गया प्रधानमंत्री मंत्र गुप्त तथा सेनापति कुंजारा को यह मानना था और उन्होंने स्वर्गीय राजा के वास्तविक पुत्र का पक्ष ले लिया उसे बहुत दूर एक सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया जहां वह कई वर्ष रहा प्रधानमंत्री तथा सेनापति अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करने लगे जब उसे सिंहासन पर बैठाया जाए सीमांत प्रदेश में एक विद्रोह को दबाने के लिए चंद्रसेन को राजधानी छोड़नी पड़ी चंद्रसेन की अनुपस्थिति में कल्याण वर्मा को राजधानी में लाया गया और चंद्रसेन को गद्दी से उतार कल कल्याण वर्मा को राजा बना दिया गया कहा गया है कि चंद्रसेन ही गुप्त वंश का चंद्रगुप्त प्रथम था इस नाटक में गुप्त वंश की उत्पत्ति तथा उन्नति पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है गुप्त वंश के इतिहास की गई उलझन को सुलझाने में इसने विद्वानों की सहायता की है।

देवीचंद्रगुप्तम एक राजनीतिक नाटक है और इसकी रचना का श्रेय मुद्राराक्षस के लेखक विशाखदत्त को दिया जाता है इस नाटक की पूर्ण प्रति प्राप्त नहीं हो सकी है मगर कुछ लेखकों द्वारा लिए गए उठकर उदाहरण ही प्राप्त हुए हैं अभिनव गुप्त ने इसके उदाहरण अभिनव भारतीय में दिए भोज ने श्रृंगार प्रकाश में रामचंद्र ने न्याय दर्पण में तथा सागर ना दिन ने नाटक लक्षण रत्न कोष में इसके उदाहरण दिया इस पुस्तक में दी गई जानकारी को एकत्र करके देवीचंद्रगुप्तम की पूर्ण प्रति बनाई जा सकती है नाटे दर्पण से ज्ञात होता है कि राम गुप्त चंद्रगुप्त द्वितीय का बड़ा भाई था अंत:पुरा में रानी का सेवक माधव सिंह था राजकुमार चंद्रसेन रानी का प्रेमी बन गया सतपति राम गुप्त का शत्रु था उन दोनों के युद्ध में राम गुप्त की पराजय हुई और उसने अपनी रानी ध्रुव देवी को शक राजा को देना स्वीकार किया बताया गया है कि राम ग्रुप में या शक मंत्रियों के परामर्श से स्वीकार की जनता के परामर्श से नहीं।विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस से भी लाभदायक जानकारी मिलती है कथावस्तु तो चंद्रगुप्त मौर्य तथा कौटिल्य द्वारा मौर्य वंश की स्थापना से संबंध है किंतु प्रतीत होता है कि विशाखदत्त ने अपने समय में गुप्त वंश की स्थापना संबंधी घटनाओं का उल्लेख भी कर दिया है नाटक कूटनीति तथा राजनीति भरपूर है गुप्त काल में राजा के धर्म तथा जनता की धार्मिक स्थिति पर भी प्रकाश पड़ता है ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक सहिष्णुता प्रचलित थी नाटक में जीव सिद्दीकी महत्वपूर्ण स्थिति से इसकी पुष्टि होती है।
फाहियान एक चीनी यात्री लेखक खा लिया चीनी यात्री गुप्त नरेश चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में आया था इसके विवरण में गुप्त कालीन भारत की सामाजिक आर्थिक धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है इसने अपने विवरण में मध्य एशियाई देशों के बारे में बताया है या चीन से रेशम मार्ग प्राचीन काल और मध्य काल में ऐतिहासिक व्यापारिक सांस्कृतिक मार्गों का समूह था जिसके माध्यम से एशिया यूरोप अफ्रीका जुड़े हुए थे इससे होते हुए भारत आया था।फाहियान एक चीनी बौद्ध भिक्षुक यात्री लेखक एवं अनुवादक थे जो 399 ईसवी से लेकर 412 ईसवी तक भारत श्रीलंका और आधुनिक नेपाल में स्थित गौतम बुद्ध के जन्म स्थल कपिलवस्तु धर्म यात्रा पर आए उनका दिए यहां से बौद्ध ग्रंथ एकत्रित करके उन्हें वापस छीन ले जाना था उन्होंने अपनी यात्रा का वर्णन अपने पूरे ग्ररंथ में लिखा जिसका नाम बहुत राज्यों का एक अभिलेख चीनी बिच्छू आसियान की बौद्ध अभ्यास पुस्तकों की खोज में भारत और शिलोन की यात्रा था।

उनकी यात्रा के समय भारत में गुप्त राजवंश के चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का काल था और चीन में जीन राजवंश का काल चल रहा था। फाह्यान द्वारा लिखित विवरण से भी पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है ।फाहियान का मुख्य उद्देश्य बौद्ध पुस्तकों तथा कि मंत्रियों की खोज करना था किंतु उसने तत्कालीन सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति की भी पर्याप्त जानकारी दी उसने नगरों तथा नागरिकों के धन समृद्धि का उल्लेख किया है राज्य तथा अन्य परोपकारी संस्थाओं द्वारा चलाए निशुल्क चिकित्सालय कभी उसने वर्णन किया है। एक अन्य चीनी यात्री इत्सिंग का भी इतिहास में नाम उल्लेखनीय है वह भी एक बौद्ध भिक्षुक था यो चीन से सुमात्रा के रास्ते समुद्री मार्ग से भारत आया था और 10 वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय में रहा था उसने वहां के प्रसिद्ध आचार्य से संस्कृत तथा बौद्ध धर्म के ग्रंथों को पढ़ा सिंह ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ भारत तथा मले निकुंज में प्रचलित बौद्ध धर्म का विवरण लिखा उसने नालंदा एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा उस समय के भारत पर प्रकाश डाला है उस समय के भारत पर प्रकाश डाला इस ग्रंथ से हमें उस काल के भारत के राजनीतिक इतिहास के बारे में तो अधिक जानकारी नहीं मिलती परंतु जागरण बौद्ध धर्म और संस्कृत साहित्य के इतिहास का अमूल्य स्रोत माना जाता है इसने भारत में कागज का प्रयोग देखा था सिंह ने अपनी पुस्तक में जय आदित्य के वृत्तीसूत्र का उल्लेख किया है।चीनी यात्री ईत्सिग ने हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात भारत की यात्रा की उसने महाराजा श्री गुप्त का उल्लेख किया है जिसने चीनी तीर्थ यात्रियों द्वारा एक मंदिर निर्माण करवाने का उल्लेख किया है। गुप्त काल की जानकारी में अभिलेखों का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है गुप्तकालीन इतिहास लिखने में अभिलेख भी काफी सहायक सिद्ध हुए हैं गुप्त अभिलेखों में आरंभिक गुप्त राजा तथा उनके उत्तराधिकारी ओं के अभिलेख हैं किंतु डॉक्टर फ्लिट ने केवल आरंभिक गुप्ता राजाओं के ही नहीं बल्कि उत्तर कालीन गुप्त राजाओं के अभिलेख भी संकलित किए हैं।आरंभिक गुप्त राजाओं की मुख्य शाखा को स्कंद गुप्त के साथ समाप्त हुई समझा जाता है 484 ईसवी का बुध गुप्त तथा 510 का भानु गुप्त का पर्स के क्रम से 19 तथा 20 अभिलेखों में उल्लिखित है समुद्रगुप्त के इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख से भारतीय नेपोलियन की विधियों का विस्तृत विवरण मिलता है समुद्रगुप्त के एरण शिलालेख अभिलेख संख्या 2 से भी समुद्रगुप्त की शक्ति तथा कार्यकलापों का ज्ञान होता है।उदयगिरि गुफा अभिलेख मथुरा शिलालेख सांची शिलालेख और गढ़वा शिलालेख सभी चंद्रगुप्त द्वितीय के हैं और धर्म के प्रति राज्य की नीति से हमें अवगत कराते हैं गढ़वा शिलालेख मिल चार स्तंभ शिलालेख और मन कुंवर मूर्ति शिलालेख में कुमारगुप्त प्रथम का वर्णन है दो भागों में बिहारी स्तंभ शिलालेख भिकारी स्तंभ शिलालेख जूनागढ़ जिला अभिलेख कहां हो स्तंभ शिलालेख और इंदौर ताम्रपत्र अभिलेख में स्कंद गुप्त का वर्णन दिया गया है।

महरौली लौह स्तंभ अभिलेख में किसी राजा चंद्र का वर्णन है व्यास नदी के निकट एक पहाड़ी पर इसके मालिक स्थान से दिल्ली का एक शासक इसे दिल्ली के निकट महरौली ले आया इस अभिलेख में कहा गया है कि उसके विरुद्ध संगठित एक राजा समूह के विरुद्ध युद्ध करके उसने वह लिखो पर भी विजय पाई उसने अपनी विजय ख्याति दक्षिणी समुद्र तक पहुंचा ही अपनी भुजाओं की शक्ति से उसने संसार में अपनी सर्वोच्च सत्ता स्थापित की।स्कंद गुप्त के भी तारी स्तंभ अभिलेख में उसके पिता कुमारगुप्त प्रथम के समय में पुष्य मित्रों तथा संभवत हूणों के साथ भी स्कंद गुप्त के युद्ध का वर्णन है।इस अभिलेख से स्कंद गुप्त के कार्यकलापों का वर्णन प्राप्त होता है बताया गया है कि उसने आक्रमणकारी या आक्रमणकारियों को बुरी तरह पराजित किया और विजई होकर वापस राजधानी लौट आया प्रतीत होता है कि उसके वापस लौटने पर उसके पिता ने राज्य कार्य उसे सौंप दिया। इनके अलावा मोहरे भी गुप्तकालीन जानकारी प्रदान करने में काफी महत्वपूर्ण योगदान निभाया है।इतिहासकारों का यह मानना है कि अगर किसी देश का इतिहास जानना है तो उसके तत्कालीन सिक्कों का प्रचलन देखना चाहिए भारत को सोने की चिड़िया का नाम देने वाला वंश का इतिहास उसके सिक्के के रूप में दिखाई देता है गुप्त वंश के सिक्के बहुमूल्य धातु जैसे सोने और चांदी के अलावा शीशे के बने होते थे विदेशी व्यापार की अधिकता के कारण सोनभंडार में हमेशा वृद्धि होती रहती थी और इस कारण समाज में स्वर्ण एवं रजत सिक्कों का प्रचलन अधिक था।गुप्त वंश में स्वर्ण मुद्रा का प्रचलन अधिक था इसके अतिरिक्त इस मुद्रा में कलात्मकता का भी अधिक किया था उस समय जारी की गई स्वर्ण मुद्रा को दिनार कहा जाता था इन मुद्राओं के निर्माण में कुषाण वंश द्वारा प्रयोग की गई स्वर्ण मुद्रा की मात्रा तुलनात्मक रूप से कम थी ।

इसके अलावा जब चंद्रगुप्त द्वितीय के शासकों को पराजित करके गुजरात राज्य को अपने अधीन कर लिया तब विजय प्रतीक स्वरूप चांदी के सिक्के जारी किए गए लेकिन यह मुद्रा आम आदमी के दैनिक व्यवहार के लिए उपयुक्त नहीं थी इसलिए रोजमर्रा की जिंदगी में उन्हें वस्तुओं के आदान-प्रदान और कौड़ियों का प्रयोग से काम चलाना पड़ता था।गुप्त वंश में चंद्रगुप्त प्रथम ने सबसे पहले सिक्कों का प्रचलन शुरू किया था इन सिक्कों के एक और चंद्रगुप्त का चित्र अंकित था तो दूसरी और रानी कुमार देवी को अंकित किया गया था अपने पूरे शासनकाल में चंद्रगुप्त ने इस प्रकार के छह सिखों को जारी किया था आरंभ में इन सिक्कों का वजन 120 से 121 ग्रैंन हुआ करता था।चंद्रगुप्त द्वारा जारी किए गए सिक्कों में सबसे अधिक प्रचलित सिक्कों में हुआ सिक्का था जिसमें उसके बाएं हाथ में ध्वज धारण किए हुए था इस चित्र में भी उसके कुषाण सम्राट की भांति विदेशी पोशाक धारण किए हुए दिखाया गया है इसी प्रकार चंद्रगुप्त की रानी को भी विदेशी रूप में दिखाया गया था।चंद्रगुप्त के पुत्र समुद्रगुप्त द्वारा जारी किए गए सिखों में विदेशी कोर्ट नहीं था समुद्र ग्रुप में अपने सिक्कों में स्वयं को एक धनुर्धर के रूप में प्रदर्शित किया था इस चित्र को आगे आने वाले गुप्त शासकों ने भी पसंद करते हुए अपनाया था इसके अलावा समुद्रगुप्त द्वारा जारी किए गए सिखों में उसे एक हाथ में युद्ध में प्रयोग किए जाने वालेकुल्हाड़ी के साथ भी दिखाया गया है और इसके साथ ही उसके सामने एक संदेश वाहक अभी खड़ा है समुद्रगुप्त ने कला प्रेमी व धार्मिक रूप को भी सिखों के रूप में दिखाया जा सकता है कुछ सीखो मैं उसे वीणा बजाते हुए यज्ञ करते हुए भी दिखाया गया था समुद्रगुप्त ने मुख्य रूप से केवल 10 शिक्षकों को ही जारी किया था उसके राज्य में तांबे के सिक्के का प्रचलन नाममात्र का ही था इस समय जारी किए गए सिक्के का वजन 144 ग्रेन था जबकि चांदी के सिक्कों का भार 30336 ग्रेन रखा गया था।गुप्त वंश के एक और शासक कुमारगुप्त ने भी कुछ सिक्कों को जारी किया था यह सिक्के पहले के शासकों की तुलना में काफी भीड़ थी कुमारगुप्त ने अपने शासनकाल में लगभग 14 प्रकार के स्वर्ण सिक्कों को जारी किया था इन सिक्कों में अधिकतर घुड़सवार की आकृति वाले सिक्के देखे जा सकते हैं।इसके अलावा नाचते हुए मोर को भी कुछ स्वर्ण मुद्रा में अंकित किया गया था अपने पूर्वजों की परंपरा का पालन करते हुए कुमारगुप्त ने स्वयं को एक अधिकारी व क्षत्रिय के रूप में भी सिखों पर अंकित करवाया था इसके लिए कहीं चीते का शिकार तो कहीं अश्वमेघ करते हुए अंकित करवाई गई इसके अतिरिक्त को सिखों पर देखा जा सकता है चंद्रगुप्त भाटी राजा रानी को भी सिखों पर अंकित करवाया गया इस प्रकार कहा जा सकता है गुप्त वंश की प्रतिष्ठा का परिचायक रहे हैं।मुजफ्फरपुर जिले में वैशाली से बहुत बड़ी संख्या में मोरे प्राप्त हुई है चंद्रगुप्त द्वितीय की रानी महादेवी ध्रुवस्वामिनी की मुहर भी प्राप्त हुई है यह महाराजा गोविंद गुप्त की माता की यह संभवत कुमारगुप्त प्रथम का छोटा भाई था अपने पिता चंद्रगुप्त द्वितीय के राज्य में हुआ वैशाली का गवर्नर था वैशाली के अन्य कर्मचारियों की अनेक मोरे भी वहां से प्राप्त हुई है मोरो की विविधता तथा नमूने से प्रांतीय तथा स्थानीय प्रशासन के संबंध में पता चलता है उच्च तथा अधीन कर्मचारियों की मोहरे प्राप्त हुई है नागरिक तथा सैनिक प्रशासन ने कर्मचारियों की एक लंबी सूची हमें प्राप्त हो जाती है। गोपी इतिहासकार की बहुत सी सामग्री गुप्त सम्राटों के सिक्कों से प्राप्त होते हैं गुप्त वंश के सिक्कों का नियमित अध्ययन किया गया है समुद्रगुप्त द्वारा चलाए गए सिक्के प्राप्त हुए हैं इन पर चंद्रगुप्त प्रथम तथा उसकी रानी कुमार देवी के चित्र अंकित है। समुद्रगुप्त के चीता प्रकार वीणा वादक प्रकार और श्रमिक प्रकार पताका प्रकार धनुर्धर प्रकार आदि सिक्के प्राप्त हुए हैं चंद्रगुप्त द्वितीय के भी विभिन्न प्रकार के अनेक सिक्के हैं यथा धनुर्धर प्रकार संघ प्रकार छात्र प्रकार शेर घातक प्रकार घुड़सवार प्रकार कुमारगुप्त प्रथम के भी कई सिक्के मिले हैं जो धनुर्धर प्रकार अशोक में प्रकार घुड़सवार प्रकार से घातक प्रकार चीता घातक प्रकार हाथी सवार प्रकार आदि स्कंद गुप्त के धनुर्धर प्रकार के सिक्के मुख्यतः सोने के हैं इसको मुद्रा लेखों से कवि की श्रेष्ठ झलकती है चंद्रगुप्त ने चांदी के सिक्के केवल उन्हीं प्रदेशों के लिए चलाएं जो पहले पश्चिमी क्षेत्र को के अधीन किंतु बाद में चांदी के सिक्के ग्रुपों के लिए भी चला दिए गए।


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मौर्योत्तर कालीन भारत तथा इंडो ग्रीक परिस्थिति:–

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लगभग 2200 वर्षों पहले मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया मौर्य वंश के पतन हो गया तथा शुंग वंश के साथ-साथ कई नए छोटे-छोटे राज्यों का भी होता है होना प्रारंभ हो गया था पश्चिमोत्तर में तथा उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में करीब एक सौ सालो तक हिंदी यवन राजाओं का शासन रहा इसके बाद पश्चिम उत्तर तथा उत्तर पश्चिमी भारत पर सको ने मध्य एशियाई लोगों का शासन स्थापित किया इनमें से कुछ राज लगभग 500 वर्षों तक टिके रहे जब तक कि उन्हें गुप्त राजाओं से पराजय का मुंह ना देखना पड़ा, सको के बाद किसानों ने अपना अधिपत्य किया सॉन्ग के बाद कारण और इसी प्रकार कई छोटे-छोटे साम्राज्य का उदय होता रहा उस समय तक जब तक गुप्त साम्राज्य 1700 वर्षों पहले अपने अस्तित्व में नहीं आए अतः गुप्त साम्राज्य की स्थापना होने के बाद इन्होंने गुप्त साम्राज्य की स्थापना की और इन सारे छोटे-छोटे राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया और एक विशाल गुप्त साम्राज्य की स्थापना की जाने के बाद भारत में राजनीतिक एकता का ह्रास होने लगा अब विशाल मौर्य साम्राज्य छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो ना प्रारंभ हो गया था। उत्तर भारत में विदेशी आक्रमणकारियों तथा दक्षिण भारत में स्थानीय शासकों ने शिथिल पड़े इस अव्यवस्था का लाभ उठाना प्रारंभ कर दिया था, इस स्थिति का लाभ उठाते हुए पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य साम्राज्य पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।

पुष्यमित्र शुंग गाने अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर 187 ईसा पूर्व मौर्य साम्राज्य का शासक बन गया अतः इसी समय मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया और शुंग वंश की स्थापना हुई। तत्कालीन ऐतिहासिक स्रोत पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार यूनानीयों ने अवध के साकेत और चित्तौड़ के मध्यामिका नगरी पर आक्रमण किया था जिसे पुष्यमित्र शुंग ने पराजित कर दिया पुष्यमित्र अंतिम बार नरेश मर्यादा का प्रधान सेनानायक था इस के प्रारंभिक जीवन के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध नहीं है मगर दो वरदान के अनुसार उसे उसे उसे पुस्यधर्म का पुत्र बताया गया है ज्ञात होता है कि 1 दिन बृहदरथ की सेना का निरीक्षण करते समय पुष्यमित्र ने धोखे से उसकी हत्या कर दी ।इसका उल्लेख पुराणों में भी है तथा बाणभट्ट में अपने पुस्तक हर्षचरित में भी इस घटना का वर्णन किया है। पुराण, हर्षचरित तथा पतंजलि का महाभाष्य इतिहास के मुख्य स्रोत है इस संबंध में कुछ सामग्री चौथी शताब्दी के जैन लेखन में रोहतांग कि थेरावादी से भी प्राप्त होती है। कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् में भी पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ तथा विदर्भ राजा के साथ अग्नि मित्र की लड़ाई का वर्णन है धनदेव के अभिलेख से पुष्यमित्र द्वारा दी गई दो घोड़ों की बलि का पता चलता है दिव्या उडान रंगों के धार्मिक उत्पीड़न का ज्ञान कराता है तिब्बती इतिहास अग्य तारा नाथ ने भी संभव के धार्मिक उत्पीड़न का वर्णन किया है। यह भी कहा जाता है कि सॉन्ग भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण हुआ करते थे हमें ब्राह्मणों के सेनापति होने का प्रमाण मिलता है द्रोणाचार्य कृपाचार्य अश्वत्थामा परशुराम इत्यादि इस तथ्य के सबल प्रमाण है। दिव्या को दान में लिखा है कि पुष्यमित्र मौर्य की वंश परंपरा से ही था मालविकाग्निमित्रम् में कालिदास ने बताया है कि पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र बेंबीक वंश का था। उसे मित्र मैं 36 वर्ष तक शासन किया अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी मृत्यु के समय वह वृद्ध होगा विभिन्न और लेखों से इस तथ्य का पता चलता है कि न केवल उसके पुत्र नहीं बल्कि उसके पौत्र ने भी देश पर प्रशासन ने भाग लिया था।

(Vinayiasacademy.comपुष्यमित्र शुंग अंतिम मौर्य नरेश ‌ बृहद्थ का प्रधान सेनानायक था इस के प्रारंभिक जीवन के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध नहीं है मगर दीव्यावदान के अनुसार उसे पुस्यधर्म का पुत्र बताया गया है। ज्ञात होता है कि 1 दिन बृहदरथ सेना का निरीक्षण कर रहा था उस समय पुष्यमित्र ने धोखे से उसकी हत्या कर दी ,इसका उल्लेख पुराणों में भी है तथा बाणभट्ट ने अपनी पुस्तक हर्षचरित में भी इस घटना का वर्णन किया है। पुराण, हर्षचरित तथा पतंजलि का महाभाष्य इतिहास के मुख्य स्रोत हैं।इस संबंध में कुछ जानकारी चौथी शताब्दी के जैन लेखन में रोहतांग कि थेरावादी से भी प्राप्त होती है। कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् में भी पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ तथा विदर्भ राजा के साथ अग्नि मित्र की लड़ाई का वर्णन है ।धनदेव के अभिलेख से पुष्यमित्र द्वारा दी गई दो घोड़ों की बलि का पता चलता है । तिब्बती इतिहास अग्यतारा नाथ ने भी संभव के धार्मिक उत्पीड़न का वर्णन किया है। यह भी कहा जाता है कि शून्ग भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण हुआ करते थे , इन्हें ब्राह्मणों के सेनापति होने का प्रमाण मिलता है:- द्रोणाचार्य ,कृपाचार्य ,अश्वत्थामा, परशुराम इत्यादि इस तथ्य के सबल प्रमाण है। दिव्यावदान में लिखा है कि पुष्यमित्र मौर्य की वंश परंपरा से ही था। मालविकाग्निमित्रम् में कालिदास ने बताया है कि पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र बेंबीक वंश का था।

पुष्यमित्र ने 36 वर्ष तक शासन किया अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी मृत्यु के समय वह वृद्ध होगा विभिन्न लेखों से इस तथ्य का पता चलता है कि न केवल उसके पुत्र ने बल्कि उसके पौत्रों ने भी देश के प्रशासनमें भाग लिया था।पुराण और हरषचरित्र तथा मालविकाग्निमित्रम् सभी में पुष्यमित्र के लिए सेनानी अर्थात सेनापति की उपाधि का ही प्रयोग मिलता है जबकि उसके पुत्र अग्निमित्र को राजा बताया गया है।इस आधार पर कुछ विद्वानों का विचार है कि पुष्यमित्र कभी राजा नहीं बना तथा बृहद्रथ को पदच्युत करने के पश्चात उसने अपने पुत्र को ही राजा बना दिया था किंतु इस प्रकार का विचार तर्कसंगत नहीं लगता। हमें ज्ञात है कि पुष्यमित्र रहने दो अश्वमेघ यज्ञ करवाए थे इसे प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माना गया था इसी से स्पष्ट है कि उसने राज्य भारत ग्रहण किया था।ऐसी विकट परिस्थिति में पुष्यमित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमा कर जहां एक और यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की वहीं दूसरी ओर देश में शांति और व्यवस्था की भी स्थापना कर वैदिक धर्म एवं आदर्शों की जो अशोक के शासनकाल में उपेक्षित हो गए थे पुनः प्रतिष्ठा की। पुष्यमित्र ने वृहद्रथ की हत्या के बाद उसके सचिव को कारागार में डाल दिया था तथा पुष्यमित्र का पुत्र अग्नि मित्र विदिशा का उप राजा बनाया गया उसका मित्र माधव सिंह था जो विदर्भ नरेश यज्ञ सेन का चचेरा भाई होता था परंतु दोनों के संबंध अच्छे नहीं थे।ऐसा कहा जाता है कि विदर्भ साम्राज्य नया ही था और उसकी जड़े अभी मजबूर भी नहीं हुई थी अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ जिसे पुष्यमित्र ने गद्दी से हटा दिया था विदर्भ नरेश यज्ञ सेन का संबंधी बताया गया है। यज्ञ सेन का चचेरा भाई माधव सेन गुप्त रूप से अग्निमित्र से भेंट करने विदिशा आ रहा था किंतु वह मार्ग में ही सीमा के पास पकड़ा गया तथा जेल में डाल दिया गया अग्निमित्र ने यज्ञ सेन से माधव सेन को छुड़वाने को कहा यज्ञ सेन ने उत्तर में अपने एक बहनोई मौर्य मंत्री की मुक्ति की मांग की इस बात पर घमासान युद्ध हुआ और अग्नि मित्र ने वीरसेन को विदर्भ के विरुद्ध सेनापति नियुक्त किया यज्ञ सेन की हार हुई और माधव सेन को मुक्ति मिली विदर्भ उन दोनों ने बांट लिया और वरद नदी दोनों के राज्य की सीमा बनी। डॉक्टर वी ए स्मिथ का मानना है कि कलिंग नरेश खारवेल ने पुष्यमित्र के काल में मगध पर 2 बार आक्रमण किया। वह पाटलिपुत्र से कुछ ईमेल दूर रह गया था पुष्यमित्र कपट पूर्वक मथुरा तक पीछे हट गया और खारवेल ने आगे ना बढ़ ना ही उचित समझा खारवेल का दूसरा आक्रमण वन 61 ऐसा पूर्व में हुआ और अधिक सफल रहा खारवेल ने कलिंग के प्रसिद्ध हाथियों की सहायता से गंगा को उत्तर की ओर से पार किया और मगध की राजधानी पर आधमका । और इसी समय पुष्यमित्र को घुटने टेकने पड़े , मगर इस घटना को कई विद्वानों ने मानने से इनकार कर दिया।

प्रोफेसर रैपसेन का मानना है कि आंध्र के राजा सतकरणी ने पुष्यमित्र से उज्जैन को जीत लिया था नवीन खोजों से पता चलता है कि प्रोफेसर रैप सेन कामत गलत था सात अर्थात सातवाहन कलुगू रूप है सत करने का नहीं हमें ऐसे सिक्के प्राप्त हुए हैं जिन पर लिखा है रानो सिरी सदवाहनस। इसके अतिरिक्त उसकी रानी नयनिका के लेखों से भी यह ज्ञात नहीं होता है कि अवंती को सतकरनी प्रथम ने जीता था। जैन परंपरा के अनुसार पुष्यमित्र 30 वर्षों तक अवंतिका राजा रहा। बैक्ट्रिया विद्रोह का नेता डायोडोटस प्रथम को माना जाता है। माना जाता है कि विद्रोह से पहले काफी समय तक उसने बैक्ट्रिया और सोग्दीयाना मैं सेल्युसीद सम्राट के गवर्नर के रूप में राज्य किया था। छतरप के रूप में उसने एंटी ऑर्कस प्रथम को मिस्र के शासक टोलेमी फिलाडेल्फिया के साथ उसके 274 से 73 ईसा पूर्व के संघर्ष में 20 हाथी सहायता के रूप में भेजे थे । वह एक शक्तिशाली राजा था उसके पड़ोसी उससे डरते थे।डायोडोटस प्रथम के बाद उसका पुत्र डायोडोटस द्वितीय राजा बना मगर उसने अपने पिता की पार्थिया विरोधी नीति को पलट दिया और पारथियों के राजा के साथ संधि कर ली। जिसका परिणाम यह हुआ के सेल्यूकस द्वितीय ने पार्थिया पर आक्रमण किया तो सेल्यूकस ने उसे परास्त कर दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि यूथिडेमस ने डायोड डॉटर्स द्वितीय को केवल सिंहासन से ही नहीं उतारा बल्कि कुछ समय बाद उसका वध भी कर दिया। एंटी ओकास प्रथम अपने पिता सेल्यूकस के साथ 293 ईसापुर में राजा बना और बाद में स्वतंत्र राजा बन गया एशिया माइनर में उसने गाल जाती पर एक महान विजय प्राप्त की और सेवियर उपाधि धारण की उसका पुत्र एंटीओकस द्वितीय 266 ईसापुर में अपने पिता के साथ राजा बना और कुछ वर्षों के बाद वह स्वतंत्र राजा बन गया एंटीओकस द्वितीय शराबी और विलासि था।

दिव्यावदान में उल्लेखित बौद्ध परंपरा तथा तिब्बती इतिहासकार तारा नाथ के अनुसार पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का घोर शत्रु था। दिव्या को दान में कहा गया है कि अपने ब्राह्मण पुरोहित के परामर्श पर चलते हुए उसने भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को नष्ट करने का प्रयत्न किया था वह पाटलिपुत्र में स्थित कुक्कुट आराम बिहार को नष्ट करने गया किंतु वह गर्जना से भयभीत होकर वापस लौट आया इसके बाद वह चतुर रागिनी सेना सहित स्तूपोर को तोड़ता बिहारों को जलाता भिक्षुओं की हत्या करता साकल तक बढ़ आया पुष्यमित्र ने साकल में घोषणा की कि जो भी मुझे एक श्रावण का शिर भेंट करेगा उसे मैं 100 दिनार दूंगा मिलिंदपन्हो में सकल को बौद्ध भिक्षुओं का निवास स्थान बताया गया है। ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान इसी काल में हुआ था पुष्यमित्र के काल में बौद्ध धर्म की अपेक्षा वैदिक धर्म का अधिक प्रभुत्व स्थापित हो चुका था। पूजा यज्ञ बलि की प्रथा किस काल में पुनः अस्तित्व में आ गई थीमाना जाता है कि पुष्यमित्र शुंग के किसी एक यज्ञ में पुरोहित का कार्य पतंजलि ने किया था धनदेव के अयोध्या अभिलेख से उसे मित्र द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किए जाने का उल्लेख मिलता है। 151 ईसापुर में पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु के पश्चात संभोग का संगठित शासन छीण हो गया था।विभिन्न पुरातात्विक एवं मुद्रा साक्ष्यों के आधार पर पुष्यमित्र की मृत्यु के बाद से ही सुंगों का राजनीतिक महत्व कमजोर हो गया था एवं उसकी मृत्यु के 100 वर्षों में ही सत्ता का अंत हो गया। पुराणों के अनुसार शुंग वंश में 10 राजा हुए जिन्होंने 112 से 120 वर्ष तक शासन किया सर्वाधिक प्रतापी शासक पुष्यमित्र ही था जिसने 36 वर्षों तक एवं उसके बाद नए सॉन्ग शासक भागवत ने 32 वर्षों तक शासन किया। पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु के पश्चात मगध पर पंचालु ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था तथा सुवो की सत्ता विदिशा के समीपवर्ती क्षेत्रों तक ही सीमित रह गई इस काल में पाटलिपुत्र भी अपना राजनीतिक महत्व हो चुका था। मथुरा पांचाल अयोध्या एवं अन्य निकटवर्ती स्थानों पर मित्र एवं दत्त के नाम वाले मुद्राएं एवं सिक्के अवशेष के रूप में प्राप्त हुए हैं जिन्हें कुछ विद्वान स्वतंत्र राजाओं द्वारा प्रचलित सिखों के रूप में इन्हें स्वीकार किया है। इसकी मृत्यु के उपरांत उत्तराधिकारी के रूप में सॉन्ग देश के शासन को अग्निमित्र ने संभाला पूर्व में विदिशा में उप राजा के रूप में अग्निमित्र को शासन का कार्यभार सौंपा गया था। कालिदास द्वारा रचित नाटक मालविकाग्निमित्रम् में अग्नि मित्र का उल्लेख मिलता है जिसमें इसे नायक के रूप में दिखाया गया है।मदर अग्नि मित्र भोग विलास में लिप्त रहने वाला शासक था जो अधिकांश सूरा सुंदरियों में व्यस्त रहता था पंजाब के यूनानी शासकों के साथ इसकी मीत्रता पूर्ण संबंधित है इसमें 8 वर्षों तक शासन किया इसके बाद इसकी मृत्यु हो गई।

अग्निमित्र के उपरांत शुंग वंश का शासन जेस्ट मित्र ने संभाला था इसे अपने मित्र के छोटे भाई के रूप में जाना गया है तथा इसने 7 वर्षों तक शुंग वंश के शासन का कार्यभार संभालावासु मित्र एक प्रतापी और शक्तिशाली शासक था जिसने राज्यभर स्वीकार करने से पूर्व ही यूनानी यों को परास्त कर दिया था।बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार मित्र देव या मूल देव ने एक नाटक के प्रदर्शन के दौरान वासु मित्र की हत्या कर दी। भागवत पुराण के अनुसार वासु मित्र का उत्तराधिकारी शासक भद्रक था जिसे आंध्र या अंतक के रूप में भी पहचाना गया था पुराणों के अनुसार अदरक या भद्रक के बाद क्रमशः 3 शासक पुलिंदा घोष वज्र मित्र ने स्वशासन की उत्तराधिकारीता को ग्रहण किया। वज्र मित्र के बाद सोम वंश का शासन भागवत ने संभाला था भागवत शुंग वंश का नवा शासक था संभवत साक्ष्यों के आधार पर पुष्यमित्र के पश्चात शुंग वंश का सबसे प्रतापी राजा भागवत को माना गया है इसमें लगभग 32 वर्षों तक शासन किया। तक्षशिला के यूनानी शासक एंटीकस का राजदूत हेलिओडोरस शुंग वंश के शासक भागवत के काल में ही सुख दरबार में आया था यह भागवत के काल की एवं सोमवंश के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।शुंग वंश का सबसे अंतिम प्रतापी एवं शक्तिशाली शासक भागवत था जिसका शासनकाल सभी अर्थों में महत्वपूर्ण रहा। शुंग वंश का अंतिम शासक तरुण एवं अत्याचारी शासक देवभूति था जिसने लगभग 10 वर्षों तक शासन किया देवभूति इसके स्वयं के आमात्य द्वारा 75 ईसापुर में मार दिया गया था इस तरह सुंग शासन का अंत हो गया।पुष्यमित्र के वंशजों का राज्य भारत के इतिहास में और विशेष रूप से मध्य भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण युग का प्रवर्तक था मध्य देश से भयभीत करने वाले यूनानो के नवीन आक्रमण रुक गए और सीमा प्रांत के यूनानी यों ने अपने सेल्यूकसी पूर्वजों की नीति अपना ली।इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सुनो नहीं देश को यवन आक्रमण से बचाया अगर सोंग देश में एक मजबूत राज्य स्थापित कर लिया ।

इस काल में धर्म साहित्य और कला के क्षेत्र में इतना कार्य हुआ कि उसकी तुलना गुप्त काल से की जा सकती है। सिंह काल भवन निर्माण कला में भी एक नया युग लेकर आए थे यह लोग बौद्ध स्तूपों के लकड़ी के जंगले पत्थरों के जंगलों में बदल दिए। भारत के जंगलों में शुंग काल को अमर बना दिया।विदिशा के हाथी दांत के कारीगरों ने ही अपने निकटवर्ती सीमा में सांची के अमर स्मारक द्वारों को बनाया। पुणे के निकट भाजी स्थित एक बिहार भी बनाए ब्रज में पुराने बिहार के निकट एक बड़ा चैत्य और चट्टान में से कटे स्तूप तथा अजंता के चैत कक्ष नंबर 9 अमरावती में एक स्तूप भारत में वृक्ष देवता बेसनगर में गरुड़ स्तंभ बिहार को घेरे हुए बोधगया का जंगला नासिक का चैत कक्ष इत्यादि इन्हीं की देन है।मध्य रेलवे के बिना और भोपाल जंक्शन स्टेशन के बीच में भिलसा के समीप सांची का महान स्तूप और इसका कटघरा शुंग काल के हैं।स्तूपोर में बुद्ध के जीवन से संबंधित सभी महत्वपूर्ण कथाओं कहानियों और उनकी शिक्षाओं को बड़े ही कलात्मक ढंग से उपस्थित किया गया है वहां पर अनेक कहानियां और दृश्यों को दिखाया गया है वह बुध के जीवन की चार प्रमुख घटनाओं पर था उनके जन्म ज्ञान प्राप्ति प्रथम उपदेश और मृत्यु से संबंधित है।यह ध्यान देने योग्य है कि सभी द्वार यद्यपि पत्थर के हैं तथापि ऐसे मालूम होता है कि उनके सभी अंग लकड़ी के हैं यह कला उस काल से संभल है जब कारीगरी पहले लकड़ी पर खुदाई करते थे और उन्होंने पत्थर पर खुदाई करना आरंभ किया था। सॉन्ग काल में ब्राह्मण धर्म ने अपना अत्याचारी रूप प्रस्तुत किया उसने बौद्ध धर्म के लोगों पर अन्याय भी किए ब्राह्मणों की नीतियां लोकप्रिय हो गई।

ऐसा भी बताया जाता है कि मनु स्मृति भी सॉन्ग ओ के काल में लिखी गई थी विदिशा के निकटवर्ती शिलालेख बताते हैं कि भागवत धर्म लोकप्रिय हो गया था। अपने राज्य काल के 13 वर्ष में उसका मन धर्म की और झुका और कुमारी पर्वत पर उसने अर्हत देवालय के निर्माण की व्यवस्था की इस शिलालेख में यह लिखा है कि राजा ने 1000 बैल रखे हुए थे किंतु लेख कुछ मीटा हुआ सा प्रतीत होता है।किंतु इतना सत्य जरूर है कि उसने अर्हत मंदिर के पास ही एक विशाल भवन बनवाया था यह मंदिर संभवत पत्थर का बना हुआ था चार स्तंभों पर टिका एक मंडप भी बनवाया जिसमें हरित मनिया भी जुड़ी हुई थी जिस गुफा में यह लेख लिखा है वह गुफा भी बनवाई गई थी यह कार्य उसके राज्य के 13 या 14 वर्ष में हुआ था यह समय सम्राट मोरिया की मृत्यु से मेल खाती है खारवेल को शांति तथा समृद्धि का सम्राट कहा जाता है । कलिंग नरेश खारवेल सुवो का ही समकालीन था और उसका वर्णन उचित ही है सौभाग्य वस हाथी गुफा शिलालेख से उसके विषय में बहुत कुछ ज्ञात होता है। यह बताया गया है कि 15 वर्ष पूर्ण करने के उपरांत खारवेल युवराज बना 24 वर्ष की आयु में उसका राज्य अभिषेक हुआ वह कलिंग के तीसरे राज वंश से था और उसके वंश का नाम चैत्र था।अपने राज्य के प्रथम वर्ष में उसने कलिंग के तूफान से क्षतिग्रस्त प्राचीरो द्वारों और भवनों को ठीक करवाया था उसने सरोवर तथा बाग बनवाएं तथा अपनी प्रजा को खुश रखा था। उसने कश्यप क्षत्रियों की सहायता के लिए मौसी को की राजधानी को नष्ट कर दिया था। संगीत शास्त्र में निपुण खारवेल ने नृत्य नाटक और अन्य उत्सव कीऐ। उसने कुछ पवित्र भावनाओं का मरम्मत भी करवाया जिन्हें विद्या घरों का निवास कहते थे।Vinayiasacademy.com


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पुष्यमित्र शुंग अंतिम मौर्य नरेश ‌ बृहद्थ का प्रधान सेनानायक था इस के प्रारंभिक जीवन के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध नहीं है मगर दीव्यावदान के अनुसार उसे पुस्यधर्म का पुत्र बताया गया है। ज्ञात होता है कि 1 दिन बृहदरथ सेना का निरीक्षण कर रहा था उस समय पुष्यमित्र ने धोखे से उसकी हत्या कर दी ,इसका उल्लेख पुराणों में भी है तथा बाणभट्ट ने अपनी पुस्तक हर्षचरित में भी इस घटना का वर्णन किया है। पुराण, हर्षचरित तथा पतंजलि का महाभाष्य इतिहास के मुख्य स्रोत हैं।इस संबंध में कुछ जानकारी चौथी शताब्दी के जैन लेखन में रोहतांग कि थेरावादी से भी प्राप्त होती है। कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् में भी पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ तथा विदर्भ राजा के साथ अग्नि मित्र की लड़ाई का वर्णन है ।धनदेव के अभिलेख से पुष्यमित्र द्वारा दी गई दो घोड़ों की बलि का पता चलता है । तिब्बती इतिहास अग्यतारा नाथ ने भी संभव के धार्मिक उत्पीड़न का वर्णन किया है। यह भी कहा जाता है कि शून्ग भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण हुआ करते थे , इन्हें ब्राह्मणों के सेनापति होने का प्रमाण मिलता है द्रोणाचार्य ,कृपाचार्य ,अश्वत्थामा, परशुराम इत्यादि इस तथ्य के सबल प्रमाण है।

दिव्यावदान में लिखा है कि पुष्यमित्र मौर्य की वंश परंपरा से ही था। मालविकाग्निमित्रम् में कालिदास ने बताया है कि पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र बेंबीक वंश का था। पुष्यमित्र ने 36 वर्ष तक शासन किया अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी मृत्यु के समय वह वृद्ध होगा विभिन्न लेखों से इस तथ्य का पता चलता है कि न केवल उसके पुत्र ने बल्कि उसके पौत्रों ने भी देश के प्रशासनमें भाग लिया था।पुराण और हरषचरित्र तथा मालविकाग्निमित्रम् सभी में पुष्यमित्र के लिए सेनानी अर्थात सेनापति की उपाधि का ही प्रयोग मिलता है जबकि उसके पुत्र अग्निमित्र को राजा बताया गया है।इस आधार पर कुछ विद्वानों का विचार है कि पुष्यमित्र कभी राजा नहीं बना तथा बृहद्रथ को पदच्युत करने के पश्चात उसने अपने पुत्र को ही राजा बना दिया था किंतु इस प्रकार का विचार तर्कसंगत नहीं लगता। हमें ज्ञात है कि पुष्यमित्र रहने दो अश्वमेघ यज्ञ करवाए थे इसे प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माना गया था इसी से स्पष्ट है कि उसने राज्य भारत ग्रहण किया था।ऐसी विकट परिस्थिति में पुष्यमित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमा कर जहां एक और यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की वहीं दूसरी ओर देश में शांति और व्यवस्था की भी स्थापना कर वैदिक धर्म एवं आदर्शों की जो अशोक के शासनकाल में उपेक्षित हो गए थे पुनः प्रतिष्ठा की। पुष्यमित्र ने वृहद्रथ की हत्या के बाद उसके सचिव को कारागार में डाल दिया था तथा पुष्यमित्र का पुत्र अग्नि मित्र विदिशा का उप राजा बनाया गया उसका मित्र माधव सिंह था जो विदर्भ नरेश यज्ञ सेन का चचेरा भाई होता था परंतु दोनों के संबंध अच्छे नहीं थे।

ऐसा कहा जाता है कि विदर्भ साम्राज्य नया ही था और उसकी जड़े अभी मजबूर भी नहीं हुई थी अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ जिसे पुष्यमित्र ने गद्दी से हटा दिया था विदर्भ नरेश यज्ञ सेन का संबंधी बताया गया है। यज्ञ सेन का चचेरा भाई माधव सेन गुप्त रूप से अग्निमित्र से भेंट करने विदिशा आ रहा था किंतु वह मार्ग में ही सीमा के पास पकड़ा गया तथा जेल में डाल दिया गया अग्निमित्र ने यज्ञ सेन से माधव सेन को छुड़वाने को कहा यज्ञ सेन ने उत्तर में अपने एक बहनोई मौर्य मंत्री की मुक्ति की मांग की इस बात पर घमासान युद्ध हुआ और अग्नि मित्र ने वीरसेन को विदर्भ के विरुद्ध सेनापति नियुक्त किया यज्ञ सेन की हार हुई और माधव सेन को मुक्ति मिली विदर्भ उन दोनों ने बांट लिया और वरद नदी दोनों के राज्य की सीमा बनी। डॉक्टर वी ए स्मिथ का मानना है कि कलिंग नरेश खारवेल ने पुष्यमित्र के काल में मगध पर 2 बार आक्रमण किया। वह पाटलिपुत्र से कुछ ईमेल दूर रह गया था पुष्यमित्र कपट पूर्वक मथुरा तक पीछे हट गया और खारवेल ने आगे ना बढ़ ना ही उचित समझा खारवेल का दूसरा आक्रमण वन 61 ऐसा पूर्व में हुआ और अधिक सफल रहा खारवेल ने कलिंग के प्रसिद्ध हाथियों की सहायता से गंगा को उत्तर की ओर से पार किया और मगध की राजधानी पर आधमका । और इसी समय पुष्यमित्र को घुटने टेकने पड़े , मगर इस घटना को कई विद्वानों ने मानने से इनकार कर दिया। प्रोफेसर रैपसेन का मानना है कि आंध्र के राजा सतकरणी ने पुष्यमित्र से उज्जैन को जीत लिया था

नवीन खोजों से पता चलता है कि प्रोफेसर रैप सेन कामत गलत था सात अर्थात सातवाहन कलुगू रूप है सत करने का नहीं हमें ऐसे सिक्के प्राप्त हुए हैं जिन पर लिखा है रानो सिरी सदवाहनस। इसके अतिरिक्त उसकी रानी नयनिका के लेखों से भी यह ज्ञात नहीं होता है कि अवंती को सतकरनी प्रथम ने जीता था। जैन परंपरा के अनुसार पुष्यमित्र 30 वर्षों तक अवंतिका राजा रहा। बैक्ट्रिया विद्रोह का नेता डायोडोटस प्रथम को माना जाता है। माना जाता है कि विद्रोह से पहले काफी समय तक उसने बैक्ट्रिया और सोग्दीयाना मैं सेल्युसीद सम्राट के गवर्नर के रूप में राज्य किया था। छतरप के रूप में उसने एंटी ऑर्कस प्रथम को मिस्र के शासक टोलेमी फिलाडेल्फिया के साथ उसके 274 से 73 ईसा पूर्व के संघर्ष में 20 हाथी सहायता के रूप में भेजे थे । वह एक शक्तिशाली राजा था उसके पड़ोसी उससे डरते थे।डायोडोटस प्रथम के बाद उसका पुत्र डायोडोटस द्वितीय राजा बना मगर उसने अपने पिता की पार्थिया विरोधी नीति को पलट दिया और पारथियों के राजा के साथ संधि कर ली। जिसका परिणाम यह हुआ के सेल्यूकस द्वितीय ने पार्थिया पर आक्रमण किया तो सेल्यूकस ने उसे परास्त कर दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि यूथिडेमस ने डायोड डॉटर्स द्वितीय को केवल सिंहासन से ही नहीं उतारा बल्कि कुछ समय बाद उसका वध भी कर दिया। एंटी ओकास प्रथम अपने पिता सेल्यूकस के साथ 293 ईसापुर में राजा बना और बाद में स्वतंत्र राजा बन गया एशिया माइनर में उसने गाल जाती पर एक महान विजय प्राप्त की और सेवियर उपाधि धारण की उसका पुत्र एंटीओकस द्वितीय 266 ईसापुर में अपने पिता के साथ राजा बना और कुछ वर्षों के बाद वह स्वतंत्र राजा बन गया एंटीओकस द्वितीय शराबी और विलासि था।

दिव्यावदान में उल्लेखित बौद्ध परंपरा तथा तिब्बती इतिहासकार तारा नाथ के अनुसार पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का घोर शत्रु था। दिव्या को दान में कहा गया है कि अपने ब्राह्मण पुरोहित के परामर्श पर चलते हुए उसने भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को नष्ट करने का प्रयत्न किया था वह पाटलिपुत्र में स्थित कुक्कुट आराम बिहार को नष्ट करने गया किंतु वह गर्जना से भयभीत होकर वापस लौट आया इसके बाद वह चतुर रागिनी सेना सहित स्तूपोर को तोड़ता बिहारों को जलाता भिक्षुओं की हत्या करता साकल तक बढ़ आया पुष्यमित्र ने साकल में घोषणा की कि जो भी मुझे एक श्रावण का शिर भेंट करेगा उसे मैं 100 दिनार दूंगा मिलिंदपन्हो में सकल को बौद्ध भिक्षुओं का निवास स्थान बताया गया है। ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान इसी काल में हुआ था पुष्यमित्र के काल में बौद्ध धर्म की अपेक्षा वैदिक धर्म का अधिक प्रभुत्व स्थापित हो चुका था। पूजा यज्ञ बलि की प्रथा किस काल में पुनः अस्तित्व में आ गई थीमाना जाता है कि पुष्यमित्र शुंग के किसी एक यज्ञ में पुरोहित का कार्य पतंजलि ने किया था धनदेव के अयोध्या अभिलेख से उसे मित्र द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किए जाने का उल्लेख मिलता है। 151 ईसापुर में पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु के पश्चात संभोग का संगठित शासन छीण हो गया था।विभिन्न पुरातात्विक एवं मुद्रा साक्ष्यों के आधार पर पुष्यमित्र की मृत्यु के बाद से ही सुंगों का राजनीतिक महत्व कमजोर हो गया था एवं उसकी मृत्यु के 100 वर्षों में ही सत्ता का अंत हो गया। पुराणों के अनुसार शुंग वंश में 10 राजा हुए जिन्होंने 112 से 120 वर्ष तक शासन किया सर्वाधिक प्रतापी शासक पुष्यमित्र ही था जिसने 36 वर्षों तक एवं उसके बाद नए सॉन्ग शासक भागवत ने 32 वर्षों तक शासन किया। पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु के पश्चात मगध पर पंचालु ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था तथा सुवो की सत्ता विदिशा के समीपवर्ती क्षेत्रों तक ही सीमित रह गई इस काल में पाटलिपुत्र भी अपना राजनीतिक महत्व हो चुका था। मथुरा पांचाल अयोध्या एवं अन्य निकटवर्ती स्थानों पर मित्र एवं दत्त के नाम वाले मुद्राएं एवं सिक्के अवशेष के रूप में प्राप्त हुए हैं जिन्हें कुछ विद्वान स्वतंत्र राजाओं द्वारा प्रचलित सिखों के रूप में इन्हें स्वीकार किया है। इसकी मृत्यु के उपरांत उत्तराधिकारी के रूप में सॉन्ग देश के शासन को अग्निमित्र ने संभाला पूर्व में विदिशा में उप राजा के रूप में अग्निमित्र को शासन का कार्यभार सौंपा गया था।

कालिदास द्वारा रचित नाटक मालविकाग्निमित्रम् में अग्नि मित्र का उल्लेख मिलता है जिसमें इसे नायक के रूप में दिखाया गया है।मदर अग्नि मित्र भोग विलास में लिप्त रहने वाला शासक था जो अधिकांश सूरा सुंदरियों में व्यस्त रहता था पंजाब के यूनानी शासकों के साथ इसकी मीत्रता पूर्ण संबंधित है इसमें 8 वर्षों तक शासन किया इसके बाद इसकी मृत्यु हो गई। अग्निमित्र के उपरांत शुंग वंश का शासन जेस्ट मित्र ने संभाला था इसे अपने मित्र के छोटे भाई के रूप में जाना गया है तथा इसने 7 वर्षों तक शुंग वंश के शासन का कार्यभार संभालावासु मित्र एक प्रतापी और शक्तिशाली शासक था जिसने राज्यभर स्वीकार करने से पूर्व ही यूनानी यों को परास्त कर दिया था।बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार मित्र देव या मूल देव ने एक नाटक के प्रदर्शन के दौरान वासु मित्र की हत्या कर दी। भागवत पुराण के अनुसार वासु मित्र का उत्तराधिकारी शासक भद्रक था जिसे आंध्र या अंतक के रूप में भी पहचाना गया था पुराणों के अनुसार अदरक या भद्रक के बाद क्रमशः 3 शासक पुलिंदा घोष वज्र मित्र ने स्वशासन की उत्तराधिकारीता को ग्रहण किया। वज्र मित्र के बाद सोम वंश का शासन भागवत ने संभाला था भागवत शुंग वंश का नवा शासक था संभवत साक्ष्यों के आधार पर पुष्यमित्र के पश्चात शुंग वंश का सबसे प्रतापी राजा भागवत को माना गया है इसमें लगभग 32 वर्षों तक शासन किया।

तक्षशिला के यूनानी शासक एंटीकस का राजदूत हेलिओडोरस शुंग वंश के शासक भागवत के काल में ही सुख दरबार में आया था यह भागवत के काल की एवं सोमवंश के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।शुंग वंश का सबसे अंतिम प्रतापी एवं शक्तिशाली शासक भागवत था जिसका शासनकाल सभी अर्थों में महत्वपूर्ण रहा। शुंग वंश का अंतिम शासक तरुण एवं अत्याचारी शासक देवभूति था जिसने लगभग 10 वर्षों तक शासन किया देवभूति इसके स्वयं के आमात्य द्वारा 75 ईसापुर में मार दिया गया था इस तरह सुंग शासन का अंत हो गया।पुष्यमित्र के वंशजों का राज्य भारत के इतिहास में और विशेष रूप से मध्य भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण युग का प्रवर्तक था मध्य देश से भयभीत करने वाले यूनानो के नवीन आक्रमण रुक गए और सीमा प्रांत के यूनानी यों ने अपने सेल्यूकसी पूर्वजों की नीति अपना ली।इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सुनो नहीं देश को यवन आक्रमण से बचाया अगर सोंग देश में एक मजबूत राज्य स्थापित कर लिया वनों को ना मार भगा दे तो वह समस्त उत्तरी भारत पर अपना अधिकार जमा लिए होते। इस काल में धर्म साहित्य और कला के क्षेत्र में इतना कार्य हुआ कि उसकी तुलना गुप्त काल से की जा सकती है। सिंह काल भवन निर्माण कला में भी एक नया युग लेकर आए थे यह लोग बौद्ध स्तूपों के लकड़ी के जंगले पत्थरों के जंगलों में बदल दिए। भारत के जंगलों में शुंग काल को अमर बना दिया।विदिशा के हाथी दांत के कारीगरों ने ही अपने निकटवर्ती सीमा में सांची के अमर स्मारक द्वारों को बनाया। पुणे के निकट भाजी स्थित एक बिहार भी बनाए ब्रज में पुराने बिहार के निकट एक बड़ा चैत्य और चट्टान में से कटे स्तूप तथा अजंता के चैत कक्ष नंबर 9 अमरावती में एक स्तूप भारत में वृक्ष देवता बेसनगर में गरुड़ स्तंभ बिहार को घेरे हुए बोधगया का जंगला नासिक का चैत कक्ष इत्यादि इन्हीं की देन है।मध्य रेलवे के बिना और भोपाल जंक्शन स्टेशन के बीच में भिलसा के समीप सांची का महान स्तूप और इसका कटघरा शुंग काल के हैं।स्तूपोर में बुद्ध के जीवन से संबंधित सभी महत्वपूर्ण कथाओं कहानियों और उनकी शिक्षाओं को बड़े ही कलात्मक ढंग से उपस्थित किया गया है वहां पर अनेक कहानियां और दृश्यों को दिखाया गया है वह बुध के जीवन की चार प्रमुख घटनाओं पर था उनके जन्म ज्ञान प्राप्ति प्रथम उपदेश और मृत्यु से संबंधित है।यह ध्यान देने योग्य है कि सभी द्वार यद्यपि पत्थर के हैं तथापि ऐसे मालूम होता है कि उनके सभी अंग लकड़ी के हैं यह कला उस काल से संभल है जब कारीगरी पहले लकड़ी पर खुदाई करते थे और उन्होंने पत्थर पर खुदाई करना आरंभ किया था।

सॉन्ग काल में ब्राह्मण धर्म ने अपना अत्याचारी रूप प्रस्तुत किया उसने बौद्ध धर्म के लोगों पर अन्याय भी किए ब्राह्मणों की नीतियां लोकप्रिय हो गई। ऐसा भी बताया जाता है कि मनु स्मृति भी सॉन्ग ओ के काल में लिखी गई थी विदिशा के निकटवर्ती शिलालेख बताते हैं कि भागवत धर्म लोकप्रिय हो गया था। अपने राज्य काल के 13 वर्ष में उसका मन धर्म की और झुका और कुमारी पर्वत पर उसने अर्हत देवालय के निर्माण की व्यवस्था की इस शिलालेख में यह लिखा है कि राजा ने 1000 बैल रखे हुए थे किंतु लेख कुछ मीटा हुआ सा प्रतीत होता है।किंतु इतना सत्य जरूर है कि उसने अर्हत मंदिर के पास ही एक विशाल भवन बनवाया था यह मंदिर संभवत पत्थर का बना हुआ था चार स्तंभों पर टिका एक मंडप भी बनवाया जिसमें हरित मनिया भी जुड़ी हुई थी जिस गुफा में यह लेख लिखा है वह गुफा भी बनवाई गई थी यह कार्य उसके राज्य के 13 या 14 वर्ष में हुआ था यह समय सम्राट मोरिया की मृत्यु से मेल खाती है खारवेल को शांति तथा समृद्धि का सम्राट कहा जाता है । कलिंग नरेश खारवेल सुवो का ही समकालीन था और उसका वर्णन उचित ही है सौभाग्य वस हाथी गुफा शिलालेख से उसके विषय में बहुत कुछ ज्ञात होता है। यह बताया गया है कि 15 वर्ष पूर्ण करने के उपरांत खारवेल युवराज बना 24 वर्ष की आयु में उसका राज्य अभिषेक हुआ वह कलिंग के तीसरे राज वंश से था और उसके वंश का नाम चैत्र था।अपने राज्य के प्रथम वर्ष में उसने कलिंग के तूफान से क्षतिग्रस्त प्राचीरो द्वारों और भवनों को ठीक करवाया था उसने सरोवर तथा बाग बनवाएं तथा अपनी प्रजा को खुश रखा था। उसने कश्यप क्षत्रियों की सहायता के लिए मौसी को की राजधानी को नष्ट कर दिया था। संगीत शास्त्र में निपुण खारवेल ने नृत्य नाटक और अन्य उत्सव कीऐ। उसने कुछ पवित्र भावनाओं का मरम्मत भी करवाया जिन्हें विद्या घरों का निवास कहते थे।


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सम्राट अशोक https://vinayiasacademy.com/?p=2521 https://vinayiasacademy.com/?p=2521#respond Sat, 27 Jun 2020 11:13:24 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2521 Share itअशोक ने लगभग 36 वर्ष तक शासन किया इसके बाद लगभग 232 ईसा पूर्व में उसकी मृत्यु हुई इसके कई संतान तथा पत्नियां थी पर उनके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है उसके पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा नेबौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार में काफी योगदान दिया था अशोक की मृत्यु के बाद […]

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अशोक ने लगभग 36 वर्ष तक शासन किया इसके बाद लगभग 232 ईसा पूर्व में उसकी मृत्यु हुई इसके कई संतान तथा पत्नियां थी पर उनके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है उसके पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा नेबौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार में काफी योगदान दिया था अशोक की मृत्यु के बाद मारे वहां से लगभग 50 वर्ष तक चला अशोक का दान दक्षिणा में वृद्धि होने और धर्म के अधिक प्रवृत्ति होने पर राज्य की आर्थिक स्थिति धीरे-धीरे बढ़ती चली गई एवं इसी दौरान सम्राट अशोक की रानी इससे रक्षिता का साम्राज्य प्रभुत्व स्थापित पता चला गया और इसी वजह से अशोक के अंतिम दिन अच्छे नहीं रहे।

अशोक के पुत्र कुणाल और संपत्ति ने राज्य पर अधिकार कर लिया रानी रक्षिता द्वारा संपत्ति की रक्षा करने का उल्लेख अशोक में अंतिम अभिलेख में किया हैसम्राट अशोक के ऊपर अधिकारियों का विवरण पाली ग्रंथों में पाया गया है अतः इसके अनुसार अशोक के उपरांत कुणाल सर्वप्रथम सम्राट अशोक के उपरांत मौर्य साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना कहा जाता है कि अशोक के 4 पुत्र थे जिनमें तीव्र महेंद्र कुमार एवं जालौर थे मगर अशोक की मृत्यु के उपरांत कुणाल ने राज्य ग्रहण किया बौद्ध एवं जैन ग्रंथों के अनुसार कुणाल का पुत्र संप्रति अशोक के बाद का शासक था जनश्रुति के अनुसार कुणाल को उसकी सौतेली माता ने अंधा करवा दिया था कुणाल ने 8 वर्ष तक शासन किया इसके बाद दशरथ टू टू शिक्षक बनने की जानकारी में उल्लेखित है पहाड़ी पर एक अभिलेख आया था जो आज के गया बिहार में स्थित है और इसमें भी देवा नाम किए की उपाधि धारण की थी।

इसके समय राज्य दो भागों में वर्गीकृत हो गया था पूर्वी भाग दशरथ के अधिकार एवं पश्चिमी भाग संपत्ति के अधिकार में चला गया इसकी दो राजधानियां थी पाटलिपुत्र और दशरथ मौर्य साम्राज्य का शासक बना इसका कार्यकाल 207 अशोक का उत्तराधिकारी माना जाता है यह जैन धर्म का अनुयाई था इसमें पाटलिपुत्र एवं दोनों स्थानों पर एक साथ शासन किया था मगर किसके शासनकाल में एक भयंकर अकाल में इसे बहुत दुखी कर दिया और इसमें श्रवणबेलगोला 207 अपने शरीर का त्याग कर दिया 20706 साली राज्य संभाला लेकिन उसकी स्थिति स्थिति के कारण 206 ईसापुर में उसकी हत्या कर दी गई देव वर्मा एवं व्रत में भी उत्तर अधिकारिता निभाई राजाओं की विपरीत परिस्थितियों में मौर्य साम्राज्य का अंत कर दिया मौर्य वंश का अंतिम शासक था इसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग में मौर्य साम्राज्य पर अधिकार करने के लिए राजा भरत की हत्या कर स्वयं राजा बन बैठा इस तरह मौर्य साम्राज्य के पतन के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु इसइस प्रकार है :-

चाणक्य ने अपनी बुद्धि विवेक एवं एक कुशल राजनीतिज्ञ होने का परिचय देते हुए विशाल मौर्य साम्राज्य की स्थापना में बहुत बड़ा योगदान दिया था।

अशोक के ब्राह्मण विरोधी सिद्धांतों के फलस्वरूप इस समय ब्राह्मणों में काफी प्रतिक्रियाएं हुई एवं इसी उपेक्षित स्थिति से मौर्य साम्राज्य के पतन होना प्रारंभ हो गया ।

धन विजय के कारण अशोक की सैन्य शक्ति कमजोर पड़ गई एवं उसकी अहिंसा की नीति के परिणाम स्वरुप उसे कई विदेशी आक्रमणों का सामना भी करना पड़ा इससे भी साम्राज्य का विघटन प्रारंभ हो गया अत्याधिक दान देने के फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य का गोश्त होता चला गया एवं आर्थिक स्थिति काफी जगमग आ गई विपरीत परिस्थितियों के बाद भी अशोक के उत्तराधिकारी अच्छे होते तो शायद ऐसा कुछ नहीं होता ।

सब कुछ परिवर्तित करना आसान था मगर अशोक के सारे उत्तराधिकारी कुणाल से लेकर रात तक सभी आयोग उत्तराधिकारी थे राज्य की गतिविधियां केंद्रीय थी उनकी उदासीनता ने मौर्य साम्राज्य के पतन की राह दिखाई अशोक के योग्य उत्तराधिकारी की स्थिति से परिचित होकर अधिकारियों ने प्रजा को परेशान करना प्रारंभ कर दिया तथा प्रजा पर अत्याचार बढ़ने से विद्रोह प्रारंभ होने लगे एवं इसी परिस्थिति का लाभ उठाते हुए पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य साम्राज्य पर अधिकार कर लिया और मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया मौर्य प्रशासन के ऐतिहासिक स्रोत कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं मेगास्थनीज इंडिका से प्राप्त होती है।

सम्राट अशोक के समय इनके मंत्रिपरिषद में राजा के सहयोग के लिए एक मंत्री परिषद होते थे जिसके सदस्य मंत्री से भी अधिक निम्न स्तर के होते थे अर्थशास्त्र में मंत्रिमंडल के सदस्य को 800 एवं मंत्री परिषद के सदस्य को 12000 वेतन दिए जाने का साथ मिलता है प्रशासन में उच्च अधिकारी के रूप में तीर्थ महामात्र या आवाज आते थे इनकी संख्या 18 थी वह मात्रों के बाद सामाजिक आर्थिक एवं धार्मिक प्रशासन के नियंत्रण के लिए अध्यक्ष होते थे अर्थशास्त्र में 30 अध्यक्षों का उल्लेख मिलता है ।

दंड पाल पुलिस का प्रधान होता था जो अपराधियों पर नियंत्रण रखता था एवं दंड व्यवस्था में सबसे नीचे ग्राम न्यायालय होते थे स्थानीय एवं जनपद ग्राम न्यायालयों के ऊपर होते थे केंद्रीय न्यायालय सबसे ऊपर होते थे गुड पुरुषों का कार्य संभालते थे यह लोग संपूर्ण गतिविधियों की गुप्त सूचना को दिया करते थे उक्त चारों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है स्थाई गुप्त चर और अचर स्थाई गुप्तचर खुदा स्थिति कार्तिक छात्र गिरी प्रतीक तापस एवं वर्दी के रूप में स्थाई रूप से कार्य करते थे इसके साथ ही दूसरे प्रकार के गुप्तचर भ्रमण कर सूचनाएं जुटाने के वैश्य एवं स्त्रियों की इस कार्य में सहयोग ली जाती थी।

यह सभी यह सभी वर्ग के लोगों पर दृष्टि रखते थे और संपूर्ण विवरण राजा को सकते थे सेना के संगठन में चंद्रगुप्त मौर्य के पास एक विशाल को संगठित सेना थी मेगास्थनीज एवं कोटि लेने इसका वर्णन किया है प्लिनी के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य की सेना में छह लाख पैदल सेना 30,000 घुड़सवार 9000 हाथी और 8000 व्रत हुआ करते थे मौर्य साम्राज्य के प्रशासन सेना एवं अन्य गतिविधियों को संचालित करने के लिए राजस्व प्रणाली की व्यवस्था थी किसानों की उपज का 1/4 या 1/6 भाग भूमि कर के रूप में लिया जाता था राजा को निजी उद्योग धंधे एवं जुर्माना से भी आय प्राप्त होती थी सनी दाता राजकोष की देखभाल करने वाला अधिकारी होता था।

राजकोट से प्राप्त आय राज परिवार राज्य कर्मचारियों एवं जनहित के कार्यों में वह होते थे प्रांतीय प्रशासन में मौर्य साम्राज्य विभिन्न इकाइयों में विभक्त था प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई प्रांत थी पुश्यगुप्त सौराष्ट्र का शासक था जो चंद्रगुप्त के आदेश पर कार्य किया करता था उत्तरी भाग का शासन पाटलिपुत्र के राजा द्वारा संभाला जाता था सीमावर्ती शासक के रूप में राजकुमारों का नियंत्रण होता था परंतु का शासक राष्ट्रपाल होता था।

अतः प्रांतीय व्यवस्था केंद्रीय व्यवस्था के आधार पर गठित की और प्रांतीय प्रशासनिक व्यवस्था पर केंद्र का पूर्ण नियंत्रण रहता था अशोक का साम्राज्य प्रांतीय जिला या स्थानीय में विभक्त था जिला प्रशासन का प्रमुख तथा स्थानिक पर समाहर्ता का नियंत्रण होता था 800 गांव के समूह को स्थानीय कहा जाता था द्रोण स्थानीय से छोटी इकाई थी और इसमें 400 गांव का समूह तथा तथा द्रमुक से छोटी इकाई को खरवा ठीक कहा जाता था । इसमें 200 गांव का समूह हुआ करता था एवं संग्रहण में 100 गांव का समूह था ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई हुआ करती थी तथा इसे ग्रामीणों के समूह द्वारा चलाया जाता था। ग्राम के मुखिया को ग्रामीण जाता था तथा गुप्ता का इन पर पूर्ण नियंत्रणहुआ करता था। ग्रुप के पास 10 गांव का नियंत्रण हुआ करता था कौटिल्य का अर्थशास्त्र एवं मेगास्थनीज इंडिका से हमें मार कान के सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था के बारे पता चलता है वर्ण व्यवस्था की रक्षा करना राजा का प्रमुख कार्य हुआ करता था तथा इस समय सभी लोग अपने कार्यों का विभाजन अपने वर्गों के हिसाब से किया करते थे मौर्य काल में अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाह प्रणाली से उत्पन्न संतान को मिश्रित कहा जाता था इस काल में आश्रम व्यवस्थाखानपान विवाह संबंधी नियमों का पालन भी वर्ण व्यवस्था के आधार पर किया जाता था उसने अपनी पुस्तक इंडिका में भारतीय समाज में 7 वर्णों को विभाजित किया है। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में दास प्रथा का भी उल्लेख किया है। तथा इसके अनुसार देशों को 9 वर्गों में विभाजित किया गया था उन्होंने अपनी पुस्तक में स्त्री राशियों का भी उल्लेख किया है बंदगी ऐसी महिला दासी हुआ करती थी जो लोगों का मनोरंजन कर अपने मालिक के लिए पैसा इकट्ठा किया करती थी।


सम्राट अशोक के समय में इंजीनियर बड़े कुशल हुआ करते थे यही कारण है कि वह 5050 टनो के स्तंभ टुकड़ों को पहाड़ से काटकर दूर दूर स्थानों पर ले जाने में सफल हुए मौर्य काल में सुदर्शन झील का निर्माण वैज्ञानिक ढंग से किया गया डॉक्टर राधा को मोड मुखर्जी ने लिखा है कि मौर्य काल के इंजीनियर नगर योजनाएं बनाने में भी निपुण थे मेगास्थनीज का कहना है कि पाटलिपुत्र नगर एक निश्चित योजना के अनुसार बनाया गया था। मौर्य काल की कला के संबंध में यह कहा जा सकता है कि इस काल में इस क्षेत्र में बड़ी बड़ी चुनौतियां हुई इस काल की कलाकृतियों को संसार के इतिहास में अदिति स्थान प्राप्त है परंतु उसमें एक बड़ी त्रुटि भी थी उस काल मैं उस समय के लोग जीवन और जनसाधारण के विचारों को अभिव्यक्त ना किया गया परंतु सम्राट के जीवन चरित्र आदेशों धार्मिक विचारों और सिद्धांतों को अपना दे बनाया गया।मौर्यकालीन कला राजकीय कला थी उसका विकास सम्राटों के प्रयासों द्वारा हुआ उसमें लोक कला का रूप कभी धारण नहीं किया फलस्वरूप परिणाम यह हुआ कि मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ-साथ उस कला का भी पतन हो गया।मौर्यकालीन कलाकृतियों की मूर्तियों में भाव का अंकन बड़े सुंदर ढंग से किया गया है इसका उदाहरण सारनाथ स्तंभ पर बनी 4 शेरों की मूर्तियों के संबंध में डॉ वी ए स्मिथ ने लिखा है कि इतनी प्राचीन और इतनी सुंदर पशुओं की मूर्तियां किसी भी देश में पाना दुर्लभ है रामपुर स्तंभ पर बनी सांड की मूर्ति में सजीव ता और स्वाभाविक ता है। मौर्यकालीन स्तंभों और ईरानी स्तंभों में काफी अंतर पाया गया है मोर स्तंभ पूर्णता गोलाकार है जबकि ईरान के स्तंभ में कंगूरे हैं मोर स्तंभ एक चट्टान से काटकर बनाया गया है जबकि ईरान के स्तंभ बहुत से पत्थर जोड़ कर बनाया गया है।

मौर्यकालीन स्तंभ एक बड़ा है का बनाया हुआ प्रतीत होता है जबकि ईरानी स्तंभ हर आज का बनाया हुआ दिखता है मोर स्तंभ में कोई आधार नहीं है किंतु इरानी स्तंभ की आधारशिला उल्टे कमल के फूल के समान है मोर स्तंभ में ईरानी और यूनानी कला का ऋण अवश्य दिखाई देता है परंतु उसमें भारतीय कला की देन भी बहुत स्पष्ट है। कठोर पत्थरों की चट्टानों को काटकर गुफाएं बनाने की कला का जन्म मौर्य काल में हुआ था मौर्य काल की सात गुफाओं का वर्णन प्राप्त होता है जिनमें चार गुफाएं अशोक के द्वारा बनाई गई थी तथा बाकी तीन गुफाएं उनके पुत्र मौर्य सम्राट दशरथ के द्वारा बनवाई गई यह सारी गुफाएं गया के पास बराबर और नागार्जुनी की पहाड़ी पर ओके ने की गई इन गुफाओं की दीवार पर की गई पोलिस आज भी शीशे की भांति चमकदार है। सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए स्तंभ टोपरा मेरठ इलाहाबाद सांची सारनाथ लोरिया एरा राज लौरिया नंदनगढ़ रामपुरवा रोमन देवी आदि स्थानों पर मिले हैं इन स्तंभों पर जो पॉलिश है वह शीशे की भांति आज भी चमकती है उनके पॉलिश के रहस्य को आज के कारीगर भी नहीं समझ सके।कहा जा सकता है कि वर्तमान युग की कलात्मक शक्तियों के लिए यह एक खोई हुई कला है।कला की दृष्टि से सम्राट अशोक का सारनाथ का स्तंभ अभिलेख सबसे अच्छा है। इसे अशोक ने बौद्ध के धर्म चक्र परिवर्तन की स्मृति में बनवाया था। माना जाता है कि इन स्तंभों की ऊंचाई 40 से 50 फुट और वजन 50 टन तक हुआ करती थी 80 टन वजन के स्तंभों का भी वर्णन मिलता है। अशोक ने बड़ी संख्या में साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में इन स्तंभों को बनवाया था हमें अशोक के द्वारा बनवाए गए स्तंभों की ठीक संख्या प्राप्त नहीं हुई परंतु एक अनुमान के अनुसार यह कहा जा सकता है की उनकी संख्या 30 से 40 तक थी इन स्तंभों का निर्माण चुनार के बलुआ पत्थर से किया गया था इन स्तंभों का आधार की ओर तो मोटा हुआ करता था परंतु सिर की ओर पतले होते गए।हेनसांग नहीं तक्षशिला में अशोक के बनवाए हुए तीन स्तूप देखें जिनकी ऊंचाई लगभग 100 फुट थी नेपाल की सीमा पर पिपरवा के खंडहरों में एक स्तूप मिला है । जो पत्थर के एक विशाल कक्ष के चारों ओर है।

कुछ इतिहासकारों का विचार है कि स्तंभों के शीर्ष भाग यूनानी तथा ईरानी कला के अनुकरण पर बनवाए गए हैं। सर जॉन मार्शल ने लिखा है कि अशोक ने राज्य काल में ईरान से बुलाए गए कलाकारों द्वारा भारतीय कलाकारों का प्रशिक्षण हुआ सारनाथ स्तंभ शीर्ष पर केवल यूनानी प्रभाव ही पड़ सकता था एके में नीड साम्राज्य के कलाकारों से अशोक के कलाकारों ने अपनी कृतियों को चमक देने का ढंग सीखें बैक्टीरिया के यूनानी कलाकारों से उन्होंने मॉडल बनाना सिखा। इतने बड़े स्तंभ पूर्णता विधि अनुसार काटे गए और छीन ले गए और उन्हें ऐसे चमक दी गई जो शायद आज के कलाकार उस पत्थर को ना दें पुनः चमकाने की इतनी परिपूर्ण बना दी गई कि उसे आधुनिक युग में लुप्त कला कहा जाता है इन स्तंभों का निर्माण रचनात्मक और स्थापना मौर्य युगीन शीला आचार्य और शीला तक्षक को को वृद्धि एवं कुशलता का अद्भुत प्रकार प्रतिष्ठीत करते हैं। चंद्रगुप्त मौर्य के समय तक निर्माण में लकड़ी मिट्टी आदि का प्रयोग हुआ करता था परंतु अशोक ने लकड़ी और पत्थर का प्रयोग शुरू किया अशोक को स्थापत्य निर्माण का बड़ा शौक था उसने अपने रहने के लिए पाटलिपुत्र में एक अत्यंत सुंदर महल बनवाया जोकि उद्यान में स्थित था जब फाहियान ने उसे देखा तो वह चकित रह गया।इसी काल में वैदिक धर्म बौद्ध धर्म और जैन धर्म के धार्मिक साहित्य का विकास हुआ इस काल में गृृह सूत्र धर्मसूत्र और वेदांग ग्रंथों का प्रणब किया गया। बहुत रिपीट को की रचना का समय तृतीय बहुत संगीता के कुछ बात बताया जाता है और वह अशोक के समय में हुई इस संगीति के अध्यक्ष मोगली पुत तिस्य ने,अभिधम्य पिटक के कथावस्तु की रचना की।। इस काल में लोहे के प्रयोग से जंगलों को काटने और हल चलाने में बड़ी सहायता मिली कृषि की उन्नति से अधिक वस्तुएं पैदा हुई फालतू वस्तुओं के उत्पादन ने आंतरिक और विदेशी व्यापार की वृद्धि की अधिक से अधिक लोग नगरों में आकर रहने लगे मंडियों के समीप श्रावस्ती वाराणसी चंपा राजगिरी उज्जैन कौशांबी कुशीनगर साकेत आदि बड़े-बड़े शहर बन गए थे कई प्रकार के कारीगर उन शहरों में आकर बस गए जो जो मंडिया बढ़ती गई नए नए शहर बसते गए और चंद लोगों के हाथों में बहुत सा धन आ गया। मौर्य कालीन सरकार या अपना कर्तव्य समझती थी कि वह असहाय पीड़ित लोगों की सहायता करें। वह यतीमो बोलो कमजोर हो और गरीब स्त्रियों की सहायता करती थी। जब तक कोई अपनी बीवी और बच्चों का प्रबंध नहीं करता था उसे सन्यासी नहीं बनने दिया जाता था इन नियमों का उल्लंघन करने वालों को जुर्माना देना पड़ता था सरकार सार्वजनिक सफाई का बड़ा ध्यान रखती थी मकान के मालिकों को मल-मूत्र का स्थान अवश्य बनाना पड़ता था और गंदा पानी निकालने का रास्ता भी महामारी से बचने के लिए बंदोबस्त किया जाता था यदि अकाल पड़ जाए तो सरकार अपने अनाज के भंडार खोल दिया करती थी आग से बचने के लिए सरकार उपाय करती थी यदि बाढ़ के कारण किसी की हानि हो जाए तो सरकार उसका मुआवजा भी देती। सरकार व्यक्तिगत मामला जातियों मैं अपना हस्तक्षेप नहीं करती थी व्यक्तिगत मामलों में ब्राह्मणों का नियंत्रण रहता था पंचायतें जातियों और श्रेणियों का प्रबंध कर दी थी।मौर्य काल में शिक्षा का बड़ा प्रचार था यही कारण था कि अशोक सम्राट ने जगह-जगह पर शिलालेखों और स्तंभ लेखों पर अपने धर्म के सिद्धांत अंकित करवाएं ताकि आम लोग उन्हें पढ़ कर अपने जीवन को सुधार सके मौर्य काल में शिक्षा गुरुकुल ओ मठों और बिहारो में दी जाती थी बुद्धू और जैनियों के मंदिर शिक्षा के केंद्र थे वहां विद्वान बिच्छू और मुनि लोगों को शिक्षा देते थे ब्राह्मण आचार्य लोग को पढ़ाते थे उनको सरकार की ओर से भूमि मिलती थी । जिसको ब्रह्मा देव कहते थे उसका कोई कर सरकार को नहीं दिया जाता था, एक आचार्य के पास प्रायर 500 विद्यार्थी होते थे ऐसा प्रतीत होता है कि तक्षशिला में कई कॉलेज थे जिनमें से प्रत्येक में लगभग 500 विद्यार्थी पढ़ते थे। कॉलेज के प्रधान को आचार्य कहा जाता था यह संसार प्रसिद्ध व्यक्ति होते थे ना केवल राजकुमार बल्कि ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि सभी जातियों के विद्यार्थी भारत के कोने कोने से वहां पढ़ने के लिए जाते थे केवल नींद जातियों के लोग वहां पढ़ नहीं सकते थे कौशल राजा प्रसेनजीत तक्षशिला का विद्यार्थी था चंद्रगुप्त मौर्य भी वही अपनी पढ़ाई पूरी की मौर्य काल में काशी भी शिक्षा का बड़ा केंद्र था। तक्षशिला में पढ़ने के बाद कई आचार्यों ने काशी में पढ़ाने का काम शुरू किया। धीरे-धीरे व प्रसिद्ध विद्यापीठ बन गया। मौर्य काल में यातायात का काफी महत्वपूर्ण योगदान था इस काल में सड़कें बनाने के लिए एक विशेष अधिकारी हुआ करता था। पाटलिपुत्र को केंद्र बनाकर उत्तर दक्षिण पूरब और पश्चिम सब दिशाओं में सड़कें रहती थी । आधे आधे को उसके बाद सड़कों पर दूरी सूचक प्रस्तर लगे हुए थे जहां बहुत मार्ग मिलते थे वहां प्रत्येक माह की दिशा का प्रदर्शन करने वाले चिन्ह लगे होते थे कौटिल्य का कहना है कि हिमालय की ओर जाने वाले मार्ग की अपेक्षा दक्षिण की ओर जाने वाला मार्ग अधिक लाभदायक था क्योंकि दक्षिण से बहुमूल्य व्यापार की चीजें जैसे मुक्ता मणि हीरे सोना संघ इत्यादि आते थे उत्तर की ओर एक मार्ग चंपा से बनारस और शहजादी तक आता था ,यहां से यमुना के किनारे किनारे कौशांबी तक जा सकते थे ।

समुद्री मार्ग भडोच और काठियावाड़ से होकर लंका जाता था।मौर्य काल में आंतरिक और बाह्य व्यापार दोनों उन्नत अवस्था में थी भारत का व्यापार चीन सीरिया मिस्र यूनान नेपाल श्रीलंका आदि देशों के साथ हुआ करता था चीन से रेशमी कपड़ा नेपाल से उन और ईरान से मोती आते थे भारत मिश्र को हाथी दांत मोती नील और विशेष प्रकार की लकड़ी भेजता था पश्चिमी देशों से भारत मीठी शराब मंगाता था इसके साथ ही समुद्री मार्गों से भी व्यापार हुआ करता था। प्रत्येक बंदरगाह का प्रबंध एक अध्यक्ष के हाथों में होता था दुकानदार कितना मुनाफा ले इस पर भी राज्य की ओर से नियंत्रण होता था आम चीजों पर लागत का 5 फ़ीसदी मुनाफा लिया जा सकता था विदेशी माल पर 10 फ़ीसदी मुनाफा लेने की अनुमति थी। मौर्य काल में आंतरिक व्यापार बेहद उन्नत थी सौदागर व्यापार के लिए बड़े-बड़े काफिले बनाकर जब जगह-जगह जाते थे काफी लोगों की रक्षा का भार राज्य पर था काफीलो के एक व्यापारी से राज्य मार्ग कर वसूली करता था और रक्षा भी किया करता था।मौर्य काल में लोगों का जीवन सुखी और आमोद प्रमोद हुआ करता था आमोद प्रमोद में कई साधन थे, गाना- बजाना, नृत्य, नाटक ,जुआ शिकार इत्यादि कई लोग ऐसे थे। जिनका व्यवसाय केवल लोगों का आमोद प्रमोद करना और तमाशे दिखाना ही था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में नाटो नृत्य को गायकों वादों को की बोलियां बोलकर आजीविका कमाने वालों रस्सी पर नाचने वालों और चरणों का वर्णन है।

शिकार खेलना उस समय बहुत रिवाज था राजा शिकार के लिए बाहर जाया करते थे और उसकी सहायता के लिए बहुत से लोग तैनात रहते थे मेगास्थनीज ने रथ दौड़ दौड़ दौड़ सारण युद्ध और मल युद्ध का वर्णन किया है यूनानी यों ने लिखा है कि भारतीयों का प्रमुख आहार भात था जिसके ऊपर मसालेदार मांस रखा जाता था शाही भोजनालय में भी मांस बनता था जब अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया तब उसने पशुओं के वध पर रोक लगा दी। राजस्थानी के अनुसार भारत के लोग अकेले में भोजन करते हैं ,उनका इकट्ठे मिलकर भोजन करने का कोई नियत समय नहीं है जिस समय जिस की इच्छा होती है वह भोजन कर लेता है मौर्य काल में स्वादु भोजन बनाने के लिए बहुत प्रयत्न किया जाता था बाजार में भी कई प्रकार के भोजन पदार्थ बेचे जाते थे दूध पीने का बहुत रिवाज था लोग अंगूरों का रस, मधु और शराब भी पीते थे फलों और बूटियों का भी प्रयोग किया जाता था सूरा का भी प्रयोग प्रचलित था परंतु इस पर सरकार का नियंत्रण था।

कौटिल्य ने कई प्रकार के मदिरा का उल्लेख किया है मेगास्थनीज ने लिखा है कि विशेष अवसरों को छोड़कर साधारण तो भारत के लोग मद्यपान से दूर रहते थे क्षत्रियों में मद्यपान का रिवाज बहुत प्रचलित था यद्यपि बौद्ध और जैन धर्म में इसको कम करने की कोशिश की तथा पीवे सफल ना हुएमेगास्थनीज ने लिखा है कि मौर्य काल में भारतीयों का नैतिक स्तर बहुत ऊंचा था साधारण पर लोग झूठ चोरी आदि से घृणा करते थे यज्ञ के अवसरों के अतिरिक्त वे शराब नहीं पीते थे लोग अपने घरों पर ताला नहीं लगाते थे इस समय लोग बड़े ईमानदार हुआ करते थे इनमें बहुत कम झगड़े भी होते थे अशोक ने धर्म महा मात्रों की नियुक्ति की थी ताकि लोगों का जीवन सुधरे। मेगास्थनीज के साथ-साथ कई अन्य इतिहासकारों ने भारत में दास प्रथा नहीं होने का उल्लेख किया है मगर वास्तविकता इसके विपरीत थी भारत में दातों की प्रथा थी यह हो सकता है कि मेगास्थनीज को भारत में दातों के प्रति स्वामियों द्वारा किया गया व्यवहार अच्छा लगा हो अथवा उसने किसी विशेष क्षेत्र का ही उल्लेख किया हो एक ही स्थान पर पाटिल ने लिखा है कि किसी भी परिस्थिति में हार के लिए दास्तां नहीं होगी मौर्य काल में दांतो का बड़ा योगदान था त्रिपिटक में दातों के चार प्रकार बताए गए हैं कौटिल्य ने 9 प्रकार के दोषों का वर्णन किया है दास संपत्ति का एक रुप हुआ करता था दास श्रम के द्वारा भूमि कर्षण का तरीका सामान्य हो गया था।कौटिल्य ने आजीवन दासू और किसी काल विशेष के लिए दांतों में अंतर रखा है दसों के व्यक्तित्व और उनके श्रम का निपटारा करने में स्वामी को असीमित अधिकार थे।मौर्य काल में क्षत्रियों में कई वर्ग बन गए थे जो क्षत्रिय निर्धन बन गए उन्हें लोगों से पैसे लेकर उनके लिए लड़ने का व्यवसाय अपना लिया कई क्षत्रियों ने व्यापार का काम शुरूकर दिया।मौर्य काल में पैसो की अवस्था क्षत्रिय और ब्राह्मणों के नजदीक पहुंच गई क्योंकि उनका वाणिज्य की श्रेणियों पर अधिकार था इसलिए उन्होंने नागरिक संस्थाओं पर भी अपना अधिकार जमा लिया क्योंकि उनको आपने अवस्था के अनुसार समाज में ऊंचा स्थान ना दिया गया इसलिए उनमें बड़ा असंतोष था उसी कारण उन्होंने बौद्ध और जैन धर्म को सहायता दी। इस युग में शूद्रों के कर्तव्य अधिक थे और अधिकार कम। समाज और पुरुष और स्त्री दोनों को पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त था पुरुषों के पुनर्विवाह संबंध में यह नियम थे यदि किसी स्त्री के 8 साल तक बच्चा ना हो या जो बंध्या हो उसका पति पुनर विवाह से पूर्व 8 साल की प्रतीक्षा करें यदि स्त्री के मृत बच्चा पैदा हो तो 10 साल तक प्रतीक्षा करें स्त्री के मर जाने पर तो पुनर्विवाह हो ही सकता था।

पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी पुनर्विवाह का अधिकार प्राप्त था पति के मरने के बाद यदि कोई स्त्री दूसरा विवाह करना चाहे तो उसे अपने ससुर तथा पति पक्ष संबंधियों द्वारा प्राप्त धन वापसी करना होता था। अर्थशास्त्र में लिखा है कि भूमि अपने संबंधियों को ही बेची जा सकती थी साधारण दूसरे गांव के लोगों को नहीं बेची जाती थी भूमि के स्वामी को अपनी भूमि कुछ की राय लेकर किसी दूसरे व्यक्ति को देने का अधिकार था वे जमींदार उस भूमि के स्वामी समझे जाते थे राजा को भूमि की उपज का एक भाग लेना या छोड़ने का अधिकार था।कौटिल्य ने अपने आप शास्त्र में लिखा है कि जिस भूमि पर किसी ने खेती ना की हो उसको बसाने का राजा को पूरा अधिकार था मौर्य ने इस प्रकार 94 भूमि पर शूद्रों को बसाकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारा राज्य के कई निजी कृषि फार्म भी हुआ करते थे जिस दिन से राज्य को बहुत आए होता था सिंचाई के साधनों में भी कृषि को लाभ होता था कभी-कभी राजा दूसरे व्यक्तियों की भूमि जप्त कर लेता था राजकीय कृषि फार्म के प्रबंध के लिए अलग-अलग अध्यक्ष रखने की व्यवस्था थी फुल फॉर्म में से कुछ बर्दाश्त मजदूर अथवा अपराधी काम करते थे जो किसान अपने बैल और हल्ला ते थे उनको उपज का आधा भाग दिया जाता था और यदि सरकार उन्हें बैल और हल देती थी तो उन्हें उपज का 1/ 5 से 1/4 भाग तक दिया जाता था । गांव के चारों ओर 800 भूमि पूरे गांव की संपत्ति होती थी।कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उस समय के डाक प्रबंध का वर्णन है संदेश भेजने के लिए कबूतरों का प्रयोग किया जाता था उसके गले आदि में पत्र बांधकर उन्हें उड़ा दिया जाता था और वह सीधे उड़ते हुए ठीक स्थान पर पहुंच जाते थे। मौर्य काल में ब्राह्मणों का विशेष स्थान हुआ करता था मेगास्थनीज ने लिखा है कि सरकार ब्राह्मणों से किसी प्रकार का कर नहीं लेती थी उन्हें अपनी जाति के बाहर विवाह करने का विशेष अधिकार था ब्राह्मण लोग सादा जीवन बिताते थे उनमें से कुछ जंगल में जाकर रहते थे पत्तों और फलों से अपना निर्वाह किया करते थे कई स्थानों में लिखा है कि ब्राह्मणों को भूमि और धन राजा ने दिए कई ब्राह्मणों ने कर इकट्ठा करने का निरीक्षण किया कई ब्राह्मण परिवार धनी और प्रभावशाली थेयदि पी ब्राह्मण करो से मुक्त थे तथा पर कौटिल्य ने लिखा है कि जो ब्राह्मण सरकार के कामों में हस्तक्षेप करता है उसे डुबो देना चाहिए यदि कोई ब्राह्मण चोरी करें तो भी उसे विशेष दंड देना चाहिए ऐसा प्रतीत होता है कि मौर्य काल में ब्राह्मणों ने अपने परंपरागत व्यवहार छोड़ने शुरू कर दिए और पशु पालन और वाणिज्य के काम शुरू कर दिए थे। अशोक समय-समय पर साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में दौरा किया करता था इस दौरे का मुख्य उद्देश्य प्रजा के कष्टों के बारे में जानकारी प्राप्त करना था अशोक के धर्म महामात्र भी लोगों के जीवन सुधारने के लिए स्थान स्थान पर भ्रमण किया करते थे अशोक ने प्रचलित दंड विधान का सुधार किया उसकी कठोरता को थोड़ा कम करने का प्रयास किया अशोक ने अपने पांचवें स्तंभ लेख में लिखा है कि वह प्रतिवर्ष अपने अभिषेक दिवस पर बंदियों को मुक्त करता था तथा चौथे स्तंभ लेख में लिखा है कि अशोक अपराधियों को मृत्युदंड देने से पहले 3 दिन का समय देता था ताकि वे अपने आने वाले जीवन को सुधारने का प्रयत्न कर सके।मंत्री अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए राजा के प्रति उत्तरदाई होते थे यद्यपि वह जनता द्वारा नहीं चुने जाते थे तथापि उनकी एक प्रकार से जनता के प्रति जिम्मेदारी भी होती थी आपने चरित्र और कार्यों द्वारा मंत्री जनता का हृदय जीतने की कोशिश करते थे।

प्रधानमंत्री देश में अच्छी सरकार चलाने के लिए जिम्मेदार था।निष्कर्ष मौर्य काल में मदद साम्राज्य का जितना विकास हुआ उतना कभी नहीं हुआ इस काल में साम्राज्य का विस्तार भी संपूर्ण भारत वर्ष में हुआ राज्य विषय के पूर्व काल से लेकर साम्राज्यवाद के आविर्भाव चंद्रगुप्त मौर्य के राज्याभिषेक एवं मगध साम्राज्य के विस्तार के मूल में चाणक्य कौटिल्य की भूमिका सर्वोत्कृष्ट रही उसी सुदृढ़ नींव के बल पर अशोक जैसे महान सम्राट ने संपूर्ण विश्व में ख्याति प्राप्त की मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था पर चर्चा की जाए तो वह निश्चित रूप से संतोषप्रद थी एवं संपूर्ण प्रक्रिया में नयापन कुछ भी नहीं था मौर्य काल अध्यात्म एवं धर्म के प्रचार प्रसार एवं संस्था अपना में महती भूमिका का निर्वाह हक रहा अशोक का धम्म मानव कल्याण की दिशा में किसी शासक द्वारा अपनाया गया पहला कदम कहना अतिशयोक्ति ना होगा मौर्यकालीन कला संस्कृति एवं स्थापत्य की दृढ़ता आज भी अवशेष स्थलों पर देखी जा शक्ति है।मौर्य काल को कला संस्कृति का स्वर्ण युग कहना उपयुक्त होगा साहित्य स्रोत का अभाव अवश्य मां काल हो कठोरता रहेगा ऐतिहासिक शोध में अभिलेख शिलालेख स्तूप के अतिरिक्त लिखित साहित्य में कौटिल्य का अर्थशास्त्र एवं मेगास्थनीज की इंडिका उपलब्ध है उपलब्ध साहित्य भीम और काल की संतोषजनक सामग्री उपलब्ध नहीं करा पाता इन दोनों में अतिशयोक्ति पूर्ण एवं तिथि रहित तथ्य भरे पड़े हैं।


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सम्राट अशोक (273 से 232 ई पू) https://vinayiasacademy.com/?p=2423 https://vinayiasacademy.com/?p=2423#respond Sun, 21 Jun 2020 15:11:04 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2423 Share itसम्राट अशोक (273 से 232 ई पू):-सम्राट अशोक का वास्तविक नाम अशोक था इन्होंने अपनी उपाधि महान घोषित की थी ।सम्राट अशोक की विशेषताओं में सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्यवादी युग में युद्ध नीति का परित्याग कर प्रजा को संतान के रूप में मानने वाला वह पहला विश्व सम्राट था। दीप वंश, दिव्यावदान, महा वंश, एवं […]

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सम्राट अशोक (273 से 232 ई पू):-सम्राट अशोक का वास्तविक नाम अशोक था इन्होंने अपनी उपाधि महान घोषित की थी ।सम्राट अशोक की विशेषताओं में सबसे महत्वपूर्ण साम्राज्यवादी युग में युद्ध नीति का परित्याग कर प्रजा को संतान के रूप में मानने वाला वह पहला विश्व सम्राट था। दीप वंश, दिव्यावदान, महा वंश, एवं महाबोधि वंश इन साहित्यिक स्रोतों से हमें सम्राट अशोक की जानकारी उपलब्ध होती है। इनके ऐतिहासिक स्रोत में मास्की अभिलेख और जूनागढ़ अभिलेख महत्वपूर्ण है। यह माना जाता है कि भगवान बुद्ध ने सम्राट अशोक के जन्म से बहुत पहले ही उनके बारे में भविष्यवाणी कर दी थी और उनका कहना था कि पाटलिपुत्र में एक ऐसा राजा होगा जो चार में से एक महादेव प्रशासन करेगा और जंबूद्वीप में मेरे प्रवचनों को प्रचारित करेगा।पूरी दुनिया में मेरे विचारों का प्रचार-प्रसार करेगा सम्राट अशोक ने ऐसा ही किया जैसा भगवान बुद्ध ने कहा था।इनके पिता का नाम बिंदुसार था तथा माता धम्मा थी जो (चंपा के ब्राह्मण की पुत्री थी)। सम्राट अशोक का जन्म 304 ईसापुर पाटलिपुत्र में हुआ था जो कि आज के पटना शहर के नाम से जाना जाता है।

माना जाता है कि बिंदुसार की 16 पटरानी या और 101 पुत्र थे पुत्रों में केवल तीन के नाम ही उल्लेखनीय हैं सुशीम। जो सबसे बड़ा था अशोक और तिष्य।कहा जाता है कि उन्हें इतना बल था कि वह एक लकड़ी के छड़ से ही एक सिंह को मार डालने की क्षमता रखता था। अशोक को उनके प्रारंभिक समय में एक निडर परंतु बहुत ही बेरहम राजा माना जाता है, 286 ईसापुर में उनको अवंती प्रांत के वायसराय नियुक्त किया गया उज्जैन विद्रोह को दबाने के बाद। पिता बिंदुसार ने अशोक को तक्षशिला का भी वायसराय बना दिया था। सम्राट अशोक को भारत के इतिहास के साथ-साथ दुनिया भर में 2 वजहों से जाना जाता है पहला कलिंग युद्ध और दूसरा भारत और दुनिया में बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए272 ईसा पूर्व में अशोक के पिता बिंदुसार की मृत्यु के उपरांत 2 वर्षों तक अशोक और उसके सौतेले भाइयों के बीच घमासान युद्ध चला बौद्ध ग्रंथ डीपवंश और महा वंश के अनुसार अशोक ने सिंहासन पर कब्जा करने के लिए अपने 99 भाइयों को मार गिराया।अपने शासनकाल के दौरान वह अपने साम्राज्य को भारत के सभी 1 महाद्वीपों तक बढ़ाने के लिए लगातार 8 वर्षों तक युद्ध करता चला गया। कलिंग पर खूनी जंग में दोनों पक्षों के एक लाख सैनिकों की मृत्यु के उपरांत इतनी बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु से सम्राट अशोक त्रस्त होकर कसम खा ली कि वह जीवन में और कभी युद्ध नहीं करेगा। इसके उपरांत ही उन्होंने अपनी नीति में बदलाव लाया और उन्होंने अपने राज्य की बेहतरी के लिए प्रयास किए तथा बौद्ध धर्म को अपनाकर इस धर्म के प्रचार प्रसार में अपना समय व्यतीत करने लगे।

सम्राट अशोक का शासनकाल ३७ वर्षों का था। जैसा कि हम जानते हैं कलिंग युद्ध से पूर्व सम्राट अशोक दोस्त एवं क्रूर हुआ करता था अतः अंतापुर में उसकी क्रूरता का मजाक उड़ाने पर उसने 500 स्त्रियों का वध कर डाला था। फाहयान तथा हुएनसांग के अनुसार पाटलिपुत्र में अशोक द्वारा स्थापित एक नरक था जिसमें वह प्रजा को दंड दिया करता था। अशोक के 13वें शिलालेख में कलिंग युद्ध के संबंध में विस्तृत वर्णन मिलता है जिस समय अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया उस दौरान कली उत्तर में वैतरणी से लेकर पश्चिम में अमरकंटक एवं दक्षिण में महेंद्र गिरी पर्वत तक फैला हुआ था। दक्षिण भारत से सीधा संपर्क बनाना इसके लिए बहुत जरूरी था ,बिंदुसार कालीन प्रतिशोध की भावना एवं मौर्य साम्राज्य के हितों की सुरक्षा के लिए अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त किए।धोनी और जोगड़ अभिलेख कलिंग की प्रजा से संबंधित है इन अभिलेखों में अशोक ने प्रजा को अपनी संतान कहा है।कलिंग विजय के उपरांत अशोक का हृदय परिवर्तन हो गया अशोक ने युद्ध के बजाय शांति और अहिंसा की नीति को अपनाया कलिंग विजय अशोक के लिए परिवर्तनकारी घटना थी यह दिग्विजय से धम्मविजय में परिवर्तित हो गया।

कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा विजय देश की जनता के कष्ट से अशोक की अंतरात्मा झकझोर दिया। राज्यारोहण के नौवें वर्ष उसने कलिंग के शक्तिशाली राज्य पर आक्रमण किया तथा भीषण संग्राम और भयानक नरसंहार के बाद उसे विजय की प्राप्ति हुई इस युद्ध में लगभग 100000 लोग मारे गए डेढ़ लाख बंदी बनाए गए और सहस्त्र घायल हुए घायलों की चीख-पुकार व विधवाओं के विलाप और अनाथ बालकों के करुण क्रंदन का उस पर भारी प्रभाव पड़ा उसका ह्रदय करुणा से ओतप्रोत हो गया और उसने इस भीषण रक्तपात और भारी जनसंहार का प्रमुख कारण अपने आप को ही माना और भविष्य में युद्ध करने का दृढ़ निश्चय किया ।कलिंग विजय अशोक द्वारा राज्य विस्तार का अंतिम परिणाम था इस युद्ध की अत्यंत भयंकर नरसंहार ने युद्ध की विनाश लीला ने सम्राट को शोकाकुल बना दिया और वह प्रायश्चित करने के प्रयत्न मैं बौद्ध विचारधारा की ओर आकर्षित हुआ।मगर इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपने पूर्वजों की तरह अशोक भी वैदिक धर्म का अनुयाई था कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार अशोक के इष्ट देव शिव थे लेकिन अशोक कलिंग युद्ध के बाद अब शांति और मोक्ष चाहता था और उस काल में इन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया।भाब्रू लघु शिलालेख में अशोक त्रिरत्न बुद्धम और संघ में विश्वास करने के लिए कहता है और भिच्छू तथा तथा भी चूड़ियों से कुछ बौद्ध धर्म के ग्रंथों का अध्ययन तथा श्रवण करने के लिए कहता है लघु शिलालेख से यह भी पता चलता है कि राज्य विषय के दसवें वर्ष में अशोक ने बोधगया की यात्रा की।कलिंग विजय के उपरांत सम्राट अशोक ने साम्राज्य को सैनिक शक्ति के बजाय धम्म से संगठित करना ज्यादा सरल समझा। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म श्रमण,मोगालीपुत्त तिस्स के संपर्क से अपनाया था।

भाब्रू शिलालेख के अनुसार अशोक ने 84000 स्तूप का निर्माण कराया था। तथा इन्होंने बोधगया की यात्रा की एवं स्तूपोर के निर्माण से यह सिद्ध होता है कि अशोक का धर्म बौद्ध धर्म ही था और उसने उसी का प्रचार किया।वस्तुत अशोक के धम मानव धर्म एवं नैतिक नियमों से परिपूर्ण सर्वग्राही दिनचर्या थी जो मानव मानव में विश्वास बंधुओं एवं सहिष्णुता को प्रकट करने का उद्देश्य मात्र था। इसने मानव कल्याणकारी तत्वों को बौद्ध धर्म में से निकालकर बुध की परिकल्पना ओं को सर्वग्राही रूप में धम्म के रूप में प्रस्तुत किया। अशोक के दूसरे एवं सातवें अभिलेखों के अनुसार अशोक ने धम्म को परिभाषित करते हुए अभिव्यक्त किया है कि धम्म साधुता है।, बहुत से अच्छे कल्याणकारी कार्य करना, पाप रहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया, दान, सत्य एवं पवित्रता है। इन्होंने धाम में के कुछ स्वीकार लिया तथ्यों को भी बताया है यथा, जीव हिंसा नहीं करनी चाहिए, माता पिता की आज्ञा का पालन करना चाहिए, गुरुजनों के प्रति आदर भाव प्रदर्शित करना चाहिए, दास एवं नौकरों के प्रति सुहृदयी होना चाहिए, अल्प व्यय करना चाहिए, एवं अल्पसंगरह करना चाहिए।अशोक के धर्म के अनुसार पाप धम्म की प्रकृति का औरोधक है इसलिए धन की प्राप्ति के लिए इनसे बचना अत्यंत आवश्यक है। पाप को अशोक के धर्म के अनुसार कई भागों में वर्गीकृत किया गया है, इसलिए धम्म की प्राप्ति के लिए इनसे बचना अत्यंत आवश्यक है। अशोक के धर्म का सैद्धांतिक पक्ष यह उजागर करता है कि अशोक को परलोक में विश्वास था। अशोक के शासन का मूल आधार इस समय ‘धम्म’हो गया था।

अशोक के अभिलेखों में धर्म शब्द का प्रयोग अनेक जगहों पर होता है अशोक धर्म शब्द का तो नाम लेता है लेकिन विशेषताएं बताता है कि अनुकरणीय जिसका मनुष्य को अनुसरण करना चाहिए वर्जनीय जो अनुकरणीय है वह धर्म है और जो वर्जन ई य है या अधर्म है ,पाप है। अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार यात्राओं से प्रारंभ किया ,सम्राट अशोक का साम्राज्य बहुत बड़ा था अशोक ने अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को भी धर्म प्रचार के काम में लगा दिया तीसरे स्तंभ लेख एवं सातवें स्तंभ लेख से ज्ञात होता है कि उसने व्युस्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार एवं उपदेश करने का आदेश दिया था अधिकारी प्रति 5 पांचवें वर्ष अपने-अपने क्षेत्रों के दौरे पर जाया करते थे तथा सामान्य प्रशासन किए कार्यों के साथ जनता में धर्म का प्रचार प्रसार किया करते थे। उसने अपने साम्राज्य के विभिन्न पदाधिकारी को जगह-जगह घूमकर धर्म के बारे में लोगों को बताने की आज्ञा प्रदान की थी साथ ही साथ राजा की ओर से जो धर्म संबंधी घोषणा है भी हुआ करती थी।अपने अभिषेक के 13 वर्ष में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अशोक ने पदाधिकारियों का एक नवीन वर्ग बनाया जिसे धर्म महामात्र कहा जाता था राज परिवार के सदस्यों से धर्म के लिए धन आदि दान में प्राप्त करते थे और राजा द्वारा जो धन दान में दिया जाता था उस की समुचित व्यवस्था करके उसे धर्म प्रचार के काम में लगाया करते थे। इनका प्रमुख कार्य विभिन्न धर्मों के संप्रदायों के बीच के देशों को समाप्त करना एकता पर बल देना धर्म की रक्षा करना और धर्म की वृद्धि करना था। इसके साथ ही साथ सम्राट अशोक ने मानव और पशु जाति के कल्याण के लिए भी अनेक कार्य किए सर्वप्रथम पशु पक्षियों की हत्या पर रोक लगा दी गई अपने व विदेशी राज्यों में भी मनुष्य और पशुओं के लिए चिकित्सालय की व्यवस्था करवाई कुए खुद बाय विश्रामगृह बनवाएं फलदार वृक्ष लगवाए प्याऊ लगवाए।

दीपांश एवं महा वंश के अनुसार अशोक के राज्य काल में पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति हुई इसकी अध्यक्षता मोगलीपुत्त तिस्स नामक बौद्ध भिक्षु ने की थी। इस समिति की समाप्ति के बाद अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए कई भिक्षुओं को विदेश भी भेजा ,लंका में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को भेजा था, माना जाता है कि यहां के राजा ने इसे अपना लिया और बौद्ध धर्म को राज धर्म के रूप में घोषित कर दिया था तथा अशोक के अनुकरण पर उसने देवा नाम प्रिय की उपाधि भी ग्रहण कर ली। भारतीय इतिहास में अशोक के अभिलेखों का महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है अशोक के यह लेख पत्थरों के स्तंभों और शीला ऊपर हिमालय से मैसूर तक और उड़ीसा से काठियावाड़ आ तक खुदे हुए हैं यह पाली भाषा में है, इन अभिलेखों को पाली भाषा में खुदवाने का एक विशेष कारण यह भी था कि उस समय अधिकांश लोग पाली भाषा को व्यवहार में लाया करते थे। केवल मान सेहरा और शाहबाजगढ़ी के अभिलेखों की लिपि खरोष्ठी है ब्राह्मी लिपि बाएं से दाएं और और खरोष्ठी दाएं और से बाई ओर लिखी जाती थी ।मोटे तौर पर इन शिलालेखों को तीन भागों में विभाजित किया गया है शिलालेख स्तंभ लेख और गुहालेख। सम्राट अशोक ने अपने प्रशासनिक व्यवस्था को काफी सरल बनाते हुए चंद्रगुप्त मौर्य के शासन से नए तत्वों का समावेश किया जिसमें राजद एवं देवत्व के मध्य सीधा संपर्क करना आसान था। प्रजा को अपनी संतान के समकक्ष मानने के लिए हर संभव प्रयास किए गए थे।अशोक के सिपाहियों को आदेश था कि राजा को किसी भी तरह के कष्ट होने पर किसी भी समय और किसी भी स्थान पर उनसे मिलने में कोई कठिनाई ना हो। न्याय प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी एवं न्यायाधीश अशोक स्वयं ही हुआ करता था । न्यायिक अधिकारी राजुक होते थे जिन्हें व्यापक अधिकार प्रदान किए गए थे।इसके शासनकाल में प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था सभी विभागों का नियंत्रण राजा के अधीन होता था सभी पदाधिकारियों की नियुक्ति एवं समस्त कार्यों का उत्तरदायित्व राजा के हाथों में होता था।


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मौर्य साम्राज्य की विस्तृत जानकारी:-छठी शताब्दी में महाजनपदों की शक्ति के बल पर मगर में मौर्य ने एक शक्तिशाली साम्राज्य जिसका नाम मगध था इस साम्राज्य की स्थापना की इस साम्राज्य की स्थापना का श्रेय मगध संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य और उनके मंत्री आचार्य कौटिल्य (चाणक्य) हो जाता है इतिहास में मौर्य साम्राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका थी ।यह साम्राज्य पूर्व में मगध राज्य से लेकर गंगा नदी के मैदान तक विस्तृत था। इसकी राजधानी (पाटलिपुत्र) थी जो आज के पटना शहर के नाम से विख्यात है इसने पूर्व की तरफ तो कई छोटे-छोटे राज्यों को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला था चला गया जो सिकंदर महान के आक्रमण के पश्चात अस्त व्यस्त हो गए थे चक्रवर्ती सम्राट अशोक के राज्य में मौर्य वंश का वृहद स्तर पर विस्तार हुआ सम्राट अशोक के कारण ही मौर्य साम्राज्य सबसे महान एवं एक शक्तिशाली राज्य बनकर विश्व भर में प्रसिद्ध हुआ।

मौर्य वंश के शासकों का विवरण कुछ इस प्रकार-इसके प्रथम शासक चंद्रगुप्त मौर्य थे जो 321 से 300 ई पू इसका शासनकाल रहा इनका वास्तविक नाम चंद्रगुप्त मौर्य था इनके पूर्वज पीपलीवन के शासक थे मगर इनका बाल्यकाल जंगलों में बीता कुछ समय बाद तक्षशिला के आचार्य चाणक्य ने नंद वंश के विनाश के लिए चंद्रगुप्त मौर्य को कूटनीति की शिक्षा प्रदान करने लगे इनका मुख्य लक्ष्य यूनानी आक्रमणकारियों से लोगों को सुरक्षा प्रदान करना तथा मगध को नंदू से मुक्त कराना था। चंद्रगुप्त मौर्य ने घनानंद जो नंद वंश के अंतिम शासक थे उनको मारकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की माना जाता है कि धनानंद को मारने के लिए चंद्रगुप्त ने सिकंदर से सहायता मांगी थी मगर वह इसमें असफल रहा है पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य को मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार किया गया है।विष्णु पुराण के अनुसार चंद्रगुप्त का जन्म नंद राजा की पत्नी मोरा से हुआ था और इस पुराण के अनुसार चंद्रगुप्त को शूद्र जाति का माना गया है मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त के लिए वृषभ और कुल ही शब्द का प्रयोग किया गया।इसी प्रकार ब्राह्मण धर्म ग्रंथों में इसे शूद्र जाति का माना गया है और बौद्ध धर्म के अनुसार इसे क्षत्रिय कुल का माना गया।मगर जैन धर्म के मतानुसार कहा जाता है कि इस स्कूल के लोग मोर पाला करते थे और इसी वजह से इन्हें मौर्य वंश का नाम दिया गया।

इतिहासकार जस्टिन के अनुसार सेंन्डद्रीकोटस(चंद्रगुप्त)निम्न जाति में पैदा हुआ था मगर उसे दैवीय शक्ति प्राप्त होने की वजह से उसे राज पद की प्राप्ति हुई।चंद्रगुप्त के राजा बनने के उपरांत उसने एक विशाल सेना की सहायता से एक वृहद साम्राज्य की स्थापना की ऐसा माना जाता है कि सौराष्ट्र के शासक उसे गुप्त को चंद्रगुप्त ने मनोनीत किया था।माना जाता है कि चंद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी।चंद्रगुप्त का साम्राज्य पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में हिंदू कुश पर्वत तक विस्तृत थी और उत्तर में हिमालय की श्रृंखला से दक्षिण में मैसूर तक विस्तृत था साथ ही पश्चिमोत्तर में मध्य एशिया तक इसने अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था। इस की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ थी राजा राज्य का सर्वोपरि हुआ करता था और सभी अधिकारी राजा के अधीन होते थे।पदाधिकारियों द्वारा प्रशासन का नियंत्रण राजा करता था तथा गुप्त चारों की सहायता से राजा सभी अधिकारियों पर नियंत्रण रखता था स्त्रियां महल में अंग रक्षकों के साथ रहती थी वह लोग मद्यपान एवं खेलकूद में भी अभिरुचि लिया करती थी। ब्राह्मणों का आदर किया जाता था तथा चंद्रगुप्त मौर्य जैन धर्म का संस्थापक था।

चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु के पहले 12 वर्ष का अकाल पड़ा जिस से त्रस्त होकर चंद्रगुप्त मौर्य ने आचार्य भद्रबाहु के साथ मैसूर चला गया और वही उसने उपवास करते हुए आत्महत्या (सल्लॆखन) कर लिया, श्रवणबेलगोला में चंद्रगुप्त मौर्य को कैवल्य की प्राप्ति हुई बिंदुसार:-(अमित्रघात) चंद्रगुप्त मौर्य, मौर्य साम्राज्य के संस्थापक थे उनके पुत्र का नाम बिंदुसार हुआ जो चंद्रगुप्त मौर्य के बाद मौर्य साम्राज्य के अगले राजा बने बिंदुसार के विषय में इतिहास में कोई खास जानकारी उपलब्ध नहीं है।बिंदुसार भारत का दूसरा मौर्य शासक था और मौर्य सम्राट के सबसे महान शासक सम्राट अशोक के पिता भी थे।चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक इतने महान शासक थे कि उनके सामने बिंदुसार का जीवन चरित्र धूमिल नजर आता है।बिंदुसार का उपनाम अमित्र घाट था जिसका अर्थ है शत्रुओं का संघार इसके अलावा भी बिंदुसार के कई और नाम थे जैसे अमित्रकेटे, अमितश्रचेत्से, सिंह सेन इत्यादि। पुराणों के अनुसार इसकी शासन अवधि तो 4 वर्षों की थी चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य के उपरांत बिंदुसार के शासन प्रशासन में भी उनकी योगदान दीया जितनी कि चंद्रगुप्त मौर्य के समय उन्होंने किया था।बिंदुसार ने अपने पिता द्वारा स्थापित मौर्य साम्राज्य पर शासन किया और अपने पिता के राज्य को अक्षुण्य रखा।

बिंदुसार के जीवन चरित्र के बारे में प्राचीन एवं मध्यकालीन सूत्रों और दस्तावेजों से कुछ खास विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है उनके जीवन से संबंधित बहुत सी जानकारी बौद्ध और जैन धर्मों से प्राप्त की गई है। बिंदुसार के शासनकाल में तक्षशिला में दो विद्रोह हुए, जिन का दमन करने के लिए पहली बार अशोक को तथा दूसरी बार सुशील को इन्होंने भेजा था ।बिंदुसार के राज दरबार में यूनानी शासक एंटीओकस प्रथम ने डायमेकस नामक व्यक्ति को राजदूत के रूप में नियुक्त किया। मिश्रा नरेश फिलाडेल्फिया टालमी द्वितीय ने डियानीसियस नामक मिस्र के राजदूत को बिंदुसार के राज दरबार में नियुक्त किया था। बिंदुसार की मृत्यु 272 ई पू मैं हो गई।


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हिमनद:-

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हिमानी या हिमनद ( Glacier) पृथ्वी की सतह पर विशाल आकार की गतिशील बर्फराशि को कहते है ,जो अपने भार के कारण पर्वतीय ढालों का अनुसरण करते हुए नीचे की ओर प्रवाहमान होती है। ध्यातव्य है कि यह हिमराशि सघन होती है और इसकी उत्पत्ति ऐसे इलाकों में होती है जहाँ हिमपात की मात्रा हिम के क्षय से अधिक होती है और प्रतिवर्ष कुछ मात्रा में हिम अधिशेष के रूप में बच जाता है। वर्ष दर वर्ष हिम के एकत्रण से निचली परतों के ऊपर दबाव पड़ता है और वे सघन हिम (Ice) के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। यही सघन हिमराशि अपने भार के कारण ढालों पर प्रवाहित करते है जिसे हिमनद कहते हैं। प्रायः यह हिमखंड नीचे आकर पिघलता है और पिघलने पर जल देता है।

पृथ्वी पर 99% हिमानियाँ ध्रुवों पर ध्रुवीय हिम चादर के रूप में हैं, बर्फ से ढकी हुई। इसके अलावा गैर-ध्रुवीय क्षेत्रों के हिमनदों को अल्पाइन हिमनद कहा जाता है और ये उन ऊंचे पर्वतों के सहारे पाए जाते हैं जिन पर वर्ष भर ऊपरी हिस्सा हिमाच्छादित रहता है।

ये हिमानियाँ समेकित रूप से विश्व के मीठे पानी (freshwater) का सबसे बड़ा भण्डार हैं और पृथ्वी की धरातलीय सतह पर पानी के सबसे बड़े भण्डार हैं।

हिमानियों द्वारा कई प्रकार के स्थलरूप भी निर्मित किये जाते हैं जिनमें प्लेस्टोसीन काल के व्यापक हिमाच्छादन के दौरान बने स्थलरूप प्रमुख हैं। इस काल में हिमानियों का विस्तार काफ़ी बड़े क्षेत्र में हुआ था और इस विस्तार के दौरान और बाद में इन हिमानियों के निवर्तन से बने स्थलरूप उन जगहों पर भी पाया जाते हैं जहाँ आज उष्ण या शीतोष्ण जलवायु पायी जाती है। वर्तमान समय में भी उन्नीसवी (19वी) सदी के मध्य से ही हिमानियों का निवर्तन जारी है और कुछ विद्वान इसे प्लेस्टोसीन काल के हिम युग के समापन की प्रक्रिया के तौर पर भी माना जाता है।

हिमानियों का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि ये जलवायु के दीर्घकालिक परिवर्तनों जैसे वर्षण, मेघाच्छादन, तापमान इत्यादी के प्रतिरूपों, से प्रभावित होते हैं और इसीलिए इन्हें जलवायु परिवर्तन और समुद्र तल परिवर्तन का बेहतर सूचक भी माना जाता है।

हिमानी निर्मित स्थलरूपसंपादित करें

अपरदनात्मकसंपादित करें

भूदृश्य का उद्भव : हिमानीकृत स्थलाकृतियां हिमानी के कार्य अनाच्छादन करने वाली अन्य शक्तियों या कारकों की भांति हिमानियां भी अपरदन , परिवहन तथा निक्षेपण कार्यों द्वारा धरातल के स्वरूप को परिवर्तित करती रहती हैं । किसी हिमानी द्वारा किसी क्षेत्र विशेष की जाने वाली क्रियाओं ( अपरदन , परिवहन , निक्षेपण ) को हिमनदन ( Glaciation ) कहते हैं ।

हिमानी का अपरदन कार्य — हिमानी के अपरदन कार्यों को लेकर विद्वानों में मतभेद है । कुछ विद्वानों अनुसार हिम अधिकतर भूमि की रक्षा करते है , जबकि अन्य के अनुसार हिमानियां अपरदन करती हैं । वास्तव में हिमानियां दोनों ही कार्य करती हैं । जब तक हिम गति नहीं करती है भूमि की रक्षा करती है तथा जब प्रवाहित होने लगता है तो अपरदन करते है । हिमानी मुख्यतः तीन प्रकार से अपरदन करती है :

( i ) उत्पाटन ( Plucking ) :- हिमानी की तली में अपक्षय के कारण बने चट्टानों के टुकड़े गतिशील हिम साथ फंस कर आगे खिसकते रहते हैं । इसे उत्पाटन क्रिया कहते हैं ।
( ii ) अपघर्षण ( Abrasion ) :- हिमानी का अधिकांश अपरदन कार्य अपघर्षण विधि से ही होता है । अकले हिम में अपरदन की अधिक क्षमता नहीं होती है । जब इसमें उत्पाटन द्वारा शिलाखण्ड व कंकड़ पत्थर जुड़ जाते हैं तो घाटी की तली व पावों को रगड़ने व खरोंचने लगते हैं । अपरदन कार्य में हिमानी से पिघला हुआ जल भी सहायता करता है ।

( iii ) सन्निघर्षण ( Attrition ) :- हिमानी के साथ प्रवाहित होते हुए कंकड़ , पत्थर व शिलाखण्ड आपस में भी रगड़े होने से खण्डित होते हैं और घिसते हैं । इस प्रक्रिया को सन्निघर्षण कहते हैं ।

जलवायु परिवर्तन और हिमनद:-

वैज्ञानिकों का दावा है, कि समुद्र में 280 फीट ऊंची दीवार बनाने से नहीं पिघलेंगे ग्लेशियर। ग्लेशियरों को पिघलने से बचाने के लिए वैज्ञानिकों ने नई तरकीब निकाली है, इसके तहत समुद्र में 980 फीट ऊंची धातु की दीवार बनानी होगी। जो पहाड़ के नीचे मौजूद गरम पानी ग्लेशियरों तक नहीं पहुंचने देंगे। इससे हिमखंड टूटकर समुद्र में नहीं गिरेगें। समुद्र का जलस्तर बढ़ने की कमी आएगी साथी तटीय शहरों के डूबने का खतरा भी कम हो जाएगा। वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में यह भी बताया गया कि 0.1 क्यूबिक किलोमीटर से 1.5 किलोमीटर तक धातु लगेगी। अरबों रुपए खर्च होने का अनुमान भी
है। इससे पहले इस तकनीक से दुबई का जुमेरा पार्क और हांगकांग इंटरनेशनल एयरपोर्ट बनाया गया था। दुबई के पास जुमेरा पार्क बनाने में 0.3 किलोमीटर धातु से दीवार बनाई गई थी  जिस पर 86 करोड़ रु खर्च हुए थे।2016 में नासा की जेट प्रोपल्शन लैबोरेटरी ने बताया था कि पश्चिमी अंटार्कटिका की बर्फ काफी तेजी से पिघल रही है। पहाड़ के नीचे गर्म पानी भरना इसका कारण हो सकता है।

हिमालय की हिमानियाँ:-

हिमालय में हजारों छोटे-बड़े हिमनद है जो लगभग 3350 वर्ग किमी0 क्षेत्र में फैले हुए है। कुछ विशेष हिमनदों का विवरण निम्नवत् है –

गंगोत्री- यह 26 किमी0 लम्बा तथा 4 किमी0 चौड़ा हिमखण्ड उत्तरकाशी के उत्तर में स्थित है।

पिण्डारी- यह गढ़वाल-कुमाऊँ सीमा के उत्तरी भाग पर स्थित है।

सियाचिन – यह काराकोरम श्रेणी में है और 72 किलोमीटर लम्बा है

सासाइनी – काराकोरम श्रेणी

बियाफो – काराकोरम श्रेणी

हिस्पर – काराकोरम श्रेणी

बातुरा – काराकोरम श्रेणी

खुर्दोपिन – काराकोरम श्रेणी

रूपल – काश्मीर

रिमो – काश्मीर, 40 किलोमीटर लम्बा

सोनापानी – काश्मीर

केदारनाथ – उत्तराखंड कुमायूँ

कोसा – उत्तराखंड कुमायूँ

जेमू – नेपाल/सिक्किम, 26 किलोमीटर लम्बा

कंचनजंघा – नेपाल में स्थित है और लम्बाई 16 किलोमीटर।


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