Share it

मौर्योत्तर कालीन भारत तथा इंडो ग्रीक परिस्थिति:–

Vinayiasacademy.com
लगभग 2200 वर्षों पहले मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया मौर्य वंश के पतन हो गया तथा शुंग वंश के साथ-साथ कई नए छोटे-छोटे राज्यों का भी होता है होना प्रारंभ हो गया था पश्चिमोत्तर में तथा उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में करीब एक सौ सालो तक हिंदी यवन राजाओं का शासन रहा इसके बाद पश्चिम उत्तर तथा उत्तर पश्चिमी भारत पर सको ने मध्य एशियाई लोगों का शासन स्थापित किया इनमें से कुछ राज लगभग 500 वर्षों तक टिके रहे जब तक कि उन्हें गुप्त राजाओं से पराजय का मुंह ना देखना पड़ा, सको के बाद किसानों ने अपना अधिपत्य किया सॉन्ग के बाद कारण और इसी प्रकार कई छोटे-छोटे साम्राज्य का उदय होता रहा उस समय तक जब तक गुप्त साम्राज्य 1700 वर्षों पहले अपने अस्तित्व में नहीं आए अतः गुप्त साम्राज्य की स्थापना होने के बाद इन्होंने गुप्त साम्राज्य की स्थापना की और इन सारे छोटे-छोटे राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया और एक विशाल गुप्त साम्राज्य की स्थापना की जाने के बाद भारत में राजनीतिक एकता का ह्रास होने लगा अब विशाल मौर्य साम्राज्य छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो ना प्रारंभ हो गया था। उत्तर भारत में विदेशी आक्रमणकारियों तथा दक्षिण भारत में स्थानीय शासकों ने शिथिल पड़े इस अव्यवस्था का लाभ उठाना प्रारंभ कर दिया था, इस स्थिति का लाभ उठाते हुए पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य साम्राज्य पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।

पुष्यमित्र शुंग गाने अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर 187 ईसा पूर्व मौर्य साम्राज्य का शासक बन गया अतः इसी समय मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया और शुंग वंश की स्थापना हुई। तत्कालीन ऐतिहासिक स्रोत पतंजलि के महाभाष्य के अनुसार यूनानीयों ने अवध के साकेत और चित्तौड़ के मध्यामिका नगरी पर आक्रमण किया था जिसे पुष्यमित्र शुंग ने पराजित कर दिया पुष्यमित्र अंतिम बार नरेश मर्यादा का प्रधान सेनानायक था इस के प्रारंभिक जीवन के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध नहीं है मगर दो वरदान के अनुसार उसे उसे उसे पुस्यधर्म का पुत्र बताया गया है ज्ञात होता है कि 1 दिन बृहदरथ की सेना का निरीक्षण करते समय पुष्यमित्र ने धोखे से उसकी हत्या कर दी ।इसका उल्लेख पुराणों में भी है तथा बाणभट्ट में अपने पुस्तक हर्षचरित में भी इस घटना का वर्णन किया है। पुराण, हर्षचरित तथा पतंजलि का महाभाष्य इतिहास के मुख्य स्रोत है इस संबंध में कुछ सामग्री चौथी शताब्दी के जैन लेखन में रोहतांग कि थेरावादी से भी प्राप्त होती है। कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् में भी पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ तथा विदर्भ राजा के साथ अग्नि मित्र की लड़ाई का वर्णन है धनदेव के अभिलेख से पुष्यमित्र द्वारा दी गई दो घोड़ों की बलि का पता चलता है दिव्या उडान रंगों के धार्मिक उत्पीड़न का ज्ञान कराता है तिब्बती इतिहास अग्य तारा नाथ ने भी संभव के धार्मिक उत्पीड़न का वर्णन किया है। यह भी कहा जाता है कि सॉन्ग भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण हुआ करते थे हमें ब्राह्मणों के सेनापति होने का प्रमाण मिलता है द्रोणाचार्य कृपाचार्य अश्वत्थामा परशुराम इत्यादि इस तथ्य के सबल प्रमाण है। दिव्या को दान में लिखा है कि पुष्यमित्र मौर्य की वंश परंपरा से ही था मालविकाग्निमित्रम् में कालिदास ने बताया है कि पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र बेंबीक वंश का था। उसे मित्र मैं 36 वर्ष तक शासन किया अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी मृत्यु के समय वह वृद्ध होगा विभिन्न और लेखों से इस तथ्य का पता चलता है कि न केवल उसके पुत्र नहीं बल्कि उसके पौत्र ने भी देश पर प्रशासन ने भाग लिया था।

(Vinayiasacademy.comपुष्यमित्र शुंग अंतिम मौर्य नरेश ‌ बृहद्थ का प्रधान सेनानायक था इस के प्रारंभिक जीवन के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध नहीं है मगर दीव्यावदान के अनुसार उसे पुस्यधर्म का पुत्र बताया गया है। ज्ञात होता है कि 1 दिन बृहदरथ सेना का निरीक्षण कर रहा था उस समय पुष्यमित्र ने धोखे से उसकी हत्या कर दी ,इसका उल्लेख पुराणों में भी है तथा बाणभट्ट ने अपनी पुस्तक हर्षचरित में भी इस घटना का वर्णन किया है। पुराण, हर्षचरित तथा पतंजलि का महाभाष्य इतिहास के मुख्य स्रोत हैं।इस संबंध में कुछ जानकारी चौथी शताब्दी के जैन लेखन में रोहतांग कि थेरावादी से भी प्राप्त होती है। कालिदास के मालविकाग्निमित्रम् में भी पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ तथा विदर्भ राजा के साथ अग्नि मित्र की लड़ाई का वर्णन है ।धनदेव के अभिलेख से पुष्यमित्र द्वारा दी गई दो घोड़ों की बलि का पता चलता है । तिब्बती इतिहास अग्यतारा नाथ ने भी संभव के धार्मिक उत्पीड़न का वर्णन किया है। यह भी कहा जाता है कि शून्ग भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण हुआ करते थे , इन्हें ब्राह्मणों के सेनापति होने का प्रमाण मिलता है:- द्रोणाचार्य ,कृपाचार्य ,अश्वत्थामा, परशुराम इत्यादि इस तथ्य के सबल प्रमाण है। दिव्यावदान में लिखा है कि पुष्यमित्र मौर्य की वंश परंपरा से ही था। मालविकाग्निमित्रम् में कालिदास ने बताया है कि पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र बेंबीक वंश का था।

पुष्यमित्र ने 36 वर्ष तक शासन किया अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि अपनी मृत्यु के समय वह वृद्ध होगा विभिन्न लेखों से इस तथ्य का पता चलता है कि न केवल उसके पुत्र ने बल्कि उसके पौत्रों ने भी देश के प्रशासनमें भाग लिया था।पुराण और हरषचरित्र तथा मालविकाग्निमित्रम् सभी में पुष्यमित्र के लिए सेनानी अर्थात सेनापति की उपाधि का ही प्रयोग मिलता है जबकि उसके पुत्र अग्निमित्र को राजा बताया गया है।इस आधार पर कुछ विद्वानों का विचार है कि पुष्यमित्र कभी राजा नहीं बना तथा बृहद्रथ को पदच्युत करने के पश्चात उसने अपने पुत्र को ही राजा बना दिया था किंतु इस प्रकार का विचार तर्कसंगत नहीं लगता। हमें ज्ञात है कि पुष्यमित्र रहने दो अश्वमेघ यज्ञ करवाए थे इसे प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माना गया था इसी से स्पष्ट है कि उसने राज्य भारत ग्रहण किया था।ऐसी विकट परिस्थिति में पुष्यमित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमा कर जहां एक और यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की वहीं दूसरी ओर देश में शांति और व्यवस्था की भी स्थापना कर वैदिक धर्म एवं आदर्शों की जो अशोक के शासनकाल में उपेक्षित हो गए थे पुनः प्रतिष्ठा की। पुष्यमित्र ने वृहद्रथ की हत्या के बाद उसके सचिव को कारागार में डाल दिया था तथा पुष्यमित्र का पुत्र अग्नि मित्र विदिशा का उप राजा बनाया गया उसका मित्र माधव सिंह था जो विदर्भ नरेश यज्ञ सेन का चचेरा भाई होता था परंतु दोनों के संबंध अच्छे नहीं थे।ऐसा कहा जाता है कि विदर्भ साम्राज्य नया ही था और उसकी जड़े अभी मजबूर भी नहीं हुई थी अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ जिसे पुष्यमित्र ने गद्दी से हटा दिया था विदर्भ नरेश यज्ञ सेन का संबंधी बताया गया है। यज्ञ सेन का चचेरा भाई माधव सेन गुप्त रूप से अग्निमित्र से भेंट करने विदिशा आ रहा था किंतु वह मार्ग में ही सीमा के पास पकड़ा गया तथा जेल में डाल दिया गया अग्निमित्र ने यज्ञ सेन से माधव सेन को छुड़वाने को कहा यज्ञ सेन ने उत्तर में अपने एक बहनोई मौर्य मंत्री की मुक्ति की मांग की इस बात पर घमासान युद्ध हुआ और अग्नि मित्र ने वीरसेन को विदर्भ के विरुद्ध सेनापति नियुक्त किया यज्ञ सेन की हार हुई और माधव सेन को मुक्ति मिली विदर्भ उन दोनों ने बांट लिया और वरद नदी दोनों के राज्य की सीमा बनी। डॉक्टर वी ए स्मिथ का मानना है कि कलिंग नरेश खारवेल ने पुष्यमित्र के काल में मगध पर 2 बार आक्रमण किया। वह पाटलिपुत्र से कुछ ईमेल दूर रह गया था पुष्यमित्र कपट पूर्वक मथुरा तक पीछे हट गया और खारवेल ने आगे ना बढ़ ना ही उचित समझा खारवेल का दूसरा आक्रमण वन 61 ऐसा पूर्व में हुआ और अधिक सफल रहा खारवेल ने कलिंग के प्रसिद्ध हाथियों की सहायता से गंगा को उत्तर की ओर से पार किया और मगध की राजधानी पर आधमका । और इसी समय पुष्यमित्र को घुटने टेकने पड़े , मगर इस घटना को कई विद्वानों ने मानने से इनकार कर दिया।

प्रोफेसर रैपसेन का मानना है कि आंध्र के राजा सतकरणी ने पुष्यमित्र से उज्जैन को जीत लिया था नवीन खोजों से पता चलता है कि प्रोफेसर रैप सेन कामत गलत था सात अर्थात सातवाहन कलुगू रूप है सत करने का नहीं हमें ऐसे सिक्के प्राप्त हुए हैं जिन पर लिखा है रानो सिरी सदवाहनस। इसके अतिरिक्त उसकी रानी नयनिका के लेखों से भी यह ज्ञात नहीं होता है कि अवंती को सतकरनी प्रथम ने जीता था। जैन परंपरा के अनुसार पुष्यमित्र 30 वर्षों तक अवंतिका राजा रहा। बैक्ट्रिया विद्रोह का नेता डायोडोटस प्रथम को माना जाता है। माना जाता है कि विद्रोह से पहले काफी समय तक उसने बैक्ट्रिया और सोग्दीयाना मैं सेल्युसीद सम्राट के गवर्नर के रूप में राज्य किया था। छतरप के रूप में उसने एंटी ऑर्कस प्रथम को मिस्र के शासक टोलेमी फिलाडेल्फिया के साथ उसके 274 से 73 ईसा पूर्व के संघर्ष में 20 हाथी सहायता के रूप में भेजे थे । वह एक शक्तिशाली राजा था उसके पड़ोसी उससे डरते थे।डायोडोटस प्रथम के बाद उसका पुत्र डायोडोटस द्वितीय राजा बना मगर उसने अपने पिता की पार्थिया विरोधी नीति को पलट दिया और पारथियों के राजा के साथ संधि कर ली। जिसका परिणाम यह हुआ के सेल्यूकस द्वितीय ने पार्थिया पर आक्रमण किया तो सेल्यूकस ने उसे परास्त कर दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि यूथिडेमस ने डायोड डॉटर्स द्वितीय को केवल सिंहासन से ही नहीं उतारा बल्कि कुछ समय बाद उसका वध भी कर दिया। एंटी ओकास प्रथम अपने पिता सेल्यूकस के साथ 293 ईसापुर में राजा बना और बाद में स्वतंत्र राजा बन गया एशिया माइनर में उसने गाल जाती पर एक महान विजय प्राप्त की और सेवियर उपाधि धारण की उसका पुत्र एंटीओकस द्वितीय 266 ईसापुर में अपने पिता के साथ राजा बना और कुछ वर्षों के बाद वह स्वतंत्र राजा बन गया एंटीओकस द्वितीय शराबी और विलासि था।

दिव्यावदान में उल्लेखित बौद्ध परंपरा तथा तिब्बती इतिहासकार तारा नाथ के अनुसार पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का घोर शत्रु था। दिव्या को दान में कहा गया है कि अपने ब्राह्मण पुरोहित के परामर्श पर चलते हुए उसने भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को नष्ट करने का प्रयत्न किया था वह पाटलिपुत्र में स्थित कुक्कुट आराम बिहार को नष्ट करने गया किंतु वह गर्जना से भयभीत होकर वापस लौट आया इसके बाद वह चतुर रागिनी सेना सहित स्तूपोर को तोड़ता बिहारों को जलाता भिक्षुओं की हत्या करता साकल तक बढ़ आया पुष्यमित्र ने साकल में घोषणा की कि जो भी मुझे एक श्रावण का शिर भेंट करेगा उसे मैं 100 दिनार दूंगा मिलिंदपन्हो में सकल को बौद्ध भिक्षुओं का निवास स्थान बताया गया है। ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान इसी काल में हुआ था पुष्यमित्र के काल में बौद्ध धर्म की अपेक्षा वैदिक धर्म का अधिक प्रभुत्व स्थापित हो चुका था। पूजा यज्ञ बलि की प्रथा किस काल में पुनः अस्तित्व में आ गई थीमाना जाता है कि पुष्यमित्र शुंग के किसी एक यज्ञ में पुरोहित का कार्य पतंजलि ने किया था धनदेव के अयोध्या अभिलेख से उसे मित्र द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किए जाने का उल्लेख मिलता है। 151 ईसापुर में पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु के पश्चात संभोग का संगठित शासन छीण हो गया था।विभिन्न पुरातात्विक एवं मुद्रा साक्ष्यों के आधार पर पुष्यमित्र की मृत्यु के बाद से ही सुंगों का राजनीतिक महत्व कमजोर हो गया था एवं उसकी मृत्यु के 100 वर्षों में ही सत्ता का अंत हो गया। पुराणों के अनुसार शुंग वंश में 10 राजा हुए जिन्होंने 112 से 120 वर्ष तक शासन किया सर्वाधिक प्रतापी शासक पुष्यमित्र ही था जिसने 36 वर्षों तक एवं उसके बाद नए सॉन्ग शासक भागवत ने 32 वर्षों तक शासन किया। पुष्यमित्र शुंग की मृत्यु के पश्चात मगध पर पंचालु ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था तथा सुवो की सत्ता विदिशा के समीपवर्ती क्षेत्रों तक ही सीमित रह गई इस काल में पाटलिपुत्र भी अपना राजनीतिक महत्व हो चुका था। मथुरा पांचाल अयोध्या एवं अन्य निकटवर्ती स्थानों पर मित्र एवं दत्त के नाम वाले मुद्राएं एवं सिक्के अवशेष के रूप में प्राप्त हुए हैं जिन्हें कुछ विद्वान स्वतंत्र राजाओं द्वारा प्रचलित सिखों के रूप में इन्हें स्वीकार किया है। इसकी मृत्यु के उपरांत उत्तराधिकारी के रूप में सॉन्ग देश के शासन को अग्निमित्र ने संभाला पूर्व में विदिशा में उप राजा के रूप में अग्निमित्र को शासन का कार्यभार सौंपा गया था। कालिदास द्वारा रचित नाटक मालविकाग्निमित्रम् में अग्नि मित्र का उल्लेख मिलता है जिसमें इसे नायक के रूप में दिखाया गया है।मदर अग्नि मित्र भोग विलास में लिप्त रहने वाला शासक था जो अधिकांश सूरा सुंदरियों में व्यस्त रहता था पंजाब के यूनानी शासकों के साथ इसकी मीत्रता पूर्ण संबंधित है इसमें 8 वर्षों तक शासन किया इसके बाद इसकी मृत्यु हो गई।

अग्निमित्र के उपरांत शुंग वंश का शासन जेस्ट मित्र ने संभाला था इसे अपने मित्र के छोटे भाई के रूप में जाना गया है तथा इसने 7 वर्षों तक शुंग वंश के शासन का कार्यभार संभालावासु मित्र एक प्रतापी और शक्तिशाली शासक था जिसने राज्यभर स्वीकार करने से पूर्व ही यूनानी यों को परास्त कर दिया था।बाणभट्ट के हर्षचरित के अनुसार मित्र देव या मूल देव ने एक नाटक के प्रदर्शन के दौरान वासु मित्र की हत्या कर दी। भागवत पुराण के अनुसार वासु मित्र का उत्तराधिकारी शासक भद्रक था जिसे आंध्र या अंतक के रूप में भी पहचाना गया था पुराणों के अनुसार अदरक या भद्रक के बाद क्रमशः 3 शासक पुलिंदा घोष वज्र मित्र ने स्वशासन की उत्तराधिकारीता को ग्रहण किया। वज्र मित्र के बाद सोम वंश का शासन भागवत ने संभाला था भागवत शुंग वंश का नवा शासक था संभवत साक्ष्यों के आधार पर पुष्यमित्र के पश्चात शुंग वंश का सबसे प्रतापी राजा भागवत को माना गया है इसमें लगभग 32 वर्षों तक शासन किया। तक्षशिला के यूनानी शासक एंटीकस का राजदूत हेलिओडोरस शुंग वंश के शासक भागवत के काल में ही सुख दरबार में आया था यह भागवत के काल की एवं सोमवंश के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी।शुंग वंश का सबसे अंतिम प्रतापी एवं शक्तिशाली शासक भागवत था जिसका शासनकाल सभी अर्थों में महत्वपूर्ण रहा। शुंग वंश का अंतिम शासक तरुण एवं अत्याचारी शासक देवभूति था जिसने लगभग 10 वर्षों तक शासन किया देवभूति इसके स्वयं के आमात्य द्वारा 75 ईसापुर में मार दिया गया था इस तरह सुंग शासन का अंत हो गया।पुष्यमित्र के वंशजों का राज्य भारत के इतिहास में और विशेष रूप से मध्य भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण युग का प्रवर्तक था मध्य देश से भयभीत करने वाले यूनानो के नवीन आक्रमण रुक गए और सीमा प्रांत के यूनानी यों ने अपने सेल्यूकसी पूर्वजों की नीति अपना ली।इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सुनो नहीं देश को यवन आक्रमण से बचाया अगर सोंग देश में एक मजबूत राज्य स्थापित कर लिया ।

इस काल में धर्म साहित्य और कला के क्षेत्र में इतना कार्य हुआ कि उसकी तुलना गुप्त काल से की जा सकती है। सिंह काल भवन निर्माण कला में भी एक नया युग लेकर आए थे यह लोग बौद्ध स्तूपों के लकड़ी के जंगले पत्थरों के जंगलों में बदल दिए। भारत के जंगलों में शुंग काल को अमर बना दिया।विदिशा के हाथी दांत के कारीगरों ने ही अपने निकटवर्ती सीमा में सांची के अमर स्मारक द्वारों को बनाया। पुणे के निकट भाजी स्थित एक बिहार भी बनाए ब्रज में पुराने बिहार के निकट एक बड़ा चैत्य और चट्टान में से कटे स्तूप तथा अजंता के चैत कक्ष नंबर 9 अमरावती में एक स्तूप भारत में वृक्ष देवता बेसनगर में गरुड़ स्तंभ बिहार को घेरे हुए बोधगया का जंगला नासिक का चैत कक्ष इत्यादि इन्हीं की देन है।मध्य रेलवे के बिना और भोपाल जंक्शन स्टेशन के बीच में भिलसा के समीप सांची का महान स्तूप और इसका कटघरा शुंग काल के हैं।स्तूपोर में बुद्ध के जीवन से संबंधित सभी महत्वपूर्ण कथाओं कहानियों और उनकी शिक्षाओं को बड़े ही कलात्मक ढंग से उपस्थित किया गया है वहां पर अनेक कहानियां और दृश्यों को दिखाया गया है वह बुध के जीवन की चार प्रमुख घटनाओं पर था उनके जन्म ज्ञान प्राप्ति प्रथम उपदेश और मृत्यु से संबंधित है।यह ध्यान देने योग्य है कि सभी द्वार यद्यपि पत्थर के हैं तथापि ऐसे मालूम होता है कि उनके सभी अंग लकड़ी के हैं यह कला उस काल से संभल है जब कारीगरी पहले लकड़ी पर खुदाई करते थे और उन्होंने पत्थर पर खुदाई करना आरंभ किया था। सॉन्ग काल में ब्राह्मण धर्म ने अपना अत्याचारी रूप प्रस्तुत किया उसने बौद्ध धर्म के लोगों पर अन्याय भी किए ब्राह्मणों की नीतियां लोकप्रिय हो गई।

ऐसा भी बताया जाता है कि मनु स्मृति भी सॉन्ग ओ के काल में लिखी गई थी विदिशा के निकटवर्ती शिलालेख बताते हैं कि भागवत धर्म लोकप्रिय हो गया था। अपने राज्य काल के 13 वर्ष में उसका मन धर्म की और झुका और कुमारी पर्वत पर उसने अर्हत देवालय के निर्माण की व्यवस्था की इस शिलालेख में यह लिखा है कि राजा ने 1000 बैल रखे हुए थे किंतु लेख कुछ मीटा हुआ सा प्रतीत होता है।किंतु इतना सत्य जरूर है कि उसने अर्हत मंदिर के पास ही एक विशाल भवन बनवाया था यह मंदिर संभवत पत्थर का बना हुआ था चार स्तंभों पर टिका एक मंडप भी बनवाया जिसमें हरित मनिया भी जुड़ी हुई थी जिस गुफा में यह लेख लिखा है वह गुफा भी बनवाई गई थी यह कार्य उसके राज्य के 13 या 14 वर्ष में हुआ था यह समय सम्राट मोरिया की मृत्यु से मेल खाती है खारवेल को शांति तथा समृद्धि का सम्राट कहा जाता है । कलिंग नरेश खारवेल सुवो का ही समकालीन था और उसका वर्णन उचित ही है सौभाग्य वस हाथी गुफा शिलालेख से उसके विषय में बहुत कुछ ज्ञात होता है। यह बताया गया है कि 15 वर्ष पूर्ण करने के उपरांत खारवेल युवराज बना 24 वर्ष की आयु में उसका राज्य अभिषेक हुआ वह कलिंग के तीसरे राज वंश से था और उसके वंश का नाम चैत्र था।अपने राज्य के प्रथम वर्ष में उसने कलिंग के तूफान से क्षतिग्रस्त प्राचीरो द्वारों और भवनों को ठीक करवाया था उसने सरोवर तथा बाग बनवाएं तथा अपनी प्रजा को खुश रखा था। उसने कश्यप क्षत्रियों की सहायता के लिए मौसी को की राजधानी को नष्ट कर दिया था। संगीत शास्त्र में निपुण खारवेल ने नृत्य नाटक और अन्य उत्सव कीऐ। उसने कुछ पवित्र भावनाओं का मरम्मत भी करवाया जिन्हें विद्या घरों का निवास कहते थे।Vinayiasacademy.com


Share it