Child psychology and pedagogy – Vinay IAS Academy https://vinayiasacademy.com Rashtra Ka Viswas Sun, 21 Jun 2020 11:52:39 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=5.3.4 सीखना या अधिगम का अर्थ https://vinayiasacademy.com/?p=2415 https://vinayiasacademy.com/?p=2415#respond Sun, 21 Jun 2020 11:52:36 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2415 Share itसीखना या अधिगम का क्या अर्थ है? इसके विभिन्न दृष्टिकोण प्रकारों तथा प्रक्रिया का वर्णन करें। अधिगम शिक्षा मनोविज्ञान का केंद्र बिंदु है अधिगम शिक्षा मनोविज्ञान का दिल है। शिक्षा के क्षेत्र में अधिगम का एक विशेष महत्व है क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य सीखना है। अतः हम क्या कह सकते हैं- Learning is the […]

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सीखना या अधिगम का क्या अर्थ है? इसके विभिन्न दृष्टिकोण प्रकारों तथा प्रक्रिया का वर्णन करें।

अधिगम शिक्षा मनोविज्ञान का केंद्र बिंदु है अधिगम शिक्षा मनोविज्ञान का दिल है। शिक्षा के क्षेत्र में अधिगम का एक विशेष महत्व है क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य सीखना है। अतः हम क्या कह सकते हैं- Learning is the heart of all education.All education is attempt to learn. हम आज जो कुछ भी हैं वह सीखने का ही परिणाम है समस्त स्कूली क्रियाकलाप सीखने के लिए होते हैं। सीखने की प्रक्रिया के ही कारण आज विश्व का इतना अधिक विकास संभव हो सका है क्योंकि यह एक अत्यंत स्वाभाविक प्रक्रिया है जो मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक जारी रहती है।(Vinay ias academy.com)


उदाहरण- यदि किसी छोटे बच्चे के सम्मुख कोई जलता हुआ लैंप रखा जाए तो स्वाभाविक रूप से वह उसकी दीप शिक्षा को स्पष्ट करने के लिए हाथ बढ़ाता है। परंतु उसका हाथ दीपशिखा से जल जाता है। उसे कष्ट होता है और वह तुरंत ही अपनी हाथ दीपशिखा से खींच लेता है। जब वह पुनः सम्मुख रखे हुए दीपक को देखता है तो उसे स्पर्श करने का स्वाभाविक व्यवहार नहीं करता, परंतु यदि उसके सामने दीपक लाया जाता है तो वह उससे दूर भागने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार उसके स्वाभाविक व्यवहार में जो परिवर्तन होता है उसकी इस प्रक्रिया को ही सीखना कहा जाता है। इस व्याख्या के आधार पर कहा जा सकता है” सीखने का अर्थ उस मानसिक प्रक्रिया से है जिसमें व्यक्ति के स्वभाव व्यवहार या भूत कालीन अनुभवों एवं व्यवहार में उन्नति शील परिवर्तन होता है”।(Vinay iss academy.com)
गेट्स के अनुसार,” सीखना अनुभव द्वारा व्यवहार में परिवर्तन है|”(Learning is modification of behaviour through experiences.- Gates)
क्रो और क्रो के अनुसार- ” सीखने के अंतर्गत आदतें, ज्ञान तथा व्यवहार को ग्रहण करना शामिल है|” (Learning involves the acquisition of habits, knowledge and attitudes.)
पील के अनुसार-” अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसार होता है”।( Learning is change in the individual following upon change in his environment.-Peel)
स्किनर के अनुसार -” अधिगम में प्राप्त तथा धारणा करने की शक्ति सम्मिलित है”|(Learning includes both acquisition and retention.-Skinner)
(Vinay ias academy.com)


दृष्टिकोण-

  1. व्यवहारवादी दृष्टिकोण- व्यवहार वादियों का विचार है कि सीखना अनुभव के परिणाम के तौर पर व्यवहार में परिवर्तन का नाम है मनुष्य तथा दूसरे प्राणी वातावरण में प्रतिक्रिया करते हैं। बच्चा जन्म से ही अपने वातावरण में सीखने का प्रयत्न करता है।
  2. गेस्टाल्ट दृष्टिकोण- इस दृष्टिकोण के अनुसार सीखने का आधार गेस्टाल्ट या संगठनात्मक ढांचे पर निर्भर है। इस दृष्टिकोण का मानना है कि किसी भी प्रकार के सीखने के लिए हम उसके विभिन्न अंगों की अपेक्षा संपूर्ण इकाई पर बल देते हैं। गेस्टाल्ट शब्द लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है संपूर्ण रूप में देखना। इस दृष्टिकोण के अंतर्गत सूझबूझ या अंतर्दृष्टि द्वारा सीखने का आधार जर्मन के वैज्ञानिक कोहलर के प्रयोग हैं जो उन्होंने पशुओं पर किए हैं। अपने प्रयोग के माध्यम से इस बात को स्पष्ट किया कि पशु भी मनुष्य के समान बुद्धि पूर्ण निरीक्षण द्वारा बहुत कुछ सीख सकते हैं।(Vinay ias academy.com)
  3. होरमिक दृष्टिकोण- यह दृष्टिकोण मैक दुग्गल की देन है। यह सीखने के लक्ष्य केंद्रित स्वरूप पर जोर देता है। सीखना लक्ष्य को सामने रखकर किया जाता है। मैक दुग्गल का मानना है कि यदि हम वस्तुनिष्ठ निरीक्षण तक सीमित रहते हैं तो हम किसी जानवर के व्यवहार के यांत्रिक दृश्य को ही प्राप्त कर पाएंगे। बेतिया मानो तो एक मशीन ही लगेगा परंतु हम अपने व्यवहार को आंतरिक रूप से जानते हैं और उसके उद्देश्य पूर्णता को भी समझते हैं जो कि यांत्रिक नहीं होती।
  4. सीखने का फील्ड दृष्टिकोण- कट लिविंग ने इस दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया है। उसने कहा है कि सीखना परिस्थिति का प्रत्यक्ष ज्ञानात्मक संगठन है और सीखने में प्रेरणा का महत्वपूर्ण हाथ है। लेविन अभिप्रेरणा के अध्ययन को नई दिशा प्रदान की है। इनके अनुसार ऐसे जैसे बच्चा विकसित होता है, उसकी व्यक्तित्व प्रणाली में विस्तार होता है और यह पूर्ण रूप से ऊपर नालियों में संगठित हो जाता है। बच्चे के मनोवैज्ञानिक वातावरण में दिक् और समय में भी प्रसार हो जाता है।(Vinay ias academy.com)
    अधिगम के प्रकार –
    मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक दृष्टि से अधिगम को हम तीन वर्गों में बांटा गया है-
    A. सीखने वाले के प्रकार के अनुसार अधिगम- सीखने वाले के प्रकार के अनुसार अधिगम दो प्रकार का होता है –
  5. जानवरों द्वारा अधिगम – जानवरों के व्यवहार में परिवर्तन को जानवरों का अधिगम कहते हैं|
  6. मानव द्वारा अधिगम – मानव के व्यवहार में जो परिवर्तन होता है उसे मानव का अधिगम या मानव द्वारा अधिगम कहा जाता है| मानव अधिकार मानव के विकास की अवस्थाओं के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है जैसे शैशवावस्था अधिगम, बाल्यकाल अधिगम, किशोरावस्था अधिगम|
    B. शरीर के अंगो की संभागिता के अनुसार अधिगम –
  7. गत्यात्मक अधिगम- इस प्रकार के अधिगम में मांसपेशियों संयुक्त क्रियाओं को शामिल किया जाता है जैसे इस प्रकार के अधिगम में ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से साधारण आदतों को अर्जित किया जाता है। उदाहरणार्थ नर्सरी स्कूल के खेल मैदान में कौशलों का सीखना। इसके साथ साथ प्रत्यक्ष जटिलकौशलों का अर्जन करना भी इसके अंतर्गत आता है जैसे नृत्य करना, साइकिल चलाना, तैरना ,संगीत के यंत्र बजाना आदि।
    2 विचारात्मक अधिगम- इस प्रकार के अधिगम के अंतर्गत विचारों तथा मानसिक साहचर्य को अर्जित किया जाता है । यह प्रायः व्यक्ति निश्ठ प्रकृति का अधिगम होता है तथा इसमें मांसपेशियों की क्रिया की आवश्यकता नहीं रहती।
    C. मानव व्यवहार के विभिन्न पक्षों के अनुसार अधिगम- मानव व्यवहार के मुख्यतः तीन पक्ष हैं।
  8. ज्ञानात्मक अधिगम- इस प्रकार के अधिगम का संबंध ज्ञान, संप्रत्यय तथा उनमें आपसी संबंधों से होता है। स्कूल के सभी विषय इसी प्रकार के अधिगम का विकास करते हैं। अध्यापक विभिन्न विषयों को पढ़ाते समय विभिन्न तथ्यों का ज्ञान प्रदान करता है विभिन्न प्रतियों को समझाता है तथा सीखने वालों को अपने अनुभव के आधार पर किसी सामान्य करण पर पहुंचने में सहायता करता है।
  9. अभिवृत्यात्मक दृष्टिकोण अधिगम- दृष्टिकोण और मूल्य मानव व्यवहार द्वारासीखे जाते हैं या अर्जित किए जाते हैं। इनका विकास अपने समूह के साथ संबंधों के विकास के दौरान होता है इस प्रकार के अधिगम के परिणाम स्वरूप संवेग , स्थाई भाव तथा आत्मानुभूति आदि सीखे जाते हैं।
  10. कौशलों द्वारा सीखना- इसमें अभ्यास द्वारा गति आत्मक प्रकार का अधिगम शामिल है। स्कूल में कई प्रकार की गतिविधियों द्वारा इस प्रकार का अधिगम होता है, जैसे पढ़ना ,लिखना ,कोई विशिष्ट खेल खेलना। कौशलों के विकास के लिए जो मुख्य विधियों का प्रयोग किया जाता है, रे है प्रदर्शन विधि, प्रयोग विधि, प्रतिपुष्टि तथा अभ्यास।
    अधिगम की प्रक्रिया-
  11. अभिप्रेरणा- वाह रे कारी जिसे मनुष्य करना चाहे किसी न किसी अभिप्रेरणा से संचालित होता है। छात्र इसलिए पढ़ते हैं कि परीक्षा में पास होकर अच्छी नौकरी या व्यवसाय हासिल करें। अभिप्रेरणा ही उद्देश्य की ओर ले जाने का कार्य करती है। मानव जो भी कार्य करता है, उसके मूल में किसी न किसी प्रकार की अभिप्रेरणा निहित होती है। व्यक्ति की बहुत सी आवश्यकताएं होती है, जिन्हें पूरा करने के लिए विभिन्न प्रेरक उत्पन्न हो जाते हैं। इन प्रेरकों के कारण व्यक्ति अधिक क्रियाशील हो जाता है।
  12. उद्देश्य- किसी कार्य को सीखने का कोई ना कोई उद्देश्य होता है। मनुष्य का भी अपनी आवश्यकताओं के अनुसार किसी भी क्रिया को सीखने का कोई ना कोई उद्देश्य होता है। मनुष्य उस क्रिया को नहीं सीखना चाहता जो उसके उद्देश्य की पूर्ति न करती हो अतः व्यक्ति का व्यवहार उद्देश्य ही नहीं होना चाहिए। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यवहार करता है उसका व्यवहार एक निश्चित दिशा की ओर केंद्रित होता है।
  13. बाधा- उद्देश्य की प्राप्ति के दौरान बाधाओं का उत्पन्न होना निश्चित होता है। इन बाधाओं की उपस्थिति में व्यक्ति अनेकों प्रकार का संभावित व्यवहार करता है तभी वह इसके पश्चात किसी उपयुक्त व्यवहार पर पहुंचता है। उपयुक्त व्यवहार होने पर इन बाधाओं को नियंत्रित किया जा सकता है।
    4 . पुनर्बलन- पुनर्बलन के अंतर्गत वे सभी क्रियाएं तथा तथ्य आ जाते हैं जिनसे विवश होकर विद्यार्थी को क्रियाएं करनी पड़ती है। अध्यापक का आदेश, स्वयं की इच्छा, बड़ों के सम्मान तथा सामाजिक मर्यादा से प्रभावित होकर जो कार्य किए जाते हैं, वे सभी पुनर्बलन के अंतर्गत आते हैं। जो भी अनुप्रिया संतोषजनक एवं सुखद होती है वह पुनर्बलन हो जाती है। असफल अनु क्रियाओं को भुला देना पड़ता है तथा सफर अनुप्रिया को स्थिति का सामना करने के लिए चुन लेना पड़ता है। उसी प्रकार की स्थिति उत्पन्न होने पर व्यक्ति वैसे ही व्यवहार या अनुप्रिया को दोहराता है।
  14. एकीकरण- अधिगम की क्रिया के विभिन्न अंगों का संगठन नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से जोड़ने के लिए किया जाता है। जब तक पूर्व एवं नवीन ज्ञान को जोड़ा नहीं जाता तब तक रिया संपूर्णता प्राप्त नहीं करती। इस प्रकार व्यक्ति नवीन सफल प्रतिक्रिया का पहले सीखी गई क्रियाओं में समन्वय स्थापित करता है। इसे नवीन ज्ञान का पूर्व ज्ञान से जोड़ना भी कहते हैं। ऐसा करने से नवीन प्रतिक्रिया उसके ज्ञान का एक अंग बन जाती है और उसका संपूर्ण ज्ञान एकीकृत हो जाता है।
    अतः यह स्पष्ट है कि अधिगम किसी क्रिया विशेष का नाम नहीं है। अधिगम के अंतर्गत अनेक उप क्रिया निहित होती है जो उसे पूर्णता प्रदान करती है।

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मानसिक व बौद्धिक विकास https://vinayiasacademy.com/?p=2412 https://vinayiasacademy.com/?p=2412#respond Sun, 21 Jun 2020 11:48:32 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2412 Share itमानसिक व बौद्धिक विकास से आपका क्या अभिप्राय है? बाल्यावस्था के दौरान बालकों की विभिन्न मानसिक व बौद्धिक पहलुओं का विकास कैसे होता है टिप्पणी दे? मानसिक विकास को बौद्धिक विकास या ज्ञानात्मक विकास भी कहते हैं। व्यापक दृष्टिकोण से मानसिक विकास में निम्नलिखित पथ शामिल किए जाते हैं- स्मृति की योग्यताएं 2. कल्पना […]

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मानसिक व बौद्धिक विकास से आपका क्या अभिप्राय है? बाल्यावस्था के दौरान बालकों की विभिन्न मानसिक व बौद्धिक पहलुओं का विकास कैसे होता है टिप्पणी दे?

मानसिक विकास को बौद्धिक विकास या ज्ञानात्मक विकास भी कहते हैं। व्यापक दृष्टिकोण से मानसिक विकास में निम्नलिखित पथ शामिल किए जाते हैं-

  • स्मृति की योग्यताएं 2. कल्पना 3. भाषा का विकास 4. प्रत्यक्षीकरण 5. प्रत्यय 6. समस्या समाधान की योग्यता।
    (Vinay ias academy.com)
    मानसिक व बौद्धिक विकास का अर्थ – मानसिक तथा बौद्धिक विकास से तात्पर्य व्यक्ति की उन सभी मानसिक योग्यता और क्षमताओं में वृद्धि और विकास से है, जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति बदलते हुए परिवेश के साथ कि प्रकार समायोजन करता है और समस्त कठिनाइयों का हल ढूंढने में अपनी मानसिक शक्तियों को समर्थ पाता है| जन्म के समय बच्चे का केवल शरीर ही होता है और उस शरीर में अर्थहीन भावनाएं होती हैं, लेकिन समय के साथ-साथ धीरे-धीरे उसमें परिवर्तन आते हैं और इन्हीं परिवर्तनों को हम मानसिक विकास का नाम देते हैं|(Vinayiasacademy.com)
    लॉक(Locke) ने जन्म के समय बच्चे के मस्तिष्क को एक ‘कोरी स्लेट’ (tabula rasa) का नाम दिया है। और अनुभव द्वारा ही मस्तिष्क में विचारों और अर्थ की उत्पत्ति होती है। प्रथम अनुभव किसी अर्थ के बिना होता है, परंतु किसी अनुभव को दोहराते रहने से वह अनुभव मस्तिष्क के लिए महत्वपूर्ण बन जाते हैं। लेकिन कोफ्का(koffka) का कहना है कि पहला पहला अनुभवी अर्थ विहीन नहीं होता। प्रत्येक अनुभव में किसी न किसी प्रकार का अर्थ विद्यमान रहता है। एक प्रकार के अर्थ से दूसरे प्रकार के अर्थ का ज्ञान होता है।(Vinayiasacady.com)
    बाल्यावस्था के दौरान विभिन्न मानसिक व बौद्धिक बच्चों का विकास-
  • संवेदन और प्रत्यक्षीकरण(Sensation and perception)- प्रत्यक्षीकरण और संवेदन का आपस में गहरा संबंध है। क्योंकि सबसे पहले संवेदन द्वारा ही ज्ञानेंद्रियों से हमें सूचनाएं प्राप्त होती है। और फिर हम उसका अर्थ निकालते हैं या अर्थ निकालने की प्रक्रिया ही प्रत्यक्षीकरण कहलाती है करण के अंतर्गत कुछ प्रत्यक्ष ज्ञान योग्यताएं प्रमुख होती है जैसे दृश्य, स्वाद , सूंघना और स्पर्श आदि।
    प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया इस उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट की जा सकती है जैसे बच्चा किसी वस्तु को एक कोने पर रखने का प्रयत्न करता है तो वह उसे मैच पढ़ना रखकर मैच की ऊंचाई से कम या ज्यादा रखकर या इधर-उधर करके छोड़ देता है और वह समझता है कि उसने उस वस्तु को मैच कर रख दिया है हां के साथ-साथ उसकी प्रत्यक्ष ज्ञान की योग्यता भी बढ़ती जाती है और परिपक्वता ग्रहण करने के पश्चात वह उस वस्तु को नीचे या इधर-उधर कदापि नहीं गिरने देगा बल्कि उसे सटीक जगह पर रखेगा।(Vinayiasacademy.com)
  • भाषा का विकास(Language development)- मानसिक विकास भाषा के विकास के साथ भी जुड़ा हुआ है| इस आयु में भाषा का विकास अधिकतर ‘ क्यों’ और ‘ कैसे’ पर ही आश्रित होता है जैसे विकास भी विकास की अवस्थाओं के अनुसार होता है जैसेजैसे-
  • प्रारंभ में बालक चिल्लाता है या किलकारी जैसी धनिया निकालता है।
  • जन्म के बाद प्रथम वर्ष में बच्चा कुछ शब्द सीख जाता है तथा फिर उसका शब्द भंडार बढ़ने लगता है।
  • भाषा के विकास में अनुकरण का बहुत महत्व होता है।
  • शब्दकोश में वृद्धि होने से उनमें वाक्य निर्माण और अपने भावों को व्यक्त करने की क्षमता में भी वृद्धि होती रहती है।
  • बचपन में कुछ शब्दों के विकास से लेकर किशोरावस्था तक भाषा विकास में परिपक्वता आ जाती है।
  • परिवार में अकेला बच्चा हो तो उसका भाषाई विकास अधिक देखा गया है क्योंकि बच्चा व्यस्त को की भाषा का अनुकरण करता है जुड़वा बच्चे एक दूसरे की भाषा का अनुकरण करते हैं।
  • बुद्धि और भाषाई कौशल भी आपस में संबंधित होते हैं कुछ बुद्धि अस्तर वाले बालकों में भाषाई कौशल का स्तर भी उच्च ही होता है।
    (Vinayiasacademy.com)
  • बोध शक्ति का विकास(Development of power of understanding)- वह शक्ति के अंतर्गत विभिन्न धारणाओं का विकास सम्मिलित है
    ◆ स्वयं की धारणा या प्रत्यय- जया समझने लगे कि उसका किन-किन चीजों से संबंध है तो इसका अर्थ है वह स्वयं ही धारणा यह प्रत्यय प्रस्तुत कर रहा है उसे भूख प्यास लगती है और वह खाना और पानी मांगने लगता है वह अपने कपड़े मांगता है वह अपने उन खिलौनों को मांगता है जिन्हें उससे दूर छुपा कर रख दिया गया होता है इन सभी बातों से यह स्पष्ट होता है कि उसमें स्वयं के बारे में धारणा का विकास हो चुका है|
    ◆ समय की धारणा या प्रत्यय- 4 से 5 वर्ष की आयु तक तो बच्चा दो-तीन दिन पहले हुई घटनाओं को जोड़ने का प्रयास करता है क्या हुआ कि उसमें समय संबंधी धारणा विकसित हो गई है| वह कल, आज, परसों ,सप्ताह ,महीने, वर्ष आदि का अर्थ समझने लगता है।
    ◆ स्थान की धारणा या संप्रत्यय- जब बालक यह समझना शुरू कर दे कि उसे किसी वस्तु को कहां रखना है या उसे कहां बैठना है और कहां नहीं बैठना, तब उसका अर्थ है कि उसमें स्थान संबंधी धारणा विकसित हो गई है। जो कि हर बच्चे में 3 वर्ष की आयु के पश्चात शुरू हो जाता है।
    ◆ आकार का प्रत्यय धारणा- मानसिक विकास का यह एक आवश्यक पक्ष है बालक में आकार संबंधी धारणा का विकास होना। इसका अनुभव तब लगता है जब बच्चा विभिन्न चीजों को उनके आकार के अनुसार व्यवस्थित करना शुरू कर देता है।
    ◆ स्वरूप का प्रत्यय या धारणा- जब बच्चा किसी त्रिकोण, रेत या सीधी लाइन को समझने लगता है तब हम कहते हैं कि उसमें स्वरूप संबंधी धारणा का विकास हो गया है इस विकास के समय वह त्रिभुज, वृत्त, रेखा इत्यादि शब्दों का प्रयोग करने लगता है।
    ◆ सौंदर्य आत्मक अनुभूति- बच्चे अक्सरसुंदर वस्तुओं से प्रेम करते हैं। रंगो को अधिक पसंद करते हैं। कागज पर चित्रों की ड्राइंग करते हैं। तथा उन्हें अपने माता-पिता को दिखाते हैं। वे सुंदर कपड़े पहन कर ही बाहर जाना पसंद करते हैं इस प्रकार के विकास से स्पष्ट होता है कि मानसिक विकास का संबंध सौंदर्य आत्मक अनुभूति से भी है।
    ◆ नैतिक धरना या प्रत्यय- नैतिक प्रत्यय के विकास से हमें मानसिक विकास का संकेत मिलता है। बच्चा कुछ समय लेता है, नैतिकता की भावना का प्रदर्शन करने के लिए प्रारंभ में बच्चा अनैतिक होता है। बच्चा जब आसपास की चीजों को समझना शुरू करता है तो वह अच्छे और बुरे के बारे में भी समझना शुरू कर देता है। यह सोचना शुरु कर देता है कि दूसरों को हानि नहीं पहुंचानी चाहिए। बच्चों में नैतिक धारणा हो या प्रत्यय के विकास के लिए माता-पिता तथा अन्य पारिवारिक सदस्य उत्तरदाई होते हैं। अतः हमें बच्चों के चारों और एक उत्तम नैतिक वातावरण का निर्माण करना चाहिए।

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एरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धांत https://vinayiasacademy.com/?p=2410 https://vinayiasacademy.com/?p=2410#respond Sun, 21 Jun 2020 11:43:38 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2410 Share itएरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धांत का वर्णन करें एरिकसन के मनोसामाजिक विकास के प्रतिमान का बहुत महत्व है। यह सिद्धांत बाल विकास के साथ प्रौढ़ों के विकास में भी सहायक है। एरिक एरिकसन ने सर्वप्रथम 8 स्तरीय मानव विकास का सिद्धांत 1950 मैं अपनी पुस्तक बाल्यकाल और समाज नामक पुस्तक में प्रकाशित किया। इस अध्याय […]

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एरिक्सन के मनोसामाजिक सिद्धांत का वर्णन करें

एरिकसन के मनोसामाजिक विकास के प्रतिमान का बहुत महत्व है। यह सिद्धांत बाल विकास के साथ प्रौढ़ों के विकास में भी सहायक है। एरिक एरिकसन ने सर्वप्रथम 8 स्तरीय मानव विकास का सिद्धांत 1950 मैं अपनी पुस्तक बाल्यकाल और समाज नामक पुस्तक में प्रकाशित किया। इस अध्याय का नाम था “मनुष्य की आठ आयु” इसके पश्चात उसने अपनी बात की पुस्तकों में इसमें और सुधार कर लिया। एरिकसन के इस मॉडल के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया जैसे जीव मनोसामाजिक सिद्धांत, एरिकसन का मानव विकास का चक्र। मनोसामाजिक शब्द एरिकसन का प्रयोग किया गया शब्द है। जिसमें मनोविज्ञान का अर्थ मन और समाज से अभिप्राय है संबंध।(Vinayiasacademy.com)
मनोसामाजिक अवस्थाओं की विशेषताएं-

1.प्रत्येक मनोसामाजिक अवस्था में एक संक्रांति होती है, जिस से अभिप्राय है जीवन काल का एक ऐसा वर्तन बिंदु होता है, जो उस अवस्था में जैविक परिपक्वता तथा सामाजिक मांग दोनों में अंतर क्रिया के फल स्वरुप व्यक्ति में उत्पन्न होता है।

2.प्रत्येक मनोसामाजिक संक्रांति मैं धनात्मक और ऋणात्मक दोनों ही तत्व होते हैं। प्रत्येक अवस्था में उसके जैविक परिपक्वता तथा नए-नए सामाजिक मांग के कारण संघर्ष का होना एरिकसन आवश्यक मानते हैं। यदि इस संघर्ष का व्यक्ति संतोषजनक ढंग से समाधान कर लेता है तो इससे उसके विकसित अहम में ऋण आत्मक तत्व अवशोषित हो जाते हैं तथा व्यक्तित्व विकास में बाधा पैदा होने की संभावना कम रह जाती है।

3.प्रत्येक मनोसामाजिक अवस्था के संक्रांति को व्यक्ति को दूर करना होता है या उसका समाधान करना होता है। ऐसा ना करने से मनोसामाजिक विकास की अगली अवस्था में उसका विकास नहीं हो पाता है। मनोविकास की प्रत्येक अवस्था में संक्रांति का करने से व्यक्ति में एक विशेष मनोसामाजिक सकती की उत्पत्ति होती है इस शक्ति को एरिकसन ने सदाचार का नाम दिया हैं।

4.हर मनोसामाजिक अवस्था में कर्मकांडता, कर्मकांड, तथा कर्मकांडवाद होते हैं। इसे एरिक्सन ने “तीन आर” का नाम दिया है। कर्मकांडता से अभिप्राय है समाज के दूसरे व्यक्ति के साथ सांस्कृतिक रूप से स्वीकृत ढंग से अंतर क्रिया करना। ऐसे व्यवहार थोड़े-थोड़े समय के बाद अर्थपूर्ण संदर्भ में दोहराए भी जाते हैं।(Vinayiasacademy.com)

प्रत्येक मानव समाजिक अवस्था का निर्माण उससे पहले की अवस्था में हुए विकास से संबंधित होता है
एरिक्सन द्वारा प्रतिपादित मनोसामाजिक अवस्थाएं-

विश्वास बनाम अविश्वास

स्वतंत्रता बनाम लज्जाशीलता और संदेह

पहल शक्ति बनाम दोषिता

परिश्रम बनाम हीनता

अहम पहचान बनाम भूमिका संभ्रांति
6 . घनिष्ट बनाम विलगन

अहम संपूर्णता बनाम निराशा
(Vinayiasacademy.com)
एरिक्सन के सिद्धांत के गुण-

इस सिद्धांत में व्यक्तित्व के विकास की व्याख्या करने के लिए समाज एवं स्वयं व्यक्ति की भूमिका पर समान रूप से बल डाला गया है।

एरिक्सन ने इस सिद्धांत में किशोरावस्था को बहुत महत्वपूर्ण माना है।

एरिक्सन ने अपने इस सिद्धांत में आशावादी दृष्टिकोण अपनाया है। किसी एक अवस्था में असफल होने पर दूसरी अवस्था में भी असफलता ही होगी यह आवश्यक नहीं है।

एरिक्सन के इस सिद्धांत में जन्म से लेकर मृत्यु तक की मनो सामाजिक घटनाओं को एवं समन्वय की व्याख्या में शामिल किया गया है जो अपने आप में एक विशिष्टता है।(Vinay ias academy.com)
एरिक्सन के सिद्धांत के अवगुण-

एरिक्सन ने आवश्यकता से अधिक आशावादी दृष्टिकोण अपनाया है ऐसा आलोचकों कामत है इससे उनके सिद्धांत में अव्यावहारिकता झलकती है। लेकिन एरिक्सन ने इस आलोचना का खंडन किया है तथा उन्होंने अपने सिद्धांत में आशावादी दृष्टिकोण के साथ साथ वैसे दृष्टिकोण को भी अपनाया है जिससे व्यक्ति में चिंता आदि उत्पन्न होते हैं।

कुछ आलोचकों के अनुसार, एरिक्सन ने अपने सिद्धांत में फ्रॉयड किस सिद्धांत का सरलीकरण ही किया है और कुछ नहीं किया।

कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि एरिक्सन के सिद्धांत में जितने तथ्य की व्याख्या की गई है उनका कोई प्रयोगात्मक समर्थन भी नहीं है। उनके सारे तथ्य तथा संप्रत्यय उनके व्यक्तिगत परीक्षणों पर आधारित हैं जो बहुत आत्मनिष्ठ है।

कुछ आलोचकों का यह कथन मान्य नहीं की बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार समायोजन करके ही उत्तम एवं स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। जैसा कि आलोचकों का मानना है कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं जो समाज की परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना ही स्वयं समाज में महत्वपूर्ण परिवर्तन लेकर आए हैं और वे एक स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण करने में सफल हुए हैं।शुल्ज के अनुसार अंतिम मनोसामाजिक अवस्था की व्यवस्था अधूरी और असंतोषजनक है। आलोचकों का मानना है कि अंतिम अवस्था में व्यक्ति में विकास उतना संतोषजनक नहीं होता जितना कि एरिक्सन के अहम संपूर्ण के संप्रत्यय से संकेत मिलता है।��


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लेविन के अधिगम के क्षेत्रीय सिद्धांत https://vinayiasacademy.com/?p=2408 https://vinayiasacademy.com/?p=2408#respond Sun, 21 Jun 2020 11:35:30 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2408 Share itलेविन के अधिगम के क्षेत्रीय सिद्धांत का वर्णन करें? इस सिद्धांत का प्रतिपादन कुर्ट लेविन ने किया था। इस सिद्धांत का मानना है कि जिस स्थिति का हम अनुभव करते हैं, वह सदैव संगठित या संरचित होती है। तथा यह संरचना उन अवयवों से अधिक स्थाई अस्थिर होती है जिन पर की स्थिति आधारित […]

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लेविन के अधिगम के क्षेत्रीय सिद्धांत का वर्णन करें?

इस सिद्धांत का प्रतिपादन कुर्ट लेविन ने किया था। इस सिद्धांत का मानना है कि जिस स्थिति का हम अनुभव करते हैं, वह सदैव संगठित या संरचित होती है। तथा यह संरचना उन अवयवों से अधिक स्थाई अस्थिर होती है जिन पर की स्थिति आधारित होती है। उस संगठन के अंतर्गत कोई एक तत्व ऐसा होता है जो उस पूर्णिया समस्त स्थिति को अपने प्रभाव में रखता है। आता जब हम उसे सिटी का अनुभव करते हैं तो यह संगठन या संरचना हमारे अनुभवों के अंतर्गत सम्मिलित हो जाती है तत्पश्चात हमारा ध्यान विवरण की ओर जाता है। यह संरचना हमारे अनुभव में उस स्थिति में स्थाई रूप से बनी रहती है जबकि विवरण में परिवर्तन होता रहता है अर्थात हम यह कह सकते हैं कि सीखना संबंधों का प्रत्यक्षीकरण या प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना ही होता है। (Vinay ias academy.com)
इसके अतिरिक्त लेविन के अधिगम के क्षेत्रीय सिद्धांत का मानना है कि सीखना या अधिगम एक प्रकार की सापेक्षिक प्रक्रिया है तथा इस प्रक्रिया के माध्यम से ही अधिगमकर्ता या सीखने वाला अपनी नई तथा पुरानी सूर्या अंतर्दृष्टि में परिवर्तन लाता है। यश जीवन के संज्ञानात्मक संरचना में परिवर्तन के परिणाम स्वरूप विकसित होने वाली अंतर्दृष्टि या सूझ को ही अधिगम या सीखना मानता है। फ्लेमिंग के सिद्धांत का परिचय हमें लिविंग की दो पुस्तकों के माध्यम से मिलता है इन दो पुस्तकों के अंतर्गत लेविन के स्थान(Topology) तथा सदिश(vector) पर किए गए विभिन्न प्रयोगों की विशुद्ध व्याख्या शामिल है। इसी कारण से लेविन के इस सिद्धांत को”Topological and Vector Theory” के नाम से भी जाना जाता है|(Vinay ias academy.com)
लेविन के इस सिद्धांत से संबंधित संप्रत्यय-

स्थान या संस्थिति(Topology)- इस प्रत्यय का संबंध ज्यमिति से होता है तथा इसके अंतर्गत ज्यामितिक संरचनाओं के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन किया जाता है। अन्य शब्दों में संस्थिति ज्यामिति के उस भाग को कहते हैं जो कि उन तत्वों की खोज या पता लगाता है जो निरंतर परिवर्तन के समय में भी और परिवर्तनशील रहते हैं।

सदिश(Vector)- लेविन द्वारा सदिश शब्द को यांत्रिक विज्ञान तथा गणित विषयों से लिया गया है। सदस्य अभिप्राय उच्च गति से होता है जो कि व्यक्ति को अपेक्षित दिशा की ओर ले जाती है। सदिश के अंतर्गत परिणाम तथा दिशा दोनों ही सम्मिलित होते हैं। सदिश बल का प्रतिनिधित्व करता है यह किसी उद्देश्य या उसकी विपरीत दिशा में गतिशील होता है। जब व्यक्ति एक दिशा की ओर बढ़ता है तो सदिश को अनेक प्रकार के अवरोधों का सामना करना पड़ता है यदि सदिश कमजोर होता है तो ऐसी स्थिति में अवरोध दूर नहीं होते तथा व्यक्ति के नैराश्य(frustration) की उत्पत्ति हो जाती है|
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अवरोधक(Barrier)- यह गति को अवरुद्ध करता है ।लेविन का मानना है कि अवरोधक का वातावरण का गत्यात्मक अंग होता है। यह किसी भी व्यक्ति के उद्देश्य या लक्ष्य तक पहुंचने के मार्ग में बाधा पहुंचाता है। अवरोध सदिश के कारण दूर होते हैं यदि सदिश कमजोर है तो सदिश दूर नहीं होते। लेविन के अनुसार अवरोधक प्रकार के होते हैं१. पारगम्य २. अपारगम्य

कर्षण(Valence)- विभेदीकरण के नियम के अनुसार व्यक्ति वातावरण में रहकर वातावरण में पाई जाने वाली विभिन्न वस्तुओं में विभेद या अंतर करना सीखता है। वह जिनवस्तुओं को पसंद करता है, उनके प्रति आकर्षित होता है। ऐसी वस्तुएं जिनकी और आकर्षित होती हैं वे वस्तुएं उस व्यक्ति के लिए धनात्मक कर्षन शक्ति रखती है तथा बेतिया जीव जिन वस्तुओं को पसंद नहीं करता है तो ऐसी वस्तु में उस व्यक्ति या जीव के लिए ऋणात्मक कर्षन शक्ति रखती है।(Vinayiasacadwmy.com)

जीवन क्षेत्र(Life space)- जीवन क्षेत्र से अभिप्राय होता है – विभिन्न प्रकार के बलों या शक्तियों का वह क्षेत्र जिसमें रहकर व्यक्ति क्रिया या प्रतिक्रिया करता है। इसके साथ साथ क्षेत्र के अंतर्गत उन सभी बातों को भी शामिल किया जाता है जो वातावरण में विद्यमान होती हैं। जीवन क्षेत्र एक मनोवैज्ञानिक क्षेत्र हैं। जिसमें ऐसे तत्वों की योग्यता शामिल है जो विभिन्न प्रकार के व्यवहारों का निर्धारण करती है।

व्यवहार(Behaviour)- लेविन का मानना है कि व्यवहार वर्तमान जीवन क्षेत्र का परिणाम है। लेविन ने इस बात पर अत्यधिक बल दिया है कि व्यवहार वर्तमान जीवन क्षेत्र पर आधारित है न कि भूत भविष्य के जीवन क्षेत्रत्र पर । लेविन ने इसे निम्न सूत्र के रूप में व्यक्त किया है-
B=F(P×E)
इस सूत्र के अनुसार
B= व्यवहार(Behaviour)
F= का परिणाम(The functional of)
P= मनोवैज्ञानिक व्यक्ति(Psychological person)
E= मनोवैज्ञानिक वातावरण(Psychological environment)

द्वंद या संघर्ष(Conflict)- लेविन के अनुसार व्यक्ति के जीवन में कई क्षेत्र ऐसे होते हैं जिनमें एक ही समय में विभिन्न प्रकार के कर्षण सक्रिय होते हैं। यह क्षेत्र ही जीवन क्षेत्र कहलाते हैं मनुष्य के जीवन में अनेक प्रकार के उपक्षेत्र होते हैं तथा इन क्षेत्रों की अपनी अपनी शक्ति होती है। जब कभी व्यक्ति के जीवन में इन दो या अधिक क्षेत्रों में एक ही समय में समान शक्ति उत्पन्न हो जाती है तो व्यक्ति मैं द्वंद या संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
(Vinay ias academy.com)

गति(Locomotion)- लेविन ने अपने सिद्धांत में गति को भी काफी महत्व प्रदान किया है इनका मानना है कि व्यक्ति तथा वातावरण के बीच संतुलन होना जरूरी है तथा जब यह संतुलन की स्थिति बिगड़ जाती है तो व्यक्ति में तनाव उत्पन्न हो जाता है तथा तनाव के कारण गति उत्पन्न होती है और गति का मुख्य उद्देश्य इस तनाव से मुक्ति प्राप्त करना होता है| गति के कारण ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है तथा फिर दोबारा यह पुनः संतुलन स्थापित हो जाता है| अतः कहा जा सकता है कि गति एक प्रकार की निर्देशित पत्रिका होती है जिसका मुख्य उद्देश्य संतुलन को प्राप्त करना होता है|
लेविन के क्षेत्रवाद या क्षेत्र सिद्धांत का अधिगम में प्रयोग(Use of Lewins field theory in learning)

लेविन के सिद्धांत के अनुसार अधिगम जीवन क्षेत्र को अंतर करने की प्रक्रिया है तथा यही विभेदीकरण की क्रिया मानव के जीवन क्षेत्र को छोटे-छोटे क्षेत्रों में विभाजित करती है|

व्यक्ति की समस्यात्मक स्थिति जीवन क्षेत्र के अंतर्गत असंरचित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती है और इसी के अंतर्गत व्यक्ति अपने आप को असुरक्षित महसूस करता है, परंतु इसके संरक्षित हो जाने के फलस्वरूप व्यक्ति की समस्या का समाधान हो जाता है।

लेविन का मानना है कि सीखने वाला व्यक्ति पुरस्कार प्राप्त करने के लिए तथा अपने उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु छोटा रास्ता अपनाता है। उदाहरण के लिए अधिक पैसा कमाने के लिए लॉटरी में पैसा लगाना आदि। दंड की स्थिति में व्यक्ति उस परिस्थिति का त्याग कर सकता है क्योंकि दंड कष्टकारी होता है।

लेविन के अनुसार संज्ञानात्मक संरचना मैं परिवर्तन या बदलाव पुनरावृति के कारण ही संभव हो सकता है। संज्ञानात्मक संरचना में परिवर्तन होना जरूरी भी है। किसी भी समस्या को भलीभांति व्यवस्थित करने पर व्यक्तिमें अंतर्दृष्टि या सूझ उत्पन्न होती है किसी भी प्रकार की क्रिया को दोहराने की प्रक्रिया हमारी संज्ञानात्मक संरचना तथा आवश्यकता के कारण उत्पन्न तनाव में परिवर्तन लाती है तथा जिसके फलस्वरूप हमारे लक्ष्य की आकर्षण शक्ति में परिवर्तन होने लगता है।


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हल के पुनर्बलन सिद्धांत https://vinayiasacademy.com/?p=2406 https://vinayiasacademy.com/?p=2406#respond Sun, 21 Jun 2020 11:30:47 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2406 Share itहल के पुनर्बलन सिद्धांत का विस्तृत वर्णन करें? हल एक ऐसे प्रमुख व्यवहारवादी थे जिन्होंने पेवलव तथा थानृडाइक द्वारा किए गए कार्य तथा उनके प्रतिपादित सिद्धांतों से प्रभावित होकर उन्हीं के अनुसार सीखने या अधिगम के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। हल के इस सिद्धांत का मुख्य तत्व किसी आवश्यकता को दूर करना है। अन्य […]

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हल के पुनर्बलन सिद्धांत का विस्तृत वर्णन करें?

हल एक ऐसे प्रमुख व्यवहारवादी थे जिन्होंने पेवलव तथा थानृडाइक द्वारा किए गए कार्य तथा उनके प्रतिपादित सिद्धांतों से प्रभावित होकर उन्हीं के अनुसार सीखने या अधिगम के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। हल के इस सिद्धांत का मुख्य तत्व किसी आवश्यकता को दूर करना है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि यदि हमें किसी स्थिति में कोई आवश्यकता महसूस होती है। जिसको हम दूर करना चाहते हैं, तो जो कुछ भी उस छन से पहले अनुभव कर रहे हैं, सब हमारी प्रतिक्रियाओं का प्रतिउत्तरों से संबंधित हो जाता है।
हल ने सीखने की प्रक्रिया और प्रवृत्ति को अत्यधिक व्यवस्थित रूप से समझने और परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। हल्के सिद्धांत को हम थार्नडाइक द्वारा निर्मितS–R Bond सिद्धांत का संशोधित रूप भी कह सकते हैं। उन्होंने थार्नडाइक केS-R सूत्र को संशोधित करके स्कोर S-0-R सूत्र बना दिया। इसमेंS=stimulus( उद्दीपक),O=Organism( प्राणी), तथाR= Response ( प्रतिक्रिया या प्रत्युत्तर)
हल का यह मानना था कि भिन्न-भिन्न प्राणी भिन्न-भिन्न उद्दीपकों के भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया में व्यक्त करते हैं जबकि थार्नडाइक के सूत्र यह दर्शाते हैं कि एक उद्दीपक प्रति प्राणी को एक जैसी प्रतिक्रिया ही होती है यह गलत है।

(Vinayiasacadwmy.com)
हल का यह कहना है की उद्दीपक तथा प्रतिक्रिया के अनुकूलन को ही हम अधिगम या सीखना कह सकते हैं तथा इस प्रकार का अनुकूलन काल समीपता तथा पुनर्बलन के कारण ही संभव है तथा उद्दीपक तथा प्रतिक्रिया में अनुकूलनस्थापित करने के लिए काल समी पता आवश्यक होती है। हल के अनुसार पुनर्बलन उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसके द्वारा किसी भी चालक की संतुष्टि होती है। इसी कारण से हल के इस सिद्धांत को चालक न्यूनीकरण सिद्धांत(Drive reduction theory) के नाम से भी जाना जाता है।
हल के अनुसार जब प्राणी या जीव की कोई आवश्यकता होती है तो उससे उसे तनाव या कष्ट की अनुभूति होती है जिसके फलस्वरूप व आवश्यकता को संतुष्ट करने की कोशिश करता है इसके लिए वह चालकों के द्वारा क्रियाएं करता है तथा इन्हीं क्रिया को प्रतिक्रिया में प्रत्युत्तर कहते हैं। यहां पर आवश्यकता की तीव्रता पुनर्बलन का कार्य करती है तथा पुनर्बलन प्राणी की क्रियाओं में गतिशीलता लाता है परिणाम स्वरूप चालक उद्दीपक पिया जन्म होता है। इसSD के नवीन प्रत्यय को हल्ले पहली बार प्रस्तुत किया।


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हल के सिद्धांत की मुख्य विशेषताएं-
हल के सिद्धांत से संबंधित मुख्य धारणाएं के निम्नलिखित प्रकार है-

  • आवश्यकता का अभाव या कमी अधिकता S-R के बीच संबंधों को पुनर्बलित करती है।
  • इस सिद्धांत की दूसरी धारणा यह है कि पुनर्बलन चालक उद्दीपक पर आधारित होता है।हल का यह भी मानना है की पुनर्बलन लक्ष्य उद्दीपक के उत्पन्न या घटित होने पर निर्भर करता है।
  • हल का मानना है कि पुनर्बलन आदतों के निर्माण के लिए एक आवश्यकता है।
    यह ध्यान देने वाली बात यह है कि आदत शक्ति प्रतिक्रिया क्षमता से अधिक स्थिर नहीं रहती है। यह बदलती रहती है अर्थात प्रतिक्रिया में परिवर्तन होने के कारण ही अनुक्रिया में परिवर्तन होता है। यदि प्रतिक्रिया को पुनर्बलन नहीं किया जाता तो उसमें अयोध्या बाधा उत्पन्न होती है जो की आदत निर्माण में बाधा पहुंचाती है।
    हल के सिद्धांत का शैक्षिक महत्व
  • यह सिद्धांत आदत निर्माण के संबंध में विस्तृत एवं व्यापक व्याख्या प्रस्तुत करता है।
  • यह सिद्धांत पुरस्कार एवं दंड के महत्व को स्पष्ट करता है।
  • यह पुनर्बलन के प्रयोग पर जोर देने के साथ-साथ उनके प्रयोगों की विधि के संबंध में भी विवेचना करता है।
  • इस सिद्धांत की सहायता से आवश्यकता न्यूनीकरण, शिक्षा के उद्देश्यों को बच्चों की आवश्यकताओं से जोड़ने, पाठ्यक्रम का निर्धारण करने तथा लक्ष्य निर्धारण आदि में पर्याप्त सहायता मिलती है।
  • यह सीखने का अधिगम के संबंध को आवश्यकताओं के साथ भली-भांति जोड़ता है जिसके कारण अभिप्रेरणा का महत्व स्वतःस्पष्ट हो जाता है।

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गैने द्वारा प्रतिपादित शिक्षण अधिगम के सिद्धांत https://vinayiasacademy.com/?p=2404 https://vinayiasacademy.com/?p=2404#respond Sun, 21 Jun 2020 11:26:20 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2404 Share itगैने द्वारा प्रतिपादित शिक्षण अधिगम के सिद्धांत का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिए? रॉबर्ट गाने का शैक्षिक तकनीकी को विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जेनेलिया सुझाव दिया है कि अधिगम के साधारण सिद्धांत अधिगम की व्याख्या नहीं कर सकते के समर्थन में ज्ञानी ने यह तर्क दिया कि अधिगम के स्वरूप में सामान्यीकरण […]

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गैने द्वारा प्रतिपादित शिक्षण अधिगम के सिद्धांत का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिए?

रॉबर्ट गाने का शैक्षिक तकनीकी को विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जेनेलिया सुझाव दिया है कि अधिगम के साधारण सिद्धांत अधिगम की व्याख्या नहीं कर सकते के समर्थन में ज्ञानी ने यह तर्क दिया कि अधिगम के स्वरूप में सामान्यीकरण अधिगम परिस्थितियों के निरीक्षण के आधार पर ही किया जा सकता है। जिन परिस्थितियों में अधिगम की प्रक्रिया होती है। रॉबर्ट गैने ने अधिगम या सीखने पर अधिक जोर दिया है। इसके अनुसार अधिगम उपलब्धि में परिवर्तन की क्षमता को विकसित करना है। गैने के अनुसार अधिगम परिस्थिति दो प्रकार की होती है-
(Vinayiasacademy.com)

1.आंतरिक परिस्थितियां 2.बाहरी परिस्थितियां


आंतरिक परिस्थितियों में ध्यान, अभिप्रेरणा और पूर्व अधिगम द्वारा अर्जित क्षमता को शामिल किया जाता है।
बाहरी परिस्थितियों के अंतर्गत विद्यार्थी के बाहर की परिस्थितियां अर्थात भौतिक ऊर्जा के विभिन्न प्रकार के परिवर्तन शामिल किए जाते हैं। गैने का मानना है कि अध्यापक को विद्यार्थियों में विद्यमान पूर्व अपेक्षित क्षमता को प्रयुक्त करने की अपेक्षा विद्यार्थी के बाहर की उपयुक्त अधिगम परिस्थितियों को क्रमबद्ध करना अधिक लाभकारी सिद्ध होता है।(Vinayiasacademy.com)
गैने द्वारा बताई गई अधिगम परिस्थितियां निम्न प्रकार से है-

1.संकेत अधिगम- संकेत अधिगम वास्तव में पैवलव और वाटसन द्वारा बताया गया प्राचीन अनुबंधन है। अधिगम प्रक्रिया में प्राकृतिक और अप्राकृतिक उद्दीपन को एक साथ प्रस्तुत किया जाता है। यह केवल उद्दीपन विकल्प है। अप्राकृतिक उद्दीपन से अप्राकृतिक अनुप्रिया उत्पन्न होती है। उदाहरणार्थ पैवलव के प्रयोग के अनुसार घंटी बजने पर कुत्ते के मुंह में लार उत्पन्न होता है। जब की घंटी और खाने को उसके सामने एक साथ ही प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रयोग में घंटी संकेत का कार्य करती है इसी प्रकार जीवन में छोटे बच्चों के अक्षर ज्ञान में संकेत अधिगम परिस्थिति को उत्पन्न करता है। जैसे क= कबूतर, ख = खरगोश आदि।(Vinay ias academy.com)

2.उद्दीपन अनुक्रिया अधिगम- यह थानृडाइक के यांत्रिक अनुबंधन की तरह है। इस प्रकार का अधिगम सक्रिय अनुबंधन क्रिया का रूप है। इस प्रकार का अधिगम वास्तव में शुद्ध और अशुद्ध उद्दीपन में विभेदीकरण, उद्दीपन के समूह में विभेदीकरण जो पुरस्कार उत्पन्न करते हैं और जो नहीं करते शामिल हैं।गैने का विचार है कि उद्दीपनों का विभेदीकरण करना अनु क्रियाओं के पुनर्बलन से अधिक महत्वपूर्ण है। जब किसी परिस्थिति में विद्यार्थी अनुक्रिया करता है और उसकी शुद्धता की पुष्टि की जाती है तब उससे विद्यार्थी को आगामी अनुक्रिया के लिए पुनर्बलन मिलता है। इसी आधार पर शिक्षण परिस्थितियों में ऐसा ही वातावरण पैदा किया जाता है। जिससे विद्यार्थी अनुक्रिया करते हैं तथा उसकी पुष्टि की जाती है।(Vinay ias academy.com)

3.श्रृंखला या चैन अधिगम- इसे व्यवहार आत्मक श्रृंखला कहना अधिक उपयुक्त है। श्रृंखला अधिगम के लिए उद्दीपन अनुक्रिया की आवश्यकता होती है। जिसकी व्याख्या गिल्बर्ट ने की है। श्रृंखला से अभिप्राय है- व्यक्तिगत उद्दीपन अनुक्रिया ओके समूह का एक क्रम से संबंध।
गाने ने अपने सिद्धांत में दो प्रकार की श्रृंखला अधिगम की व्याख्या की है साब्दिक और अशाब्दिक।

4.शाब्दिक साहचर्य- इस प्रकार के अधिगम में शाब्दिक अनुक्रिया क्रम की व्यवस्था की जाती है। अधिक जटिल शाब्दिक श्रृंखला के लिए व्यवस्था क्रम एक संकेत का कार्य करती है। शादी की कई को सीखने के लिए उससे पहले वाली इकाई सहायता करती है। इस प्रकार के अधिगम का प्रयोग प्रायः भाषा शिक्षण में प्रयुक्त किया जा सकता है।

5.विभेदन अधिगम- इस प्रकार के अधिगम तक पहुंचने के लिए शाब्दिक और अशाब्दिक श्रृंखला अधिगम को ग्रहण करने की आवश्यकता होती है। यह अधिगम वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति विभिन्न उद्देश्यों के लिए विभिन्न अनुक्रियाएं करता है जो कि किसी सीमा तक भौतिक दृष्टि से मिलती-जुलती है। इस प्रकार के अधिगम में श्रृंखलाओं में विभेदीकरण करने की क्षमता का विकास किया जाता है। इस प्रकार के अधिगम के लिए बोधा स्तर का शिक्षण अधिक उपयोगी सिद्ध होता है।
(Vinayiasacademy.com)

6.प्रत्यय अधिगम- प्रत्यय अधिगम से अभिप्राय है- उद्दीपनों के वर्ग हेतु सांझी अनुक्रिया करना जबकि यह उद्दीपन एक दूसरे से भिन्न हों। बहूभेदीय अधिगम प्रत्यय अधिगम की पूर्व शर्त होती है। प्रत्यय अधिगम विभेदीकरण अधिगम पर भी निर्भर करता है। कैंडलर ने1964 मैं प्रत्यय अधिगम पर अधिक बल दिया है। उद्दीपनों के एक समूह के लिए एक अनुक्रिया करना जबकि उद्दीपनों में मौलिक दृष्टि से अंतर प्रतीत होता है। इस प्रकार के अधिगम विद्यार्थियों में ऐसी क्षमता का विकास करता है कि वे विद्यार्थी समस्त उद्दीपनों के समूह के लिए अनुक्रिया का निर्धारण कर लेता है।

7.अधिनियम अधिगम- इस प्रकार के अधिगम में दो या दो से अधिक प्रतययों में श्रृंखला का निर्माण करना है। अतः इस प्रकार के अधिगम के लिए दो या दो से अधिक प्रतियों का होना आवश्यक है। व्यवहार पर नियंत्रण किस प्रकार से किया जाता है कि जिससे वह नियमों को शब्दों में प्रस्तुत कर सके। इसके लिए अधिगम के पूर्व आवश्यकता होती है लड़का अधिगम चिंता नाश्ता पर किया जाता है ऐसी शिक्षण व्यवस्था चिंतन अस्तर पर की जाती है यह व्यक्ति की एक आंतरिक स्थिति होती है जो कि उसके व्यवहार पर नियंत्रण करती है यह सुपर प्रत्यय भी कहलाता है।(Vinay ias academy.com)
गैने के अनुसार अनुदेशन को एक विशिष्ट क्रमानुसार प्रस्तुत करना चाहिए। इस क्रम से गैने की अधिकृत परिस्थितियों का क्रम अधिक व्यावहारिक बन जाएगा। गैने ने इस क्रम को तारीख बनाने के लिए शिक्षण तथा अनुदेशन में मनोवैज्ञानिक शक्तियों का एक विशिष्ट क्रम प्रस्तुत किया है- प्रथम- अभिप्रेरणा, दूसरा- स्थानांतरण, तीसरा- मापन, चौथा- अधिगम स्वरूप या परिस्थिति, पांचवा- ज्ञान का स्वरूप, छठा- अधिगम के उद्देश्य। शिक्षक को शिक्षण क्रियाओं की व्यवस्था अधिगम के स्वरूप के अनुरूप करनी चाहिए ताकि इनके अनुसार अभिप्रेरणा प्रविधियां का प्रयोग हो सके। विद्यार्थियों की अनु क्रियाओं का संबंध अधिगम उद्देश्य से होना आवश्यक है।


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शिक्षण अधिगम परिस्थितियों में अध्यापक की भूमिका https://vinayiasacademy.com/?p=2402 https://vinayiasacademy.com/?p=2402#respond Sun, 21 Jun 2020 11:18:37 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2402 Share itशिक्षण अधिगम परिस्थितियों में अध्यापक की भूमिका का वर्णन करें? अध्यापक शिक्षा पद्धति का केंद्र बिंदु होता है। चाहे मुख्याध्यापक कितना भी विद्वान व कुशल क्यों न हो यदि उसे उसके शिक्षकों का सहयोग नहीं मिलता है तो वह विद्यालय को सुचारू रूप से चलाने में समर्थ नहीं हो सकता। मानवीय साधनों में अध्यापक […]

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शिक्षण अधिगम परिस्थितियों में अध्यापक की भूमिका का वर्णन करें?

  • अध्यापक शिक्षा पद्धति का केंद्र बिंदु होता है। चाहे मुख्याध्यापक कितना भी विद्वान व कुशल क्यों न हो यदि उसे उसके शिक्षकों का सहयोग नहीं मिलता है तो वह विद्यालय को सुचारू रूप से चलाने में समर्थ नहीं हो सकता। मानवीय साधनों में अध्यापक और मुख्याध्यापक दो बड़ी शक्तियां हैं जो किसी भी विद्यालय की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
  • एच . जी .वेलेज के अनुसार,” इतिहास का वास्तविक निर्माता अध्यापक होता है”
  • हुमायूं कबीर ने अध्यापक के विषय में कहा है कि” अच्छे अध्यापकों के बिना शिक्षा की सर्वोत्तम पद्धति भी सफल नहीं हो सकती। अच्छे अध्यापकों से शिक्षा पद्धति के दोषों को भी दूर किया जा सकता है।”
  • अध्यापक के महत्व पर प्रकाश डालते हुए मुदालियर शिक्षा आयोग ने कहा है कि,” हम इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हैं कि शिक्षा के पुनर्निर्माण में सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्व अध्यापक है- उसके व्यक्तिगत गुण, उसकी शैक्षणिक योग्यताएं, उसका व्यावसायिक जीवन, प्रशिक्षण तथा विद्यालय और समुदाय में उसका स्थान। विद्यालय की प्रसिद्धि तथा सामुदायिक जीवन पर उसका प्रभाव, उस में कार्यरत अध्यापकों पर आधारित होता है।”(Vinayiasacademy.com)
  • कोठारी शिक्षाआयोग1964-1966) ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा है कि,” शिक्षा के गुणात्मक रूप से प्रभावित करने वाले सभी विभिन्न तथ्यों में अध्यापक के गुण, कुशलता एवं चरित्र का महत्व निसंदेह सर्वोपरि है”
  • वस्तुत शिक्षक कौन भाभी नागरिकों का निर्माण करता है जिनके ऊपर राष्ट्र के उत्थान एवं पतन का भार है। इसलिए जब भी कोई व्यक्ति इस अध्यापन कार्य को चुनता है तो वह किसी व्यवस्था के कारण नहीं होना चाहिए। उसका यह चुनाव उसकी रुचियां, प्रवृत्तियों के अनुरूप होना चाहिए। केवल ऐसा इस व्यवसाय में कोई सार्थक कार्य कर सकता है।
  • आदर्श शिक्षक के गुण- शिक्षण एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसमें मस्तिष्क का मस्तिष्क से संबंध स्थापित किया जाता है यह संबंध मुख्य रूप से अध्यापक के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। इस विषय पर संसार घर में अनेकों अध्ययन किए गए हैं। संत राष्ट्र अमेरिका के डॉक्टर एफ. एल. कलैप ने1913 में अध्ययन के आधार पर अच्छे शिक्षक में कौन-कौन से गुण होने चाहिए उसकी एक सूची बनाई थी जो इस प्रकार हैः(Vinayiasacademy.com)
  • संबोधन
  • व्यक्तिक आकृतिक
  • आशावादिता
  • संयम
  • उत्साह
  • मानसिक निष्पक्षता
  • शुभ चिंतन
  • सहानुभूति
  • जीवन शक्ति
  • विद्वता
    अध्यापकों का विद्यार्थियों के साथ संबंध-
    जाति से संबंध अभिभावक के समान है बचपन में जैसे बच्चे का सर्वस्व उसकी मां होती है ।उसी प्रकार विद्यालय स्तर पर अध्यापक विद्यार्थी का सर्वे सर्वा होता है इसलिए अध्यापक अपने तथा विद्यार्थी के बीच संबंध को श्रेष्ठ बताने का संपूर्ण प्रयास करना चाहिए ।इस विषय में अध्यापक को निम्नलिखित नियम अपनाने चाहिए-
  • विद्यार्थियों की रुचियोंतथा आवश्यकता ओं को समझना।
    2 उसका स्वयं का आचरण से स्टोर क्योंकि यदि अध्यापक का खुद का आचरण निम्न स्तर का होगा तो विद्यार्थियों पर उसका प्रभाव नहीं पड़ सकता है।
    3 उसे निष्पक्ष होना चाहिए। पक्षपात तथा सांप्रदायिकता से दूर रहना उसके लिए अत्यंत आवश्यक है। उसके द्वारा लिए गए निर्णय गहरी सोच पर आधारित होनी चाहिए। उसे किसी भी मामले में अपनी व्यक्तिगत राय को सर्वोपरि नहीं रखनी चाहिए।
  • विद्यार्थियों के प्रति विश्वास, सहयोग आदर की भावना को अपनाना सभा तथा रुख अपनाने से दूर रहना चाहिए। उसे बच्चों पर अपनी दादागिरी नहीं तो अपनी चाहिए और ना ही तानाशाही प्रवृत्ति का सहारा लेना चाहिए।।
  • अध्यापक को सदैव छात्रों से निकटता रखनी चाहिए तथा उसे छात्रों के साथ लोकतंत्र आत्मक पद्धति के आधार पर व्यवहार करना चाहिए। अहंकार एवं अहम से दूर रहना चाहिए वह छात्रों के प्रति संवेदनशील है।
  • कठिन समय आने पर उसे अत्यंत और न्याय पूर्ण नीति को अपनाना चाहिए। उसे किसी को शत्रु नहीं बनाना चाहिए और ना ही उसे किसी को हद से ज्यादा नजदीक रखना चाहिए। खतरों के प्रति उसका दृष्टिकोण समानता का होना चाहिए । इस संदर्भ में अरविंद घोष ने कहा है कि,” अध्यापक केवल, शिक्षक या निर्देशक ही नहीं, सहायक तथा सच्चा मार्गदर्शक भी है। के कार्य सुझाव देना है ना की किसी बात का और कारण दबाव डालना।”
  • वर्तमान समय में विद्यार्थी तथा अध्यापकों के संबंध में अधिक बदलाव आ चुका है अब अध्यापक का काम विद्यालय की गतिविधियों तक सीमित नहीं रहा है। वह जाति के उत्थान तथा सर्वांगीण विकास के लिए हर समय प्रयासरत रहता है। वाह अब अभिभावक, सच्चा मित्र, मार्गदर्शक, मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक आदि अनेक रोल निभाता हैं।
    अध्यापक के मुख्य कार्य-
  • शिक्षण- प्रभावशाली शिक्षण के लिए अध्यापकों पाठ्यक्रम को विशेष योजना के अनुसार बनाना तथा शिक्षा क्रम को साप्ताहिक एवं मासिक इकाइयों में बांट देना चाहिए। अध्यापक का प्रथम कर्तव्य है शिक्षा देना इसलिए उसे अपना संपूर्ण ध्यान शिक्षण कार्य पर केंद्रित रखना चाहिए। अध्यापक सदैव विद्यार्थियों के लिए आदर्श होता है वह कक्षा में तथा कक्षा से बाहर भी विद्यार्थियों को सिखाता है ऐसा वह तभी कर सकता है जब उसे अपने विषय का संपूर्ण ज्ञान हो।
    (Vinayiasacademy.com)
    2 . गठन- अध्यापक का कार्य कक्षा में पढ़ाने तक ही सीमित नहीं है| वह विद्यालय की रीढ़होता है ।वह विद्यालय गठन और उसका सुचारू रूप से कार्य संचालन करने में मुख्याध्यापक को सकारात्मक सहयोग देता है।
  • निरीक्षण- यदि अध्यापक निरीक्षण को आवश्यकतानुसार सहयोग करता है तो स्वाभाविक रूप से वह इस कार्य को सीख लेता है। इसी प्रकार निरीक्षक का भी कर्तव्य है वह अध्यापक की समस्याओं के समाधान में अपना सहयोग दें। उस द्वारा दी गई सहायता, परामर्श तथा प्रेरणा के रूप में हो सकती है। अध्यापक द्वारा निरीक्षण कार्य को अपनी सहायता के रूप में लेना चाहिए ना की आलोचना के रूप में।
    4 . परीक्षण एवं मूल्यांकन- शिक्षा से संबंधित कोई भी कार्य तब तक पूरा नहीं माना जाता जब तक उसका मूल्यांकन न किया जाए। अतः अध्यापक को पढ़ाने के साथ-साथ विद्यार्थियों की परीक्षा लेना तथा उनका मूल्यांकन करना एक अति अनिवार्य कर्त्तव्य है अध्यापक को यह जानना जरूरी होता है कि उसके द्वारा दिया गया ज्ञान विद्यार्थियों ने किस स्तर तक ग्रहण किया है इस कार्य के लिए वह मौखिक तथा लिखित परीक्षाएं ले सकता हैं।
  • रिकॉर्ड रखना- छात्रों के पूरे साल का लेखा-जोखा रखना अध्यापक का कर्तव्य है। इसके अंतर्गत उसे विद्यार्थी की जन्मतिथि, प्रवेश तिथि, उपस्थिति, फीस, मासिक परीक्षाओंं कथा परीक्षाओं के अंकों का रिकॉर्ड भी रखना होता है।
    ।��

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मूल्यों से अभिप्राय https://vinayiasacademy.com/?p=2400 https://vinayiasacademy.com/?p=2400#respond Sun, 21 Jun 2020 11:12:18 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2400 Share itमूल्यों से आपका क्या अभिप्राय है? बालकों में व्यक्तिगत मूल्यों का विकास तथा परिवर्तन कैसे होता है स्पष्ट करें? मूल्य व्यक्तियों के जीवन को अर्थपूर्ण बना देते हैं तथा उन्हें एक दिशा प्रदान करते हैं। लेकिन यह मूल्य है क्या ?इनका अर्थ जानना अति आवश्यक है। ” मूल्य का अर्थ” गैरेट के अनुसार मूल्य […]

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मूल्यों से आपका क्या अभिप्राय है? बालकों में व्यक्तिगत मूल्यों का विकास तथा परिवर्तन कैसे होता है स्पष्ट करें?

मूल्य व्यक्तियों के जीवन को अर्थपूर्ण बना देते हैं तथा उन्हें एक दिशा प्रदान करते हैं। लेकिन यह मूल्य है क्या ?इनका अर्थ जानना अति आवश्यक है।
” मूल्य का अर्थ”
गैरेट के अनुसार मूल्य कोई भी चीज है , जो मनुष्य के पास होनी चाहिए।
सी.ई . स्किनर के अनुसार,” यह एक अनुपम शाब्दिक प्रत्यय है, जो किसी महत्व को, किसी विशेष प्रकार की वस्तुओं, कार्यों और दशाओं से जोड़ता है”।


(Vinayiasacademy.com)
मूल्यों के संबंध में कुछ निम्नलिखित बातें-

  1. मूल्य कुछ भी है, जो किसी व्यक्ति के लिए वांछनीय हो।
  2. मूल्य व्यक्ति के जीवन को अर्थपूर्ण बना देते हैं।
  3. मूल्य किसी चीज के प्रति व्यक्ति का आकर्षण है।
  4. मूल्य इच्छाओं को पूरा करने में सहायता देते हैं।
  5. मूल्यों के आधार पर हर व्यक्ति में अंतर दिखाई देता है।
  6. मूल्य शैक्षिक प्रक्रिया में संलिप्त होते हैं।
    हां(Vinayiasacademy.com) मूल्यों का विकास-
    मनुष्य के लिए जो भी चीज जो उसके लिए लाभकारी होती है, उसके लिए मूल्यवान हो जाती है। दर्शनशास्त्र की दृष्टि से मूल्य किसी विचार या दृष्टिकोण से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होती है। बच्चा घर तथा स्कूल में मिलने वाले प्रशिक्षण से माता पिता और अध्यापकों का अनुकरण करके सामाजिक समूह के सांस्कृतिक रूप से स्वीकृत मूल्यों को सीखता है, जिस समूह के साथ वे अपनी पहचान बनाते हैं। विभिन्न वातावरणीय साधनों द्वारा सीखे गए मूल्य इन कारकों पर निर्भर करते हैं-
  • व्यक्ति का बौद्धिक स्तर
  • कुछ मूल्यों को स्वीकार और अस्वीकार करने के लिए सामाजिक बल उस व्यक्ति के साथ सीखने वाले व्यक्ति का संबंध जिसके मूल्य सीखने वाले व्यक्ति के सम्मुख सीखने के लिए प्रस्तुत किए जाते हैं
  • नाती का स्तर और भौतिकवाद- जिस परिवार में नैतिक स्तर निम्न और भौतिकवाद सूदृढ होगा, वहां पर व्यक्ति के मूल्य उन परिवार के लोगों से भिन्न होंगे जहां पर सख्त नैतिक मूल्यों पर बल दिया जाता है
  • वह विधिजिसके द्वारा यह मूल्य प्रस्तुत किए जाते हैं
    मूल्यों की वृद्धि के लिए निम्नलिखित सुझाव –
  • विद्यार्थियों का स्वयं अपनी पसंद चुनने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए तथा उन्हें निडर और बेफिक्र होकर चयन करने देना चाहिए।
  • चयन प्रक्रिया में उपलब्धि की खोज और उसकी जांच करने में विद्यार्थियों की सहायता करनी चाहिए।
  • इनके परिणामों को आंकने में सहायता करनी चाहिए।
  • विद्यार्थियों को उनकी पसंद या चयन को प्रदर्शित करने तथा बोलने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।
  • विद्यार्थियों को उनकी पसंद या चयन के अनुसार कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
    (Vinayiasacademy.com)
  • इस प्रकार यह मूल्यों की प्रशिक्षण की प्रक्रिया है, लोकी मूल्यों का थोपा जाना। मूल्यों को पठन सामग्री और पाठ्य पुस्तकों द्वारा भी प्रस्तुत किया जा सकता है। पाठ्यपुस्तक बहुत ही महत्वपूर्ण शैक्षिक साधन है, जिसे विद्यार्थी बार-बार पढता है। कहानियों के माध्यम से मूल्यों को प्रस्तुत करना उनके जीवन में घटित घटनाओं द्वारा भी मूल्यों का प्रशिक्षण संभव है।

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बहुबुद्धि सिद्धांत https://vinayiasacademy.com/?p=2398 https://vinayiasacademy.com/?p=2398#respond Sun, 21 Jun 2020 11:05:58 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2398 Share itबहुबुद्धि सिद्धांत क्या है इसके आधार पर बुद्धियों के प्रकारों का वर्णन करें? बहुबुद्धि की सिद्धांत का प्रतिपादन हावर्ड गार्डनर द्वारा किया गया। गार्डनर के अनुसार, बुद्धि कोई एक तत्व नहीं है बल्कि कई भिन्न भिन्न प्रकार की बुद्धि यों का अस्तित्व होता है। प्रत्येक प्रकार की बुद्धि एक दूसरे से स्वतंत्र रहकर कार्य […]

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बहुबुद्धि सिद्धांत क्या है इसके आधार पर बुद्धियों के प्रकारों का वर्णन करें?

बहुबुद्धि की सिद्धांत का प्रतिपादन हावर्ड गार्डनर द्वारा किया गया। गार्डनर के अनुसार, बुद्धि कोई एक तत्व नहीं है बल्कि कई भिन्न भिन्न प्रकार की बुद्धि यों का अस्तित्व होता है। प्रत्येक प्रकार की बुद्धि एक दूसरे से स्वतंत्र रहकर कार्य करती है। गार्डनर के अनुसार किसी समस्या को हल करने के लिए विभिन्न प्रकार की बुद्धियाँ आपस में अंतःक्रिया करते हुए साथ साथ कार्य करती हैं। गार्डन अपने-अपने क्षेत्रों में असाधारण योग्यताओं का प्रदर्शन करने वाले प्रतिभाशाली व्यक्तियों का अध्ययन किया इसके आधार पर 8 प्रकार की विधियों का वर्णन किया जो इस प्रकार है-(Vinay ias academy.com)

  1. भाषागत बुद्धि – भाषा का बुद्धि विचारों को प्रकट करने तथा दूसरे व्यक्तियों के विचारों को समझने के लिए भाषाका उपयोग करने की योग्यता है। यह बुद्धि जिन व्यक्तियों में अधिक होती है, वे व्यक्ति शब्द कुशल होते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति सबके भिन्न भिन्न अर्थों के प्रति संवेदनशील होते हैं तथा अपने मन में भाषा के बिंबों का निर्माण करने की क्षमता रखते हैं। इस प्रकार की बुद्धि लेखकों तथा कवियों में अधिक होती है।(Vinay ias academy.com)
  2. तार्किक गणितीय विधि- तार्किक गणितीय बुद्धि उन व्यक्तियों में पाई जाती है, जिनमें तार्किक तथा आलोचनात्मक चिंतन की क्षमता होती है। इस प्रकार की बुद्धि वाले व्यक्ति अमूर्त कर लेते हैं। तथा गणितीय समस्याओं का समाधान करने के लिए प्रतीकों का प्रहस्तनअच्छी प्रकार से कर लेते हैं। इस प्रकार की बुद्धि वैज्ञानिकों तथा नोबेल पुरस्कार विजेताओं में पाई जाती है।
    (Vinayiasacademy.com)(Vinayiasacademy.com)
  3. देशिक बुद्धि- यदि मानसिक विंबो को बनाने, उनका प्रयोग करने तथा उनमें मानसिक धरातल पर परिमार्जन करने की क्षमता है। इस प्रकार की बुद्धि रखने वाला व्यक्ति देशिक सूचनाओं अपने मस्तिष्क में रख सकता है। इस प्रकार की बुद्धि मूर्तिकार, नाविक, विमान चालक, चित्रकार, वास्तुकार आदि में पाई जाती है
  4. संगीतात्मक बुद्धि- संगीतिक अभी रचनाओं को उत्पन्न करने, उनका सर्जन करने की योग्यता संगीत आत्मक बुद्धि कहलाती है। इस प्रकार की बुद्धि वाले लोग ध्वनियों तथा ध्वनि की अभी रचनाओं से सर्जन के प्रति अधिक संवेदनशील होती है।
  5. शारीरिक गति संवेदी बुद्धि- शारीरिक गति संवेदी बुद्धि किसी वस्तु अथवा उत्पाद के निर्माण के लिए अथवा मात्र शारीरिक प्रदर्शन के लिए संपूर्ण शरीर अथवा ओके किसी एक या एक से अधिक अंक की लोच तथा बेतिया कौशल की योग्यता होती है। इस प्रकार की बुद्धि धावकों, खिलाड़ियों, अभिनेताओं, जिम्नास्टो तथा साले चिकित्सकों में अधिक पाई जाती है।(Vinay iss academy.com)
  6. अंतवैयक्तिक बुद्धि- यह बुद्धि योग्यता है, जिसके द्वारा व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की अभिप्रेरणा, उद्देश्य, व्यवहारों भावनाओं का सही बोध करते हुए उनके साथ मधुर संबंध स्थापित करता है। इस प्रकार की बुद्धि मनोवैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों, धार्मिक नेताओं तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं में पाई जाती है।
  7. अंतःव्यक्ति बुद्धि- यह बुद्धि वह योग्यता है जिसके अंतर्गत व्यक्ति को अपनी शक्ति तथा कमजोरियों का ज्ञान और उस ज्ञान का दूसरे व्यक्तियों के साथ सामाजिक अंतः क्रिया में उपयोग करने का ऐसा कौशल शामिल है जिसमें व अन्य व्यक्तियों से प्रभावशाली संबंध स्थापित कर सकता है। इस प्रकार की बुद्धि वाले व्यक्ति अपनी पहचान, मानव अस्तित्व, तथा जी अति संवेदनशील होते हैं।
  8. प्रकृति वादी बुद्धि- प्रकृति वादी बुद्धि का तात्पर्य प्राकृतिक पर्यावरण से हमारे संबंधों की पूर्ण अविज्ञता से है। यह बुद्धि विभिन्न पशु पक्षियों तथा वनस्पतियों के सौंदर्य का बोध करने में तथा प्राकृतिक पर्यावरण में सूक्ष्म विभेद करने में मदद करती है। इस प्रकार की बुद्धि किसान, शिकारी, पक्षी विज्ञानी, प्राणी विज्ञान, वनस्पति विज्ञानी प्रकृति वादी मैं अधिक पाई जाती है.

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सृजनात्मकता एवं इसकी विशेषताएं https://vinayiasacademy.com/?p=2218 https://vinayiasacademy.com/?p=2218#respond Thu, 11 Jun 2020 06:57:43 +0000 https://vinayiasacademy.com/?p=2218 Share itQ. सृजनात्मकता क्या है? सृजनात्मक बच्चों की विशेषताएं बताएं? Ans:- स्किनर के अनुसार” सृजनात्मकता अर्थ है कि व्यक्ति की भविष्यवाणियां नहीं, मौलिक तथा असाधारण होती हैं। सृजनशील व्यक्ति वह है, जो नए क्षेत्रों की खोज करता है, अवलोकन करता है, नई भविष्यवाणियां करता है तथा नए निष्कर्ष निकालता है।”(Vinayiasacademy.com) स्टैग्नर के अनुसार” किसी नई […]

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Q. सृजनात्मकता क्या है? सृजनात्मक बच्चों की विशेषताएं बताएं?

Ans:- स्किनर के अनुसार” सृजनात्मकता अर्थ है कि व्यक्ति की भविष्यवाणियां नहीं, मौलिक तथा असाधारण होती हैं। सृजनशील व्यक्ति वह है, जो नए क्षेत्रों की खोज करता है, अवलोकन करता है, नई भविष्यवाणियां करता है तथा नए निष्कर्ष निकालता है।”(Vinayiasacademy.com)
स्टैग्नर के अनुसार” किसी नई वस्तु का पूर्ण या आंशिक उत्पादन सृजनात्मकता है”
आइजैक के अनुसार” सृजनात्मकता वह योग्यता है, जिसके द्वारा नए संबंधों का ज्ञान होता है तथा इसकी उत्पत्ति में चिंतन के परंपरागत प्रतिमानों से हटकर असाधारण विचार उत्पन्न होते हैं”
इन सभी परिभाषा के आधार पर हम सृजनात्मकता की विशेषता का निम्नलिखित रूप से उल्लेख भी कर सकते हैं-(Vinayiasacademy.com)
1) सृजनात्मकता सार्वभौमिक होती है अथवा यह सभी प्राणियों में होती है, किसी में अधिक और किसी में कम|
2) सृजनात्मकता योग्यता प्रशिक्षण तथा शिक्षा द्वारा विकसित की जा सकती है|
3) सृजनात्मक अभिव्यक्ति द्वारा किसी नई वस्तु को उत्पन्न किया जाता है, परंतु यह जरूरी नहीं कि वह वस्तु पूर्ण रूप से नई हो।
4) सृजनात्मक प्रक्रम से जो उत्पादन होता है वह मौलिक होता है।
5) सृजनात्मकताऔर बुद्धि से अधिक संबंध नहीं है।
(Vinayiasacdemy.com)


अत: हम यह कह सकते हैं कि सृजनशीलता वह मानसिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने वातावरण को इस प्रकार बल देना चाहता है कि उसमें व नए विचार नमूने अथवा संबंध उत्पन्न कर सकें। सृजनशीलता मौलिक कार्य करने की क्षमता है या जिससे हम पुराने अनुभवों को पुनः निर्मित करके नई रचना करने की उपयोगी योग्यता कह सकते हैं।
(Vinay iss academy.com)
सृजनशील बालकों की विशेषताएं-

  1. सृजनशील बालकों में विरोध को सहने की अधिक क्षमता होती है।
  2. सृजनशील बालक एक स्वच्छ एवं आत्म सिद्धि करने वाला होता है।
  3. सृजनशील बालक का ज्ञान एवं अस्पष्ट वस्तुओं औसृजनात्मकता क्या है? सृजनात्मक बच्चों की विशेषताएं बताएं?
    (Vinay iss academy.com)
    सृजनशील बालकों की विशेषताएं-
  4. सृजनशील बालकों में विरोध को सहने की अधिक क्षमता होती है।
  5. सृजनशील बालक एक स्वच्छ एवं आत्म सिद्धि करने वाला होता है।
  6. सृजनशील बालक का ज्ञान एवं अस्पष्ट वस्तुओं और विचारों से भय नहीं खाते।
  7. सृजनशील बालक तक्षण कार्य करने में सक्षम होते हैं।
  8. उनके विचारों में एक प्रकार का प्रभाव रहता है जो बिना किसी प्रयास के स्वयं ही चलता रहता है।
  9. उनमें उच्च स्तर की कार्य शक्ति अधिक होती है।
  10. सृजनशील हास्यपद विचारों वाले बालक होते हैं।
  11. उनके द्वारा किए गए कार्य एवं उत्पादन मौलिक होते हैं।
  12. उनमें सृजनात्मक प्रयासों पर आग्रह पूर्वक अटल रहने की शक्ति होती है।
  13. सृजनशील बालकों में अंतर्दृष्टि की शक्ति अधिक होती है।(Vinayiasacademy.com) सृजनात्मकता की प्रक्रिया
    यह क्रिया चार अवस्था में से गुजरती है-
  14. तैयारी – इस अवस्था में समस्या पर गंभीरता से कार्य आरंभ किया जाता है। मानसिक स्तर पर समस्या को समझा जाता है और विभिन्न कल्पनाएं बनाई जाती है। उदाहरण के तौर पर अब लिखने के लिए उससे संबंधित सारी सामग्री इकट्ठा करता है।
  15. उदभवन- इस अवस्था में एकत्रित की गई सामग्री मन के अर्थ चेतन स्तर पर घूमती है और समस्या को हल करने की क्रिया चलती रहती है। इस अवस्था में बकरियां बंद हो जाती है समस्या के समाधान से संबंधित विचार अचेतन मन से चेतन मन में आने का प्रयास करते रहते हैं।
  16. प्रकाश- किस अवस्था में चिंतक अचानक समस्या के समाधान अनुभव करता है। कभी-कभी चिंतक सपने में ही समाधान का रास्ता देख लेता है।(Vinay iasacademy.com)
  17. पड़ताल- इस अवस्था में समस्या के प्राप्त समाधान की जांच पड़ताल की जाती है और अन्य स्थितियों में लागू किया जाता है। यदि समाधान ठीक नहीं है तो दोबारा समस्या के समाधान के लिए और निरंतर प्रयास किए जाते हैं।
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