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           * आधुनिक काल में झारखंड-
  
सम्राट शाह आलम द्वितीय ने 12 अगस्त 1765 ईस्वी में बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इंडिया कंपनी को 26 लाख का वार्षिक कर प्रदान कर  के दिया. उस समय झारखंड का क्षेत्र बिहार में शामिल था.  यह क्षेत्र बिहार बंगाल से अलग था क्योंकि मुगल अथवा  मराठों ने क्षेत्र में आवश्यकतानुसार हमला किए थे परंतु  उनका स्थायी शासन कायम नहीं हो सका था.  और इस तरह हार और जीत का सिलसिला चलता रहा. जब भी  दबाव  ढलता था  तब   स्थानीय राजा उन्हें कुछ सालाना देकर  पीछा छुड़ा लेते थे. और समय मिलते ही अपने खोए हुए प्रदेश को वापस कब्जा करना नहीं भूलते थे.  वे स्वतंत्र राजागण थे जिन पर मुगलों का  प्रशासकीय  नियंत्रण कभी भी पूरा नहीं हो सका था. अंग्रेजों का प्रवेश इस क्षेत्र में अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप शुरू हुआ था उन्होंने ऐसे अवसरों का लाभ भी उठाया था.
     अंग्रेजों की झारखंड में रुचि होने का अनेक कारण थे. दीवानी प्राप्त होने के बाद इस क्षेत्र के व्यापार मार्गो पर मीर कासिम  और मराठों के  दहशत में मौजूद थे.  इसके अलावा छोटा नागपुर दक्षिण बिहार के  विद्रोही जमींदारों का आश्रम स्थल बन गया था. जब बकाया कर वसूली के लिए उन पर दबाव दिया जाता था तब वे भागकर छोटा नागपुर चले जाते थे  और कंपनी की अवज्ञा करने के लिए सफल हो जाते थे. इसके अतिरिक्त बिहार राज्य में कंपनी की  पश्चिमी सीमा को  मराठा आक्रमणकारियों का खतरा उत्पन्न हो गया था. पलामू के किले पर कब्जा करना आवश्यक हो गया था क्योंकि मराठा  हमलावर उधर से ही  आते थे. ऐसी स्थिति में कंपनी के अधिकारियों को यह सोच हो गई थी कि अगर पलामू जिला कब्जा हो जाती है तो उसे चौकी के रूप में उपयोग किया जा सकता है.
मराठों और पहाड़ी राजाओ से बंगाल में कंपनी के दक्षिणी पश्चिमी सीमा को दक्षिणी बिहार वाली सीमा से कहीं ज्यादा खतरा था. छोटा नागपुर के कंपनी का प्रदेश का मुख्य कारण दक्षिण बिहार तथा दक्षिण पश्चिम बंगाल की सीमाओं का मराठा के आक्रमणों से  बचाव करना था. यह तभी संभव था कि जब कंपनी छोटा नागपुर के किलो और पहाड़ी मार्गो  पर कब्जा कर लेती थी.
1760 ईस्वी में अंग्रेजों का झारखंड में प्रथम प्रवेश   सिंहभूम की ओर से हुआ. उस समय में  मीदीनापुर  उनके कब्जे में आ चुका था. उस समय अंग्रेज  सिंहभूम समेत अन्य सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी शक्ति तथा प्रभाव के बारे में  विस्तार से सोचने लगे थे.  सिंहभूम में तीन प्रमुख राज्य-  ढाल राजाओं का धालभूम, सिंह राजाओं का पोरहट, और हो का कोल्हान. कंपनी के प्रशासन ने यह निश्चय किया  था कि सिंहभूम के राजा के अधीनता स्वीकार ना  करने पर धाबा बोल दिया जाये. फर्गुसन को सिंहभूम पर आक्रमण 1767 ईस्वी में बागडोर सौंपी गई थी. उसने सर्वप्रथम  झाड़ग्राम के राजा को पराजित कर दिया था.
फर्गुसन के अभियान से डरकर रामगढ़, सिलदा  और  जामबनी के राजाओं ने खुद को आत्मसमर्पण कर  दिया था. उसके बाद कंपनी के सेना ने जामबनी में  धालभूम के राजा को पराजित कर दिया था.  पराजित शासकों ने अंग्रेजों को घाटशिला पहुंचने  पर रोकने के लिए कई प्रयास किए परंतु वे कामयाब नहीं हो पाए  थे.  उसने खाली करते समय अपने राज महल में आग लगा दी थी  और फर्गुसन के पहुंचने  पर उसे 22 मार्च 1767  को  जलते महल पर कब्जा  किया था और उसके अगले महीने राजा को बंदी बना लिया गया था और उसे मीदीनापुर भेजा गया था. उसके बाद उनके  भतीजे जगन्नाथ ढाल को राजा बना दिया  गया था. और उसके एवज में से ₹5500 कर देने का निर्णय लिया गया था. परंतु 1 वर्ष के अंदर जगन्नाथ ढाल अपना रवैया बदल दिया था. उसने स्वतंत्र राजा की तरह कार्य करना प्रारंभ कर दिया था. एक अंग्रेज लेफ्टिनेंट रुक को भेजा गया था लेकिन जगन्नाथ ढाल उनके  पकड़ में नहीं आ सके थे. रुक को  जगन्नाथ ढाल के भाई  नींमु ढाल को पकड़ने पर संतोष किया था. भगोड़ा जगन्नाथ ढाल के पकड़ में न आने पर नींमु ढाल को राजा  घोषित कर दिया गया था. इसी बीच भूमिजो ने नए राजा के  खिलाफ विद्रोह कर दिया था जिससे अंग्रेजों को कुचलना पड़ा था. जिसके वजह से जगन्नाथ ढाल को इससे सहारा मिल गया था. उसने काफी प्रयास करके अपने राज्य का बड़ा हिस्सा कंपनी के चंगुल से आजाद कर दिया था. उसके बाद भी जगन्नाथ निरंतर प्रयास करता रहा  और कंपनी से लोहा लेता रहा.  सन 1777 ईस्वी में कंपनी उसे   धालभूम के राजा मानने को बाधा हुई थी.  इसके बदले  जगन्नाथ ढाल का प्रथम, द्वितीय और तृतीय  वर्षों में क्रमश: 2000,3000  और 4000  घर  सालाना देने का स्वीकार किया था.  बाद में इसके सालाना कर को बढ़ा दिया गया था.
इस तरह धालभूम का संपन्न संधि का मॉडल बन गया था. सन 1773  ईसवी में पोरहाट के राजा के मामले में कंपनी ने इसी तरह का हस्तक्षेप किया था.  उसके अधिकारी कैप्टन फोरबीस ने पोरहाट के राजा ने इकरारनामा किया था की वह भविष्य में कभी भी कंपनी क्षेत्र के रेयातो  और व्यापारियों को अपने राज्य में शरण नहीं देंगे और हल्दीपोखर  क्षेत्र में शांति बनाए  रखेगा. आगे 20 वर्षों के पश्चात सरायकेला  और खरसावां के राजा को ऐसे संधि करनी पड़ी थी कि और यह लिखित गारंटी देना पड़ा था की  वे अपने कंपनी विरोधी तत्वों का आश्रय ही नहीं देंगे. 1810 के समय तृतीय मराठा युद्ध कंपनी की नीति स्वयं बदल दी गई थी और सिंहभूम को कंपनी के अधीन करने का निश्चय कर दिया गया था. उसके बाद पड़ोसी राज्य कटक और संबलपुर को भी कब्जा कर लिया था.
   फरवरी 1720 को पोरहाट के राजा घनश्याम सिंह को कबूलियत पर हस्ताक्षर करके 101 रुपए के रूप में देना स्वीकार किया था. बदले में कंपनी ने भी अपने  अधिकारों  और संपत्ति को  अक्षुण बनाए रखने का वायदा किया था. इस  समझौते के पीछे पोरहाट के राजा के  तीन उद्देश्य  छिपे थे-   सबसे पहले यह कंपनी की मदद से सरायकेला खरसावां पर अपनी संप्रभुता  स्थापित बनाए रखना चाहता था. दूसरा  वह सरायकेला के  शासक से अपनी कुलदेवी पौरी देवी की प्रतिमा भी हासिल करना चाहता था  और अंततः वह हो लोगों की दमन के लिए कंपनी से सहायता प्रदान करना चाहता था.
‘हो’ जनजाति का प्रमुख क्षेत्र कोल्हान था. जिस पर मुगल अथवा मराठा अधिकार नहीं कर सकते थे.  पोरहाट के सिंह राजाओं को भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा था. वे पोरहाट के अधीनस्थ नहीं माने जा सके थे   बल्कि उनके मित्र थे. वे सिंह राजाओं को कर नहीं देते थे. लेकिन समय-समय पर  वे उपहारों का प्रदान करते थे. पराधीनता के अभाव में ‘हो’  जनजाति स्वतंत्र प्रेमी और युद्धक स्वभाव के हो गए थे.  परंतु  इसका प्रभाव यह हुआ था की वे सिंहभूम के राजाओं के कठपुतली बन गए थे और उनका उपयोग अपने अपने शत्रुओं का खिलाफ के जाने लगे थे.
     ‘हो’ लोगों ने छोटा नागपुर  के खास नागवंशी प्रदेशों में हमला करना शुरू कर दिया था. इसका कारण यह था कि राजा ने उनके क्षेत्र पर 1770  ईसवी और 1800 ईसवी में हमला कर दिया था जिसका वे  जवाब देना चाहते थे. परंतु इनके  बढ़ते   तेवर से कोल्हान  ह कर जाने वाले मार्ग असुरक्षित हो गए थे. यात्री  अथवा व्यापारी  उस मार्ग से जाने के लिए घबराने लगे थे. इस युद्धक कार्रवाई के कारण  कोल्हान से पार होने वाले मार्ग सुरक्षित हो गए थे और कोई भी  इंसान कोल्हान के मार्ग पे यात्रा करने से डरता था. इन आशांत परिस्थितियों के वजह से कंपनी का ध्यान इस पर पड़ा.  सिंहभूम के कुछ  राजाओं ने 1819 ईस्वी में कंपनी के अधीनता को स्वीकार कर लिया था और उन लोगों ने मदद भी मांगी थी. सच बात यह था कि सिंहभूम राजाओं के प्रजा होने के बावजूद उन पर जरा भी नियंत्रण नहीं रह गया था.
      1820 ईस्वी में मेजर रफसेज स्वयं सेना लेकर ‘हो’ प्रदेश में प्रवेश हुआ था. इसमें अंग्रेज सफल हुए थे और स्थानीय लड़ाके मारे गए थे. इसके बाद मेजर रफसेज के टुकड़े को बहुत गहरा धक्का लगा था  जब कर वसूली में सिंहभूम के राजा की सहायता करते समय भारी  नुकसान उठाना पड़ा था. इस कारण के वजह से 1821 ईसवी में कर्नल रीचर्ड के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ‘हो’ लोगों के खिलाफ भेजी गई थी. ‘हो’ लड़ाकू ने लगभग 1  मास तक सामना किया और बाद में फिर समझौता कर लिया था. इन शर्तों के अनुसार उन लोगों ने पराधीनता को स्वीकार कर लिया था. इसके अलावा अगले 5 वर्षों तक  प्रति हल 50 पैसा और उसके बाद एक रुपए प्रति हल देना स्वीकार किया था.  अत:  उन्होंने कोल्हान के मार्गों  पर व्यापारियों और यात्रियों कि सुरक्षा और सभी जातियों को  अपने ग्रामों में बसने की सहमति दी थी.
समझौता तो कुछ वर्षों तक अच्छा चला  लेकिन ‘हो’ जनजाति सिंहभूम के राजाओं के साथ अच्छे संबंध  नहीं बनाए रख सके थे. उन्हें अधीनता पसंद नहीं था इसलिए शीघ्र ही उन्होंने धालभूम, छोटानागपुर खास और बामंघाटी पर हमला कर दिया था. 1831-32 ईस्वी में कोल विद्रोह ‘हो’ लोगों ने सक्रिय रूप से भाग लिया था.  विलकिंसन परामर्श के आधार पर 1836 ईसवी के अंत में  एक ब्रिटिश फौज कोल्हान में शामिल हुआ था. उन दोनों पक्षों में 4 महीने तक संघर्ष चलता रहा था. फरवरी 1837 ईस्वी में ‘हो’  समुदाय ने आत्मसमर्पण कर लिया था. इस बार कंपनी से सीधा संबंध स्थापित हुआ था. और वे कर  प्रत्यक्ष रूप से देने के लिए तैयार हो गए थे. कंपनी ने  इस क्षेत्र में  स्थाई रूप से पकड़ बनाने के उद्देश्य से  उन्होंने एक नई  प्रशासनिक इकाई का संगठन करके उसे एक अंग्रेज अधिकारी के मातहात अर्थात उनके अधीन कर दिया था. इस तरह दीवानी मिलने के 72 वर्षों के बाद ‘हो’ क्षेत्र में अंग्रेजों का शासन स्थापित कर लिया था.
      12 अगस्त 1765  को मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय द्वारा बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी दिए जाने के बाद झारखंड के स्थिति बदलने लगी थी. छोटा नागपुर बिहार का एक भाग होने के कारण अंग्रेजों को रामगढ़, खड़कडीहा, कैंदी और कुंदा  से भी प्राप्त करने का अधिकार मिल गया था. कोलकाता स्थित गवर्नर द्वारा पटना के टी. राम  बेल्ड पलामू और
रामगढ़ में हस्तक्षेप  ना करने की हिदायत दे दी थी. परंतु माधवराव (1761-62) द्वारा मराठा शक्ति को पुनर्जीवित करने के कारण बिहार और बंगाल का खतरा बढ़ गया था. उनके द्वारा रामगढ़ को बिहार और बंगाल पर आक्रमण करने के लिए मुख्य स्थल बनाया जाता था. इस  कारण के वजह से अंग्रेजों के जरिए छोटा नागपुर के सभी राजाओं को अपने अधीन करने का निर्णय ले लिया था.  और उनकी  आपसी प्रतिद्वंदिता और झगड़े  अंग्रेजों की सफलता के कारण बनती गई.1769 ईस्वी में  कैप्टन कैमेक  ने  छोटानागपुर में प्रवेश किया था. 1771 इसवी में उसने खड़कडीहा और पलामू के जमींदारों को शांत करवाया. पलामू में आक्रमण करके विजय पाने में कुंदा के राजा धीरन नारायण सिंह से अंग्रेजों को काफी मदद मिली थी. उसके बदले कैमेक ने कुंदा से छोटा नागपुर तक  सालाना कर भुगतान से मुक्त कर दिया था.
पलामू पर कब्जा करने में भी व्यापत राजनीतिक  अराजकता से काफी मदद मिली थी. शुरू में कंपनी के अधिकारी चेराओ के खिलाफ कार्रवाई करने में संकोच करते  रहे थे क्योंकि कलकत्ता में स्थित उच्च अधिकारियों ने पटना काउंसिल को हिदायत दे रखा था की वे चेराओ को दबाने के लिए कोई भी बल का प्रयोग नहीं करेंगे. पलामू के किले पर कब्जा करने के उद्देश्य से छत्रपाल राय के पुत्र गोपाल राय का समर्थन करने का निर्णय लिया गया था. उस वक्त कि चिरंजीत राय और जयनाथ सिंह ने पलामू के किले पर कब्जा कर लिया था. गुलाम हुसैन के माध्यम से अंग्रेजों ने जगन्नाथ सिंह को संवाद दिया था कि  वे पलामू का किला सौंप दे. राजनीति और रणनीति के अलावा यह भी निर्णय लिया गया था कि जगन्नाथ सिंह के द्वारा अनुपालन नहीं किए जाने पर  सैन्या कार्रवाई की जाएगी. पटना काउंसिल पलामू में संभावित हमले करने के लिए तैयारियां करने लगा था. कैप्टन जैकब कैमेक पलामू में हमलों की तैयारी करने के लिए आदेश दे दिया गया था. 20 जनवरी 1771 को कै मेक पटना से चलकर अगले   दिन औरंगाबाद पहुंचा था. वहां से शेरघाटी पहुंचा और 24 जनवरी को  शेरघाटी से रवाना हुआ और अगले दिन वह कुंदा  पहुंचा था और उससे वहां का जमींदार मिल गया था. और वह 26 जनवरी को कुंदा से चला गया था. 27 जनवरी को  कैमेक ने चैनपुर पर आक्रमण किया था. परंतु पटना काउंसिल  ने 19 फरवरी को कैमेक को पलामू पर कब्जा करने और गोपाल राय को गद्दी पर   बिठाने का  अंतिम आदेश दिया था.
  21 मार्च 1771 में कैप्टन कैमेक को सफलता मिली जब चेराओ ने आत्मसमर्पण कर दिया था. चेरो राजा चिरंजित राय  और जगन्नाथ सिंह रामगढ़ भाग गए थे. पलामू किला के पतन के बाद शांति व्यवस्था बहाल करने का आदेश मिला था. कंपनी की तरफ से कैमेक   और अन्य मददगारो जैसे पलामू का जयमंगला सिंह, कुंग के धीरज नारायण और सिरीस कुटुंबा के नारायण सिंह को पुरस्कृत और सम्मानित किया गया था. 3 वर्षों के लिए पलामू के लिए  सालाना 12000 हजार रुपए निश्चित किया गया था. 9 अप्रैल 1771 पलामू में गोपाल राय को  देखरेख के लिए जिम्मेदारी दे दिया गया था. पलामू के फौजदार भवानी सिंह को  वापस बुला लिया गया था. जून 1771 में ठाकुराई जगन्नाथ सिंह पलामू वापस लौट गए थे. परंतु अंग्रेजों द्वारा  परास्त होकर वे सुरगुजा भाग गए थे. जुलाई 1771 ईसवी को गोपाल राय  को पलामू  का राजा घोषित कर दिया गया था. इस प्रकार जुलाई 1771 के मध्य तक संपूर्ण पलामू पर कंपनी का कब्जा हो गया था.
   पलामू किला और राजा  के आत्मसमर्पण के बाद छोटानागपुर क्षेत्र ( उस वक्त गुमला, रांची, लोहारदागा इसमें शामिल थे) पर कंपनी का कब्जा आसान हो गया था. पलामू के चेराओ के खिलाफ अंग्रेजों की सफलता ने छोटा नागपुर के राजा दर्पनाथ शाह को डगमगा दिया था  और उसने अपने वकील को कैमेक से मिलने के लिए भेजा था और रसद एवं अन्य आवश्यक वस्तुएं भेजी थी. इसके अतिरिक्त छोटा नागपुर के राजा दर्पनाथ शाह को अपने अधीन बुंडू के राजा को भी पलामू के अभियान में  मदद के लिए भेजा था.दर्पनाथ शाह खुद कैमेक से मिलने  सतबरवा पहुंचा था. उस समय पलामू किले का पतन हो चुका था. और स्थानीय राजा अपने-अपने पेशकश कैमेक के सामने दे रहे थे. दर्पनाथ शाह ने कंपनी की  अधीनता को स्वीकार करते हुए कंपनी को 12000 रुपए सालाना कर देने का और मराठों की  खिलाफ  सहायता करने का निश्चय किया था. समझौते की पुष्टि के रूप में कैमेक ने दर्पनाथ शाह की पगड़ी से अपनी टोपी  बदल दी थी. इस समझौते के बाद से दर्पनाथ शाह अंग्रेजों से आग्रह किया था कि वे उन्हें राजस्व सीधे कंपनी को जमा करने की अनुमति दे दी जाए क्योंकि वे रामगढ़ के राजा के माध्यम से भुगतान करते थे. अंत में पटना काउंसिल ने इस बात को स्वीकार कर लिया था.  पलामू के राजा के साथ एक नया समझौता किया गया जिसके अंतर्गत 1771 से 1773 के बीच 3 वर्षों का लीज और 3 वर्षों की मालगुजारी 36001 रुपए तय की गई.
पलामू के बाद कंपनी का ध्यान हजारीबाग पर गया था. रामगढ़ हजारीबाग के प्रमुख अंग था. इसके राजा और नागवंशी राजाओं में काफी मतभेद होता था. रामगढ़  राज्य भी अंदरुनी कलह और पारस्परिक द्वेष   के दौरे से गुजर रहा था.  रामगढ़ के राजा  मुकुंद सिंह  प्रारंभ से ही अंग्रेजों का विरोध करता रहा था.कैमेक के पलामू अभियान के दौरान उसने चेराओ का भरपूर, मदद किया.  रामगढ़ का संबंध पड़ोसी राजाओं के साथ अच्छा नहीं था. छे  का जमींदार मुकुंद सिंह  नाराज था  क्योंकि उस पर कई आक्रमण किए गए थे.  इस प्रकार  मुकुंद सिंह के खिलाफ किसी अभियान में अंग्रेजों के साथ देने को तैयार था.  इधर छोटा नागपुर के नागवंशी राजा के साथ  बिगड़े संबंध के कारण वह  भी अपनी ओर से  रामगढ़ पर आक्रमण करके  अंग्रेजों की मदद करना चाहता था.
अपने पड़ोसियों के तेवर और अंग्रेजों का बढ़ते हौसले को देखकर  मुकुंद सिंह थोड़ा ढीला पड़ गया था. उसने अपने एक वकील ठाकुर रामचंद्र सिंह को प्रतिनिधि बनाकर भेजा था और कंपनी के साथ दोस्ती का प्रस्ताव रखा था.कैमेक ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार करते हुए पटना काउंसिल से दयालुता और कृपादान की याचना की थी. पटना काउंसिल ने 21000 रुपए सालाना के हिसाब से 1772-1775 ईसवी की अवधि का 3 वर्ष का पट्टा मुकुंद सिंह के सामने रखा था. इसके अलावा 23228 रुपए पहले से ही बकाया था. लेकिन रामगढ़ के राजा के लिए इतनी भारी राशि चुकाना कठिन हो गया था. वह कर की आधी रकम नकद और आधी रकम जींस के रूप में देना चाहता था.कैमेक ने यह सब कुछ नहीं सुना था. तो इसलिए मुकुंद सिंह ने कबूलियत पर हस्ताक्षर नहीं किया था. और उसने घोषणा किया था कि वह हमेशा स्वतंत्र रहा था और अभी भी वह उसी स्थिति में रहना चाहता है. बाह्य हस्तक्षेप के बारे में उसने कहा कि यह उसके बर्दाश्त के बाहर है.
समझौता नहीं होने के कारण दोनों पक्षों में अपनी-अपनी तैयारी में लग गए थे. कैमेक अंग्रेजों की सामान्य नीति ‘ फूट डालो और राज करो’ पर चलने लगा था. रामगढ़ के राजा में मराठों से संपर्क करना शुरू किया और उसने रतनपुर के मराठा शासक से मदद की भी अपील की थी जिसे मंजूरी कर लिया गया था. इस आग्रह पर कुछ लड़ाके मराठों को झारखंड भेजा गया था. जिससे टोरी तथा कुंडा के राजाओं को बल मिला था और अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह करने हेतु उत्प्रेरित किया था. इधर कैमेक के शह पर ठाकुर तेज सिंह ने रामगढ़ की गद्दी पर अपना दावा पेश कर दिया था. कैमेक ने जवाबी कार्रवाई करते हुए कुंडा पर कब्जा कर लिया था. केंदी राजा भी डर कर अंग्रेजों को कर देने लगे थे. उन विद्रोहियों को दबने से कैमेक की स्थिति और भी मजबूत हो गई थी.
1772 ईसवी के सितंबर- अक्टूबर के बीच में तेज सिंह और रामगढ़ के राजा मुकुंद सिंह के बीच जंग छिड़ गई थी. अंग्रेजों के इशारे पर पलामू और छोटा नागपुर के राजा तथा अन्य दो तीन छोटे-छोटे जमींदार तेज सिंह की सहायता कर रहे थे. परंतु फिर भी तेज सिंह अपने अभियान पर सफल नहीं हो पाए थे और उसे नवादा की ओर भागना पड़ा था जिससे उनके लिए संकट की घड़ी बजी पड़ी थी. पटना काउंसिल ने आदेश भेजा थी की रामगढ़ पर आक्रमण किया जाए और इस बार रणनीति बनाकर हमला किया गया था. छोटा नागपुर की ओर से कैमेक ने, इवेंस और दूसरी ओर से तेज सिंह ने मोर्चा लिया था. परंतु मुकुंद सिंह के तरफ से कोई भी मुकाबला नहीं किया गया था. इस तरह रामगढ़ अंग्रेजी राज्य में अनुबंध हो गया था. 1773 ईस्वी में रामगढ़, पलामू और छोटा नागपुर मिलकर रामगढ़ जिला बनाया गया था और कैमेक को उसका प्रभारी बनाया गया था. 1 वर्ष के पश्चात 1774 ईसवी में ठाकुर तेज सिंह को रामगढ़ का राजा घोषित कर दिया गया था. 1780 ईस्वी में “रामगढ़ हिल ट्रैक्ट” के नाम से एक नया जिला अंग्रेजों द्वारा बनाया गया था जिसकी राजधानी बारी बारी से शेरघाटी और चतरा हुआ करती थी. चेपमैन को दंडाधिकारी के साथ समाहर्ता बनाया गया था. इस जिले में गया, मानभूम और मुंगेर शामिल था और साथ ही साथ छोटानागपुर को भी नाममात्र का हिस्सा बनाया गया था क्योंकि उसकी वफादारी अंग्रेजों की प्रति थी.
ब्रिटिश सरकार ने संयुक्त आयुक्त के प्रस्ताव पर गंभीरता के साथ विचार किया था और तय किया था कि पलामू, मुख्य छोटा नागपुर उसके अधीन इलाके और जंगल महल एवं मिदीनापुर को मिलाकर प्रशासनिक इकाई बनाया जाए जो कि सामान्य रेगुलेशन प्रणाली से मुक्त हो जाए. इस प्रकार दक्षिण पश्चिम सीमांत एजेंसी का गठन हो गया था जो 1834 से 1854 तक कार्यरत रहा था. एजेंसी का मुख्यालय लोहरदगा में स्थित ‘ किशनपुर ‘ बनाया गया था और थॉमस विल्किन्सन एजेंसी के प्रथम एजेंट के रूप में नियुक्त हुए थे जो सीधे गवर्नर जनरल के प्रति जिम्मेवार हुए थे. लोहरदगा एजेंसी का प्रधान जिला था. रॉबर्ट आउसले को लोहरदगा का जिला अधिकारी नियुक्त किया गया था.1854 ईस्वी में एजेंसी का कार्यालय समाप्त कर दिया गया था.
साउथ वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी को समाप्त करके संपूर्ण छोटानागपुर को बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन कर दिया गया था. और नॉन रेगुलेशन प्रांत के रूप में प्रशासनिक ढांचा खड़ा हुआ. एक कमिश्नर के अधीन लोहरदगा, हजारीबाग, मानभूम, सिंहभूम, सरगुजा, जसपुर, उदयपुर और गंगापुर आदि ट्रिब्यूटरी राज्य थे. अत: इस कमिश्नरी का नाम चुटियानगर रखा गया था.
ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के समय मानभूम का क्षेत्र बड़ा था. जिसके अंतर्गत झरिया, कतरास, रघुनाथपुर, पर्रा, कर्राह, झालदा, जयपुर, हेसला, बालमुंडी, इचागढ़, बलरामपुर, पंचेत,अभियनगर, चतना, बड़ाभूम की जिम्मेदारी थी. सन 1767 ईस्वी में फर्गुसन के मानभूम प्रवेश के समय पांच बड़े एवं शक्तिशाली जमीदार का थे. इनमें शामिल मानभूम, बड़ाभूम, सूपुर, अभियनगर, और चतना के जमींदार लगभग स्वतंत्र रहते थे. इस क्षेत्र की प्रजा भी अनुशासनहीन और उच्छृंखल अर्थात मनमर्जी हो गई थी. इस कारण अंग्रेजों को काफी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था. सामरिक नीति के तहत पर्युषण ने निर्णय लिया था कि सैनिक कार्रवाई से कोई भी लाभ नहीं है. इसलिए इन क्षेत्रों में एक सैन्य टुकड़ी रखकर सालाना बंदोबस्त कर दिया गया था.
मानभूम के बाद कंपनी ने सिंहभूम, सरायकेला खरसावां पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की जो कई दशकों तक सफल नहीं हो सका था. सिंहभूम में हो वीरों को पूरा नियंत्रण में लाने उद्देश्य के लिए वे कैप्टन विल्किन्सन के नेतृत्व में फरवरी 1837 में कंपनी की सेना ने धावा बोल दिया था. इपीलासिंगी और पंगा जैसे गांव को जलाकर राख कर दिया गए थे. हो आबादी को काफी क्षति हुई थी जिसके कारण उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया था. विल्किन्सन ने उनके लिए एक अलग प्रशासनिक इकाई का गठन किया था जिसे कोल्हान गवर्नमेंट इस्टेट का नाम दिया गया था. कोल्हान के पहले उपायुक्त टिकेल बनाए गए थे. अच्छे प्रशासनिक व्यवस्था के लिए विल्किन्सन ने 31 की नियमों की सूची दी थी. जिसे “विल्किन्सन रूल्स” के नाम से जाना जाता है. उस समय सरायकेला का क्षेत्रफल लगभग 700 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ था. जबकि खरसावां राज्य 225 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ था. सरायकेला की चौहद्दी अर्थात क्षेत्र की सीमा उत्तर में मानभूम, पश्चिम में खरसावां एवं कोल्हान, दक्षिण में मयूरभंज इस्टेट और पूरब में सिंहभूम जिला का धालभूम सबडिवीजन था. खरसावां राज्य के उत्तर में रांची, पूरब में सरायकेला, दक्षिण में कोल्हान था. यह दोनों क्षेत्र 1934 से ब्रिटिश राज्य में शामिल हुए थे. सरायकेला के मामले में उड़ीसा के बाद के क्षेत्र का ब्रिटिश रेजिडेंट इसी वर्ष से सरायकेला का भी कामकाज देखने लगा था. इसी वर्ष अप्रैल से ईस्टर्न स्टेटस एजेंसी को खरसावां देखने का प्रभार सौंप दिया गया था.

             • आधुनिक काल के झारखंड के संथाल परगना में ब्रिटिश शासन -

ब्रिटिशो का प्रारंभिक इतिहास मुख्यता राजमहल की पहाड़ियों में रहने वाले पहाड़ियों ( एक जनजाति) में शांति की स्थापना की कोशिशों का अभिलेख है. जिसका वे प्रारंभ में ‘हाइलैंडर’, ‘हिल मैन’, या ‘ हिल रेस’ ( पहाड़ी जनजाति) की संख्या से उल्लेख करते थे. उत्तरी भाग में इस जाति को ‘ माल’ कहा जाता था और सामान्यता इनका उल्लेख ‘मालेर’ ( माल का बहुवचन) होता था ताकि इन्हें दक्षिणी और पश्चिमी इंस्पेक्टर पहाड़ी जंगलों में रहने वाले ‘माल पहाड़िया’ जनजाति से पहचाना जा सके. यह आदिम जनजाति आखेट से अपना भोजन जुटानी वाली थी. लूट और पशु की चोरी करना इनका अनुकूल पेशा था. यह लगातार हमेशा कठिन परिश्रम करने से भागते थे. मुगल शासकों ने उनके अनुपजाऊ पहाड़ों से कम लगान की उम्मीद के कारण उन्हें मनसबदारो के अधीन कर लिया था. जिस के मुख्य मनिहारी के खेतोड़ी परिवार के लोग थे. कहा जाता है कि इस परिवार के संस्थापक ने लकड़ागढ़ का किला जीता था और अकबर के सेनापति मानसिंह को, जब वह बंगाल पर आक्रमण करने जा रहा था तब पहाड़ियों ने मार्ग से गुजरने में सहायता की थी. उसे पुरस्कार स्वरूप ‘मनसब जागीर’ में वहीं क्षेत्र मिला जिसमें ‘मालेर’ रहते थे. इसके बाद में उसके अधिकारियों ने पहाड़ियों के पूर्व में राजमहल और पाकुड़ के पश्चिम में कोलगोंग तथा गोड्डा तक अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ा लिया था. 18 वीं शताब्दी में ‘मालेर’ द्वारा अशांति फैलाएं जाने तक इस परिवार के ‘मालेर’ के साथ अच्छे संबंध रहे थे.
इस परिवार के कुछ लोगों थी क्रूर हत्या कर दी गई थी और मालेरो ने लकड़ागढ़ पर हमला कर खेतोड़ी जागीरदारों को भगा दिया गया था. उन्होंने कई गांवो पर हमला किए थे लेकिन राजनीतिक में उथल-पुथल के कारण उन पर किसी भी प्रकार की कार्यवाही नहीं हुई थी. 1770 के भयंकर अकाल के दौरान उपद्रव चरम सीमा तक पहुंच गया था. पहाड़ की तलहटीयो में स्थित सैनिकों ने चौकियों से ‘घटवाल’ भाग गए थे और मेदिनी भाग में मालेरो के भरोसे रह गया था. मालेरो ने जंगली भोजन का अभ्यास होने के वजह से इस अकाल का सामना करना पड़ गया था. इस अकाल के कुछ वर्षों के पश्चात मालेरो का मैदानी इलाकों पर आक्रमण अधिक तथा सुनियोजित रूप से होने लगा था. निसंदेह उनका मुख्य उद्देश्य लूट था. परंतु उनके कुछ आक्रमण उन जमींदारों के शह पर भी हुए जो अपनी पड़ोसी के जिम्मेदारों से बदला लेने के लिए उनको माध्यम बनाते थे और अपने क्षेत्र से होकर उन्हें जाने के लिए मार्ग दे देते थे. इस तरह उनका आतंक इतना बढ़ गया था कि उनका पूरा उपजाऊ मैदानी इलाका किसानों से पूरा खाली हो गया था. अंधेरा होने के बाद गंगा के दक्षिणी तट पर कोई भी नौका डर से नहीं रुकती थी. यहां तक उन दिनों राज महल और तेलियागढ़ी के दर्रे से होकर गुजरने वाले सरकारी हरकारो को भी अक्सर लूट लिया जाता था और साथ ही साथ उनकी हत्या कर दी जाती थी. 1824 में बिशप हेबर की टिप्पणियों से पहाड़ियों (मालेरो) के फैले आतंक का बारे में पता लगता है- ” पिछले 40 वर्षों से उनके और आसपास के निचले भागों के किसानों के बीच भयंकर कलह था. वे दुर्दांत लुटेरे व हत्यारे भी थे परंतु वे लगातार आक्रमण करते रहे. मुस्लिम जमींदार मौका पाते ही पागल कुत्ते या बाघ की तरह मार देते थे.
जब इधर उत्तर में मालेर बेरोक-टोक आक्रमण कर रहे थे और उत्तर दक्षिण में माल पहाड़िया इसी प्रकार लूटमार में व्यस्त था. उनके हमलो के वजह से राज्य के सीमावर्ती भागों में भय और आतंक फैल गया था. इन आक्रमणों में उन्हें घटवालो, जैसे लक्ष्मीपुर का भुइया घटवाल और जमींदारों जैसे सुल्तानाबाद का जमींदार का शह मिल रहा था. 1783 में क्लीवलैंड ने लिखा है, ” घटवाल और जमींदार लूटपाट करने के लिए इन पहाड़ियों की नियुक्ति करते थे. सुल्तानाबाद राजसाही और बीरभूम के एक दूसरे के गांव में लूटमार कराने के लिए पहाड़ी लोगों को नियुक्त करने का एक चलन बन गया था. इन मल पहाड़ियों के बारे में 1808 में बनारस डिवीजन के जज ने लिखा था कि- ” ब्रिटिश शासन के प्रारंभिक काल में वीर भूमि से भागलपुर तक का क्षेत्र भयंकर रूप से अस्त-व्यस्त था. यहां के लोग सरकार और उसके कर्मचारियों का खुला विरोध करते थे. इनके द्वारा मैदानी भागों के निवासियों पर लगातार हमले किए जाते थे. उन्हें देश से निकाल दे दिया जाता था और जंगली जानवरों की तरह उनको खोजकर मार दिया जाता था.

  •  झारखंड का आधुनिक काल में कैप्टन ब्रुक -  

पहाड़ियों और विद्रोही जमींदारों के आतंक को खत्म करने की आवश्यकता महसूस कर 1771 में अपने सैनिक सलाहकार जनरल बार्कर की सलाह पर 800 सैनिकों का एक विशेष दल गठित कर उसकी कमान कैप्टन ब्रुक के हाथों में सौंप दी गई थी और उसे इस दिल की उत्तर से मुंगेर और भागलपुर के दक्षिण तक फैले हुए जंगल तराई वाले बाधित क्षेत्र का ‘मिलिट्री गवर्नर’ बना दिया गया था. कैप्टन ब्रुक का काम फैली हिंसा और आतंक को खत्म करके कानून व्यवस्था स्थापित करने से था. किसानों को कृषि क्रम की ओर प्रेरित करने से था और शांति के उपाय सुरक्षित करना था. अगले 2 वर्षों के दौरान कैप्टन ब्रुक ने वारेन हेसिटंग्स की नीति को अमल में लाने के लिए काफी कार्य किया था. 1773 में तिउर किले को तोप से उड़ा दिया था और पहाड़ी क्षेत्रों में सफल अभियान चलाकर पहाड़ियों के दलों में बिखराव लाने में हुआ था. उसने बंदियों से अच्छा व्यवहार कर उनका विश्वास जीता था और उन्हें नीचे मैदानी भागों में बसाकर खेती करने के लिए प्रेरित किया था. 1774 में उसने वारेन हेसिटंग्स को सूचना भेजी कि उसने उधवा और बारकोप के बीच में कम से कम 283 गांव बसा दिए थे. हेसिटंग्स ने ‘बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स’ को भेजें अपने पत्र में गर्व पूर्वक लिखा था की, ” प्रदेश के उस दुर्गम और अनजान क्षेत्र में जो सिर्फ लुटेरों के लिए मुफीद था, उस जंगल तराई क्षेत्र में बटालियन की तैनाती करने पर सरकार की कानून व्यवस्था कायम कर दी गई थी. यहां के लोग सभ्य हो गए हैं और लूट के कारण राजस्व में होने वाली कमी पर ना केवल रोक लगी है बल्कि इस भाग से राजस्व भी बढ़ गया है और जारी उपायों से और भी वृद्धि होगी.” अपने अल्प कार्यालय के बावजूद कैप्टन ब्रुक को राजमहल पहाड़ियों में सभ्यता का अग्रदूत माना जा सकता है.
कैप्टन ब्रुक के कार्य को कैप्टन जेम्स ब्राउन ने आगे बढ़ाया था.1774-1778 तक वह पहाड़ी सेना का नेतृत्व करते हुए जंगल तराई में तैनात रहा. इन वर्षों के दौरान लक्ष्मीपुर के जमींदार जगन्नाथ देव के बल पर आसपास क्षेत्रों में लूटमार करने वाले भुइया लोगों के विद्रोह को दबाने, पहाड़ियों का दमन करने और अंबर तथा सुल्तानाबाद में कानून व्यवस्था बहल करने में व्यस्त रहते थे. लेकिन उनकी ख्याति पहाड़िया लोगों में शांति स्थापना और भावी प्रशासन की योजना बनाने के लिए है जिसे बाद में क्लीवलैंड ने विस्तार कर लागू किया था. उनकी योजना का मुख्य बिंदु- पहाड़ियों की जनजातिया पारंपरिक व्यवस्था को मान्यता दिया था. इस समय पहाड़ियां कई भागों में बांटी हुई थी. जिन्हें ‘परागना’ या ‘टप्पा’ कहा जाता था और प्रत्येक परागने का एक मुखिया होता था जिसे ‘सरदार’ कहा जाता था. सरकार के सहायक को ‘नायाब’ कहते थे जोकि एक या एक से अधिक भी हो सकते थे. लोग गांव में रहते थे जिसके मुखिया को मानचित्र कहा जाता था. ब्राउन ने प्रस्ताव दिया था कि इस व्यवस्था को मान्यता देनी चाहिए तथा शांति और कानून व्यवस्था बनाए रखने में उनकी सेवा हासिल करनी चाहिए. प्रस्ताव के अनुसार पहाड़िया लोगों के साथ सभी प्रकार का लेन देन सरदार और मांझीयो का माध्यम से किया जाए और पहाड़ों की तलहटी में बाजार स्थापित कर मैदानी भाग के निवासियों के साथ उनके मेलजोल को प्रोत्साहित किया जाए. सार्वजनिक मार्ग के अगल-बगल पड़ने वाले टप्पे के सरदारों को आक्रमण से सुरक्षित करने के लिए उचित धनराशि दी जाए और 1772 में समाप्त हुई चौकाबंदी की व्यवस्था पुनः आरंभ की जाए तथा एचडी देखभाल सरकार तब तक करें जब तक की इससे जुड़े भूभाग का विकास ना कर लिया जाए. इन चौकियों को सरकार द्वारा नियुक्त थानेदार के अधीन रखा जाए और थानेदारों के ऊपर सजवाल ( डिविजनल सुप्रिडेंट) हो. पुलिस बल को अधिक मजबूत बनाने के लिए अक्षम सिपाहियों को पहाड़ों के नीचे भागों में शर्त पर अनुदान में जमीन दी जाए कि वे वहां निवास करेंगे और पहाड़ियों द्वारा आक्रमण होने पर पुलिस की सहायता करेंगे. इस योजना को सरकार द्वारा 1778 में मंजूरी मिली लेकिन अगले ही वर्ष इस योजना को लागू करने के पहले ही ब्राउन को अपना कार्यभार मि. अगस्तुस क्लीवलैंड को सौंप देने का निर्देश मिला. क्लीवलैंड 1773 में राजमहल के कलेक्टर का सहायक था फिर 1766 में भागलपुर गया था और अब कलेक्टर नियुक्ति हो गया था.

• झारखंड का आधुनिक काल में अगस्तुस क्लीवलैंड-

अगस्तुस क्लीवलैंड और वारेन हेस्टिंग्स के बीच हुए पत्राचार से पता चलता है कि अपने नियुक्ति के तुरंत बाद ही उसने पहाड़ियों के लिए नीति निर्धारित कर ली थी. क्लीवलैंड को उनकी शादी की और सच्चाई से बहुत प्रभावित लगता था. उसने उनके इस दावे को स्वीकार किया था कि वे हमेशा स्वतंत्र रहते थे और सिर्फ नीचे के मैदानी भागों के राजाओ के साथ संधि करने के अंतर्गत ही उनके विश्वास से प्रेरित होकर क्लीवलैंड ने उनके प्रति उदार नीति बनाई थी और उसे लागू भी किया था. अपनी नीति की सफलता के संबंध में उसने नवंबर 1779 में वारेन हेस्टिंग्स को भी लिखा था कि उसकी इस नीति के कारण कम से कम 47 पहाड़िया मुखिया और उनके लोगों ने स्वेच्छा से समपर्ण कर सरकार के प्रति निष्ठा रखने की शपथ ली थी. उसने पहाड़ियों से टकराव समाप्त करने के लिए उनके प्रति न्याय और मानवीयता पर आधारित उपायों की आवश्यकता पर बल देते हुए लिखा की अंबर के सीमा से सटे क्षेत्रों (अंबर क्लीवलैंड के क्षेत्र में शामिल नहीं था) को छोड़कर अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में पिछले 8 महीनों से जैसे शांति बनी हुई थी वैसे पिछले कई वर्षों से नहीं थी.
21 नवंबर 1780 को संकरी गली से क्लीवलैंड ने अपने क्षेत्र की स्थिति और अपनी नीतियों का वर्णन करते हुए विस्तृत योजना का प्रस्ताव भेजा था जिसमें उसने सरकार को सुझाव दिया की सरकार इन लोगों को जीवन यापन के साधन मुहैया कराने में सहयोग करें ताकि वे गलत कार्यों को छोड़ सके. उसने स्पष्ट रूप से यह लिखा की या तो सरकार उनके लिए जीवन यापन के साधन जुटाए या फिर से इस क्षेत्र में पहले की तरह उनके लूटमार की अव्यवस्था झेले. उसने पहाड़िया मुखियाओ के साथ मैत्रीपूर्ण स्थापित करने पर जोर देते हुए अपना निम्न प्रस्ताव भेजा था-

Q.) कंपनी सरकार के लिए झारखंड पर कब्जा करना क्यों आवश्यक हो गया था?
a) मराठा आक्रमण का खतरा उत्पन्न हो गया था,
b) झारखंड बंगाल सीमा को मराठा आक्रमण से बचने के लिए,
c) व्यापारिक मार्गों को सुरक्षित रखने के लिए,
d) उपयुक्त सभी

b) 1767 ईस्वी में जब सिंहभूम के राजाओं में कंपनी सरकार का भय व्यापक हो गया था, उस समय सिंहभूम का कौन राजा ने अंग्रेजों को कड़ा विरोध किया था?
a) पोरहाट के राजा ने, c) सिंहभूम के राजा ने
b) धालभूम के राजा ने, d) जाम बनी के राजा ने

c) धालभूम के राजा किस वर्ष अंग्रेजी सेना से पराजित हुए थे?
a) 1766 ईस्वी, c) 1767 ईस्वी
b) 1768 ईस्वी, d) 1769 ईस्वी

Q.) 1767 में जब धालभूम का राजा अंग्रेजों से पराजित हो गए उसके बाद अंग्रेजों ने किसे धालभूम का राजा बनवाया था?
a) नीमु धाल, c) जगन्नाथ धाल
b) निमाई धाल, d) ह्रयामल धाल

Q.) किस वर्ष सिंहभूम में अंग्रेजों और हो जनजातियों के बीच युद्ध हुआ था?
a) 1818 ईस्वी, c)1819 ईस्वी
b) 1820 ईस्वी, d)1821 ईस्वी

Q.) नागवंशी राजा दृपनाथ शाह ने कितना रुपया कंपनी सरकार को वार्षिक कर देना स्वीकार किया था?
a) 10 हजार रुपए, c)12 हजार रुपए
b) 14 हजार रुपए, d)16 हजार रुपए

Q. खरसावां राज का अंग्रेजों के साथ औपचारिक संबंध किस वर्ष स्थापित हुआ था?
a)1766 ईस्वी, c)1769 ईस्वी
b)1780 ईस्वी, d) 1793 ईस्वी

Q.) किस अंग्रेज अधिकारी के नेतृत्व में अंग्रेजों ने हजारीबाग में प्रवेश किया था?
a) मेजर रफसेज, c) मेजर आस्ले
b) मेजर कैमक, d) मेजर रुक

Q.) हजारीबाग क्षेत्र में अंग्रेजों के प्रवेश का किस रामगढ़ राजा ने विरोध किया था?
a) तेज सिंह, c) मुकुंद सिंह
b) पारसनाथ सिंह, d) रघुनाथ सिंह

Q. 1770 ईस्वी में जनजाति ने उधवानाला के पास अंग्रेज सैनिकों को खदेड़ दिया था?
a) संथाल, c) पहाड़िया
b) मुंडा, d) हो

Q.)पोरहाट राजा घनश्याम सिंह ने किस वर्ष कंपनी सरकार की अधीनता स्वीकार कर ली थी?
a)1818, c)1819
b)1820, d)1821

Q. मेजर कैमक ने कब पलामू किला पर अधिकार कर लिया था?
a) 17 फरवरी, 1771, c)18 फरवरी,1771
b) 19 फरवरी, 1771, d)20 फरवरी,1771

Q. साउथ वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी ( छोटा नागपुर कमिश्नरी) का पहला एजेंट (कमिश्नर) 1834 में कौन बना था?
a) थॉमस विलकिंग्सन, c) टोगुड
b) रिचर्ड्सन, d) यूल


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