By vinay singh
बंगाल का विभाजन एवं स्वदेशी आंदोलन 1905 की प्रमुख घटनाओं में से एक था, 19वीं शताब्दी के अंतिम तक में शिक्षित भारतीयों की महत्व कम हो चुकी थी उदाहरण स्वरुप शिक्षित लोगों को पहले कद्र किया जाता था जितना ग्लैडस्टोन प्रधानमंत्री रहते हुए किए थे या लॉर्ड रिपन भारत में वायसराय रहते हुए इसके कारण शिक्षित भारतीय नाराज हो गए थे। 1900 इसवी तक राष्ट्रवादी ब्रिटिश सरकार को सिर्फ ज्ञापन देने में व्यस्त रहे, प्रार्थना पत्र देने में व्यस्त रहे लेकिन इससे क्या हासिल होगा यह उन्हें पता ही नहीं चल पाया। कांग्रेस बनने के बाद विधानसभा में स्थान की मांग कई बार की गई लेकिन इसे अस्वीकार कर दिया गया था सुधार की मांग को भी अस्वीकार कर दिया गया था। भारतीयों ने कानून की मांग की थी कई वर्षों के बाद 1892 ईस्वी का सिर्फ एक कानून ही लाया गया। ब्रिटिश सरकार वैसे सभी रियासत को छीनना चाहते थे जो नाराज हो कर या फिर असहमति भाव से ब्रिटिश सरकार के साथ जुड़े थे। 18 74 में असम को अलग कर दिया गया था जिसमें बंगाली प्रमुख क्षेत्र सिलहट और बाद में लुशाई को भी शामिल किया गया। लॉर्ड कर्जन एंड्रयू एवं रिसले ने जैसे ही क्षेत्रीय पुनर्गठन की बात की तो राष्ट्रवादी नाराज हो गए पहले तो राष्ट्र वादियों ने स्वयं अलग क्षेत्र की मांग की थी लेकिन अब उन्हें लगता था कि उनके आंदोलन को कमजोर करने के लिए ऐसा किया गया है। ब्रिटिश बंगाल को अपने उपनिवेश की सबसे कमजोर कड़ी के रूप में देखते थे यहां पर अधिकांश हिंदू ब्रिटिश के विरोधी थे क्योंकि मुसलमान इतने पढ़े लिखे नहीं थे और पिछड़े हुए थे इसलिए 1 जून 1903 से 2 फरवरी 1905 तक एक योजना बना और बंगाल को अलग करने के लिए लंदन में चिट्ठी भेज दी गई ,19 जुलाई 1905 को पूर्वी बंगाल ,असम की घोषणा कर दी गई 16 अक्टूबर 1905 को इस का विभाजन तय किया गया था। लार्ड कर्जन द्वारा 18 99 में कोलकाता कॉरपोरेशन में चुनाव से आए सदस्यों की संख्या कम कर दी गई 1904 में यूनिवर्सिटी एक्ट लाते हुए सेनेट में चुने हुए सदस्य की संख्या कम कर दी गई, इससे लोगों में नाराजगी होने लगा।
लॉर्ड कर्जन को यह पता था विभाजन के समय पूर्वी बंगाल के क्लर्क को नौकरी की चिंता हो सकती है। बंगाली जमींदार भी उनके विरोध में जा सकते हैं। हाईकोर्ट के वकील का आमदनी भी घट जाएगा और कोलकाता बंदरगाह के किनारे व्यापारियों के लिए समस्या आएगी फिर भी उसने बंगाल विभाजन का सोच लिया था लेकिन तब तक एक शक्तिशाली साहित्यिक भाषा विकसित हो गया था ।लेखकों के विचार प्रकाशित हो रहे थे जैसे रविंद्र नाथ टैगोर के नेतृत्व में साहित्य क्षेत्र का विस्तार हुआ, जगदीश बसु एवं प्रफुल्ल चंद्र राय के नेतृत्व में विज्ञान में विकास हुआ, राजनीति में सुरेंद्रनाथ बनर्जी और बिपिन चंद्र पाल अरविंद घोष ने विकास किया और एक नए धर्म के क्षेत्र में रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद का नेतृत्व था ।इसी प्रकार जब जापान ने रूस को हरा दिया इथियोपिया ने इटली को हरा दिया तो लोगों को लगा कि वे अंग्रेज को क्यों नहीं हरा सकते। 1905 में लगातार वस्तुओं के दाम बढ़ने लगे इसलिए आम लोग ब्रिटिश सरकार के विरोध में चले गए ।शुरुआती समय में ऐसा लग रहा था कि बंगाल विभाजन के विरोध में आंदोलन नहीं चल पाएगा लेकिन धीरे-धीरे 7 अगस्त 1905 को आंदोलन की शुरुआत हो गई, 16 अक्टूबर के दिन को रक्षाबंधन दिवस मनाने के लिए रविंद्र नाथ टैगोर ने कहा, स्वदेशी और बहिष्कार संजीवनी पुस्तक से लिया गया। बंगाल विभाजन के बाद शुरू हुआ आंदोलन ने भारत को बहुत कुछ दे दिया था।
स्वदेशी का समर्थन होने के साथ ही भारत में निर्मित वस्तु खरीदने का अनुरोध शुरू हुआ। लोगों में भाईचारा और मोहब्बत शुरू हुआ। चरखा गांव गांव तक पहुंच गया ।आर्थिक आत्मनिर्भर भारत बना । हस्तकरघा उद्योग बेहतर हुआ। विदेशी फंड घटता चला गया । भारतीय उद्योग जिसमें बंगाल केमिकल, कॉटन मिल ,मोहिनी मिल ,नेशनल टेनरी जैसे उद्योग विकसित हुए ।माचिस और इंश्योरेंस ,स्वदेशी बैंक ,साबुन ,स्टीम नेविगेशन , उद्योग ऐसी कई छोटी-छोटी कुटीर उद्योग को सहारा मिल गया। बंगाल टेक्निकल इंस्टीट्यूट कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एवं टेक्नोलॉजी डॉन सोसायटी एंड सर्कुलर सोसायटी अनुशीलन समिति साधना समिति कई भारतीय संस्थाएं विकसित हो गई संतुलित राजनीतिक मत का प्रतिनिधित्व शुरू हुआ सुरेंद्रनाथ बनर्जी कृष्ण कुमार मित्र नरेंद्र कुमार सेन ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर चलना चाहते थे और आंदोलन को जल्द समाप्त करना चाहते थे वहीं राष्ट्रीय शक्ति और आत्मनिर्भरता को आगे बढ़ाने के लिए सतीश चंद्र मुखर्जी अश्विनी कुमार दत्त प्रफुल्ल चंद्र राय नीलरतन सरकार प्रमुख थे।और अभिव्यक्ति को फैलाने के लिए बिपिन चंद्र पाल का न्यू इंडिया मैगजीन ,अरविंद घोष का वंदे मातरम ब्रह्म बांधव उपाध्याय का संध्या, भूपेंद्र नाथ दत्त का युगांतर प्रमुख था।
स्वदेशी आंदोलन के किसी भी गुट ने किसानों की मांग नहीं उठाई क्योंकि मध्यम वर्ग की कमाई किसानों के शोषण पर आधारित थी ।किसी भी समिति ने अत्यधिक कर और किराए की मांग भी नहीं उठाई क्योंकि उन्हें लगा कि इससे अंग्रेज नाराज हो जाएंगे ।कृषक और मजदूर थोड़ा बहुत ही इसमें भागीदार बने। सांप्रदायिक समस्या भी अंत तक नहीं सुलझ सकी। स्वदेशी आंदोलन का स्वरूप अंत तक फैसला ही नहीं हो पाया ।वंदे मातरम के नारे पर भी रोक लगा दी गई ।कुछ क्रांतिकारी गतिविधियां भी हुई जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी नीतियों के द्वारा इस आंदोलन को दबा दिया।