18 58 में ब्रिटिश संसद ने ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन को लेकर ब्रिटिश सम्राट को दे दिया। इसके पहले भारत पर कंपनी के डायरेक्टर और बोर्ड ऑफ कंट्रोल के द्वारा शासन किया जाता था लेकिन अब ब्रिटिश सरकार का एक मंत्री जिसे भारत मंत्री या सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के नाम से कहा जाता था उसकी ताकत बढ़ा दी गई और इसकी सहायता के लिए एक काउंसिल नियुक्त किया गया। यह भारत सचिव ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था और ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदाई था ।इस प्रकार से भारतीय सत्ता पर ब्रिटिश संसद का अधिकार हो चुका था। गवर्नर जनरल का नाम बदलकर अब वायसराय कर दिया गया और वे ब्रिटिश सम्राट के व्यक्तिगत प्रतिनिधि हो गए। 1861 में इंडियन काउंसिल एक्ट में गवर्नर जनरल के काउंसिल को और अधिक ताकत सौंपी गई। इसे इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल नाम दिया गया क्योंकि कानून बनाने की जिम्मेवारी भी इन्हीं सौंप दी गई थी। गवर्नर जनरल को एग्जीक्यूटिव काउंसिल में 6 से बढ़ाकर 12 सदस्य जिनमें से कम से कम आधे का गैर अधिकारी होना अनिवार्य था। इसमें भारतीय को भी अप्वॉइंट किया जा सकता था और अंग्रेजों को भी किया जा सकता था लेकिन यह एक सलाहकार समिति के रूप में ही कार्य कर रही थी ।वित्तीय प्रश्न पर इसे कम शक्ति दिया गया था। बजट पर शक्ति ना के बराबर थी इसके द्वारा पारित कोई भी विधायक गवर्नर जनरल के अनुमोदन के बिना कानून नहीं बन सकता था और अगर कोई कानून बन भी जाता तो भारत सचिव इसे रद्द कर सकता था। इसी प्रकार से लेजिसलेटिव काउंसिल में भी भारतीय सदस्य बहुत कम थे और उसे भारत की जनता नहीं चुनती थी बल्कि गवर्नर जनरल नामित करते थे। इसमें कोई राजा होता था, कोई मंत्री, कोई बड़ा जमींदार, कोई व्यापारी और कोई सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी।
प्रांतीय प्रशासन – ब्रिटिश प्रांत में कई साधारण प्रांत थे और कई प्रेसिडेंसी। प्रेसिडेंसी यानी कि बंगाल मद्रास और मुंबई जहां पर गवर्नर 3 सदस्य की काउंसिल के साथ प्रशासन को देखता था और दूसरे प्रांत में गवर्नर जनरल द्वारा नियुक्त या तो लेफ्टिनेंट गवर्नर या फिर चीफ कमिश्नर शासन देखते थे। प्रांतीय वित्त व्यवस्था को केंद्रीय वित्त व्यवस्था से 1870 में अलग किया गया ।पुलिस जेल शिक्षा चिकित्सा सेवा और सड़क को प्रांत सरकार को जिम्मेवारी दी गई और निर्धारित पैसा भी दिया गया, 1877 में इस योजना को और प्रभावशाली बना दिया गया। अब धीरे-धीरे प्रांत के खर्च करने की योजना को केंद्र सरकार उन्हें सौंपती जा रही थी
सेना के क्षेत्र में किया गया परिवर्तन – ब्रिटिश सरकार ने सेना में महत्वपूर्ण परिवर्तन किया ,अब यूरोप के लोगों को सेना के बड़े पदों पर अधिक जिम्मेवारी दी गई ।भारत के लोगों को अधिकारी वर्ग से बाहर रखा गया, 1914 ईस्वी तक कोई भी भारतीय कभी भी सूबेदार के पद पद से ऊपर नहीं जा सका। सेना में लड़ाकू और गैर लड़ाकू 2 वर्ग बना दिए गए जो लोग विद्रोह में शामिल हुए थे उन्हें अब गैर लडाकू कर दिया गया और उनकी भर्ती भी बंद हो गई। वहीं सेना को कुचलने में जो लोग सहायता दिए थे जैसे कि पंजाबी गोरखा और पठान उन्हें लड़ाकू कहा गया। बड़ी संख्या में उनकी भर्ती की गई ।भारतीय सेना के अलग-अलग रेजिमेंट का मिश्रण बनाया गया ताकि वे एक दूसरे को संतुलन में रखें ।सैनिकों की सांप्रदायिक और जातिगत और क्षेत्रीय निष्ठा को प्रोत्साहन दिया गया क्योंकि इससे राष्ट्रवाद की भावना को रोकी जा सकती थी।
देसी
देशी राजा और रजवाड़े के साथ संबंध –
विद्रोह को दबाने के लिए कई राजा ने साथ दिया था इसलिए अब ब्रिटिश सरकार ने गोद लेने के अधिकार को मान्यता दे दिया ।राजा को यह भरोसा दिया कि उसका अधिग्रहण नहीं होगा। रजवाड़ा के आंतरिक मामले में दखल देने वाली नीति को छोड़ दिया गया और उसे अपना सहयोगी घोषित किया गया। यही कारण था कि 1876 में रानी विक्टोरिया ने भारत की रानी का पद भी संभाल लिया और धीरे-धीरे लॉर्ड कर्जन के आते ही राजा महाराजा को ब्रिटिश सरकार का एक एजेंट बना दिया गया। 18 58 के बाद जनता और राजा को एक दूसरे के खिलाफ कर दिया गया ।अलग-अलग प्रांतों के बीच लड़ाई शुरू करवा दी गई। अलग-अलग जातियों के बीच हिंसा शुरू हो गया। अलग-अलग समूह हिंदू और मुसलमान आपस में लड़ने लगे यानी कि बांटो और राज करो सफलतापूर्वक जारी कर दिया गया।
शिक्षा को लेकर विचार –
18 57 के सिपाही विद्रोह में शिक्षित भारतीय ने विद्रोह का समर्थन नहीं किया था इससे ब्रिटिश सरकार खुश हुए लेकिन जैसे ही पढ़े-लिखे भारतीयों ने विद्रोह का विश्लेषण शुरू किया और ब्रिटिश साम्राज्यवाद नीति की आलोचना शुरू की इससे ब्रिटिश सरकार ने भारत में शिक्षा की पद्धति को परिवर्तित कर दिया और उच्च शिक्षा के खिलाफ हो गए।
जमींदार और भूस्वामी को लेकर भी ब्रिटिश सरकार ने अपनी नीति में परिवर्तन की अब उनके जमीन उन्हें लौटा दिया जा रहा था और उन्हें जनता के बीच में एक लोकप्रिय शासक बनाया जा रहा था जिससे कि ब्रिटिश सरकार जमींदार और भूस्वामी के माध्यम से किसानों के ऊपर में शासन कर पाए। पहले जहां अंग्रेज भारतीय परंपरा को सही और गलत में तौल कर सुधार कर रहे थे अब उन्होंने रूढ़िवादी परंपरा को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया क्योंकि अंग्रेजों का मानना था कि सती प्रथा का अंत करना विधवा पुनर्विवाह की स्वीकृति देनी उनकी गलती थी।
फैक्ट्री को लेकर नीति –
1881 में प्रथम फैक्ट्री एक्ट लाया गया ,इसमें 7 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को कारखाने में काम नहीं करवाया जाना, 7 वर्ष से 12 वर्ष तक के बच्चों से प्रतिदिन 9 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाना और बच्चों को महीने में कम से कम चार छुट्टी दिया जाना शामिल था। खतरनाक मशीन के काम को भी बच्चों से नहीं करवाया जा सकता था 1891 ईस्वी में दूसरा फैक्ट्री एक्ट लाया गया। जिसमें सभी मजदूर के लिए छुट्टी की व्यवस्था की गई। प्रत्येक सप्ताह में छुट्टी दिया जाएगा। महिलाओं के लिए प्रतिदिन 11 घंटे से अधिक काम नहीं करवाना और बच्चों के लिए काम का समय 7 घंटा कर दिया गया लेकिन पुरुषों के लिए काम के घंटे की सीमा तय नहीं की गई ।चाय और कॉफी के बागान मालिक अंग्रेज थे इसलिए यहां पर कोई कानून लागू नहीं हुआ।